अन्नदाता कहा जाने वाला किसान आज परेशान है। वह अपनी मेहनत से दूसरों की भूख मिटाने का प्रबंध करता है इसलिए अन्नदाता कहलाता है। पर उसकी अपनी दशा कैसी है, इसकी चिंता न सरकार करती है और न मोटी पगार पाने वाले वेतनभोगी और न कल कारखानों के मालिक ही करते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश गंगा और यमुना जैसी दो बड़ी नदियों के बीच का क्षेत्र होने के कारण दोआब कहा जाता है। कभी संपन्न और खुशहाल समझे जाने वाले दोआब के किसान की हालत दो-तीन दशकों में बद से बदतर हुई है।

वोट लेने के लिए हर पार्टी किसान को उसकी उपज का लाभकारी दाम दिलाने का वादा करती है। पर सत्ता में आने के बाद अपना वादा भूल जाती है। लोक लुभावन घोषणाएं तो अलबत्ता सरकार के स्तर से खूब की जाती हैं, पर उन पर अमल की जमीनी हकीकत को जानने समझने की तकलीफ उठाने वाला तंत्र नदारद है। दोआब में ज्यादातर किसान गन्ने की खेती करते हैं। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने चार साल के कार्यकाल में गन्ने का खरीद मूल्य फूटी कौड़ी भी नहीं बढ़ाया, जबकि लागत लगातार बढ़ी है। यहां तक कि सरकार से मिलने वाली बिजली के दाम ही इस अवधि में डेढ़ गुना बढ़ गए। खाद, बीज और कीटनाशकों की कीमत में भी उछाल आया है। चीनी मिल एक तरफ तो घाटे का रोना रोती रहती हैं।

दूसरी तरफ उनके कारोबार का लगातार विस्तार साफ दिखता है। गन्ने के दाम में बढ़ोतरी नहीं होने से किसान उतना निराश नहीं है, जितना समय पर चीनी मिलों से गन्ने का भुगतान नहीं मिलने को लेकर। कहने को सरकार ने देरी से होने वाले भुगतान पर ब्याज की अदायगी का कानून बना रखा है। लेकिन किसी मिल मालिक ने आज तक किसान को उसके बकाया पर ब्याज नहीं चुकाया।

गन्ना सत्र 2020-21 खत्म हो चुका है, पर किसानों को अभी तक पिछले गन्ना सत्र 2019-20 का भुगतान भी सरकार सुनिश्चित नहीं करा पाई। नतीजतन अपनी घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए किसान ब्याज पर कर्ज लेने को मजबूर है। बागपत जिले के अमींनगर सराय के गन्ना किसान मांगेराम यादव ने एक और समस्या की तरफ भी ध्यान दिलाया। किसानों को अब अपनी फसलों को जंगली जानवरों से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए खेतों पर पहरेदारी करनी पड़ती है। नील गाय जैसे जंगली जानवर को सरकार मारने की इजाजत भी नहीं देती।

अक्सर नेता और अफसर किसानों को नसीहत देते मिल जाएंगे कि वे केवल गन्ने की फसल ही क्यों बोते हैं। दूसरी फसलों को बोकर ज्यादा कमाई करने में रुचि क्यों नहीं लेते? पर उन्हें कौन समझाए कि किसान कोई भी फसल बोए, उसे तो औने पौने दाम ही पल्ले पड़ते हैं। गेहूं को ही लीजिए। कोरोना की महामारी के बावजूद जान हथेली पर रखकर किसानों ने गेहूं की रेकॉर्ड पैदावार कर दिखाई। सरकार ने भी वाहवाही लूटने के लिए गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी करते हुए 1925 रुपए प्रति कुंतल तय कर दिया। इसके बावजूद किसान अपना गेहूं 1750-1800 रुपए कुंतल पर बाजार में बेचने को मजबूर है।

मेरठ जिले के टिमकिया गांव के किसान महक सिंह ने शिकायत की कि एक तो इस साल सरकार ने ज्यादा खरीद केंद्र नहीं बनाए। ऊपर से ज्यादातर खरीद केंद्रों पर स्टाफ की कमी और भ्रष्टाचार का बोलबाला दिखा। किसानों से उनके गेहूं को घटिया क्वालिटी का बताकर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद नहीं की गई। यह बात अलग है कि बिचैलियों ने उसी गेहूं को किसान से सस्ते दाम पर खरीद कर सरकारी अमले की मिलीभगत से खरीद केंद्रों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेच दिया।

सरकार किसानों के लिए जितनी भी घोषणाएं कर रही है, ज्यादातर हवाई साबित हुई हैं। सीमांत किसानों तक के पास आयुष्मान भारत कार्ड नहीं हैं। परिवारों के बंटवारे के कारण जोत लगातार छोटी हो रही हैं। ज्यादातर किसानों के पास दस बीघा से भी कम जमीन बची है। जिसके लिए वे अपने अलग ट्रैक्टर आदि कृषि यंत्र नहीं रख सकते। इससे भी लागत बढ़ रही है। कहने को फसल बीमा योजना लागू है। पर उसकी बीमा पालिसी का प्रीमियम इतना ज्यादा है कि अधिकांश किसान फसल बीमा पालिसी ले ही नहीं पाते। आंधी, तूफान, बेमौसम बारिश और ओला वृष्टि के कारण उनकी फसलें तबाह हो जाती हैं। पर सरकार कोई मुआवजा नहीं देती।

दिल्ली में पिछले छह महीने से जारी किसानों के आंदोलन को सरकार भले प्रायोजित बताकर अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ने की कोशिश करे पर हकीकत यही है कि हरित क्रांति के बाद किसानों की खुदकुशी की घटनाएं बढ़ी हैं। कोई खुशहाल आदमी तो ऐसा कदम कभी उठाएगा नहीं।