सुखबीर सिवाच
हरियाणा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर के समर्थकों को लगता है कि उनका आम आदमी पार्टी के साथ जुड़ने का फैसला उनकी प्रदेश की राजनीति में नए रास्ते खोलने का सबब साबित हो सकता है। यह भी हो सकता है कि इससे उनके राजनीतिक सफर की दशा ही तय हो जाए। एक समय था कि अनुसूचित जाति के अशोक तंवर को आला कांग्रेस नेता राहुल गांधी का नजदीकी माना जाता था। यही वजह थी कि भूपिंदर सिंह हुड्डा के समर्थकों के लाख दांव-पेच के बावजूद पांच साल तक अशोक तंवर को कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष की कुर्सी से उतारा नहीं जा सका था।
लेकिन हरियाणा विधानसभा चुनाव 2019 से चंद महीने पहले ही कांग्रेस ने तंवर को प्रदेशाध्यक्ष की कुर्सी से उतारकर उनकी जगह पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं अनुसाचित जाति की ही कुमारी सैलजा को हरियाणा कांग्रेस की कमान सौंप दी थी। और तब हरियाणा विधानसभा में हुड्डा को कांग्रेस विधायक दल का नेता व प्रदेश चुनाव समिति का अध्यक्ष बना दिया गया था।
इसके बाद बुरी तरह बिफरे अशोक तंवर ने अपने समर्थकों के साथ उसी रोज देर शाम सोनिया गांधी के आवास के बाहर प्रदर्शन शुरू कर दिया था। फिर उनके तमाम शुभचिंतकों को लगा कि तंवर ने यह सब सही नहीं किया क्योंकि गांधी परिवार उन्हें इतने सालों तक अपना समर्थन देता रहा था। और तो और, तंवर की पत्नी अवंतिका तो अपने माता-पिता गीतांजलि और ललित माकन को सन 1985 में उग्रवादियों द्वारा मार दिए जाने के बाद से गांधी परिवार की नजदीकी बनी रहीं और उन्होंने ही उन्हें ऐसे समय में सहारा दिया था जब अवंतिका मात्र छह साल की थीं।
जो भी हो, उस वक्त तंवर के कई अन्य समर्थकों को यह भी लगता रहा कि उन्हें प्रदेशाध्यक्ष के पद से हटाना उनके लिए बड़े अपमान की वजह इसलिए बन गया क्योंकि उसके बाद उनके लिए कांग्रेस में बने रहने का औचित्य ही खत्म हो गया था। इससे पूर्व उन्हें अपने और हुड्डा समर्थकों के बीच झड़प में चोटें भी आर्इं थीं जब वे लोग वर्ष 2016 के दौरान किसान यात्रा खत्म करने के बाद दिल्ली लौट रहे राहुल गांधी का स्वागत करने वहां जमा थे।
अंतत: तंवर ने हरियाणा विधानसभा चुनाव 2019 से ऐन पहले ही कांग्रेस छोड़ दी थी और उसका विस चुनाव में कांग्रेस की संभावनाओं पर किसी हद तक असर भी देखा गया क्योंकि विरोधियों ने इस वाकये को अनुसूचित जाति से आते उभरते युवा नेतृत्व के साथ कांग्रेस की नाइंसाफी माना था। जो भी हो, यह सब स्वयं तंवर के लिए भी घातक साबित हुआ क्योंकि पांच साल से भी अधिक समय तक प्रदेश की राजनीति में छाए रहने वाला युवा अचानक कहीं का नहीं रहा।
लेकिन अशोक तंवर ने आस नहीं छोड़ी और प्रदेश विस चुनाव 2019 में दुष्यंत चौटाला की जजपा के कुछ प्रत्याशियों को समर्थन का ऐलान कर दिया जिससे उन्हें कुछ लाभ भी हुआ, विशेषकर जिला फतेहाबाद के हलका टोहाणा में जहां जजपा प्रत्याशी देविंदर सिंह बबली ने हरियाणा भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सुभाष बराला को पटखनी दे दी थी। बबली अब हरियाणा की भाजपा-जजपा गठबंधन सरकार में कबीना मंत्री पद पर विराजमान हैं।
ऐलनाबाद उपचुनाव 2021 में तंवर ने इनेलो के अभय सिंह चौटाला को समर्थन दे दिया था लेकिन उनके समर्थक चाहते थे कि वे किसी मुख्यधारा वाली पार्टी का दामन थामें। फिर नवंबर, 2021 में उन्होंने ममता बनर्जी नीत तृणमूल का दामन थाम लिया। तब उनके समर्थकों को लगता था कि उन्हें तृणमूल की टिकट पर राज्यसभा में भेजा जा सकता है। जो भी हो, पंजाब में ‘आप’ की जबर्दस्त जीत ने अरविंद केजरीवाल नीत पार्टी के मन में पड़ोसी राज्य हरियाणा में भी बड़ा दांव खेलने की हिलोर पैदा कर दी हैं।
यही वजह है कि अचानक आप ने हरियाणा में अपनी गतिविधियां भी बढ़ा दी हैं जहां उसे लोगों का भरपूर समर्थन मिल रहा है। दूसरी ओर ‘आप’ भी पार्टी में तंवर की मौजूदगी का लाभ लेना चाहती है जिनके पास हरियाणा में 20 फीसद वोट बैंक अकेले अनुसूचित जाति का ही है। वैसे भी हरियाणा में जातिगत राजनीति का ही अधिक बोलबाला रहता है।
तंवर ने बताया कि उन्हें ऐसे अच्छे लोगों की ही तलाश थी जो हरियाणा में परंपरागत राजनीतिक दलों का बेहतर विकल्प बन सकें। उनके शब्दों में, ‘मुझे भरोसा है कि हरियाणा आने वाले दिनों में देश को भी एक कुशल नेतृत्व प्रदान करेगा। जरूरत केवल ऐसे नेताओं को चमकाने भर की है। हरियाणा में अब तीसरे मोर्चे की सख्त जरूरत है।’