केंद्र और राज्य की सरकारों में रहने के बावजूद उत्तर प्रदेश में हुए पंचायत चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी को मिली करारी शिकस्त से दोनों ही दलों के वरिष्ठ नेता सकते में हैं। गांव-गरीब-किसान को साधने के लिए दोनों ही सियासी दलों के माहिरों की तरफ से बिछाई बिसात से गांव, गरीब और किसान ने किनारा कर लिया है। मतदाताओं की इस बिरादरी के कन्नी काटने की वजह से सपा और भाजपा के कई वरिष्ठ सवालों के घेरे में हैं। खुद को सवालों से बचाने के लिए उन्होंने भितरघातियों के सिर हार की तोहमत मढ़ने की कोशिशें तेज कर दी हैं।
उत्तर प्रदेश में पौने चार सालों से सरकार चला रही समाजवादी पार्टी को पंचायत चुनावों ने आईना दिखा दिया है। मुलायम सिंह यादव समेत पार्टी के वरिष्ठ नेता सकते में हैं। चुनाव परिणाामों के बाद उनके असंयत होने के वाजिब कारण हैं। सवा साल बाद उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सरकार ने विकास का जो एजंडा प्रदेश की जनता के समक्ष रखा है उसका या तो गांव तक प्रचार नहीं किया गया? या उसने अब तक इतनी रफ्तार नहीं पकड़ी है कि शहर पार कर गांव की तरफ बढ़ सके। इस चिंता से निजात पाने के लिए सपा ने अपने सभी जिलाध्यक्षों को ऐसे कार्यकर्ताओं की सूची बनाकर भेजने को कहा है जो पूरे चुनाव में दूसरे दलों के समर्थित उम्मीदवारों को जिताने पर खुद को केंद्रित रखने में मशगूल थे।
सपा के प्रदेश प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी कहते हैं कि मुख्यमंत्री को ऐसे कार्यकर्ताओं पर फैसला करना है। जबकि शिवपाल सिंह यादव का कार्यकर्ताओं से जैसे भरोसा ही उठ गया है। उन्होंने बुधवार को यह कहते हुए अपनी पीड़ा का इजहार किया कि कट्टर समर्थक कार्यकर्ताओं से ज्यादा वफादार हैं। पौने चार साल सरकार चलाने के बाद जिन समर्थकों की शिवपाल सिंह यादव को याद आई है उनमें से ज्यादातर वे हैं जिन्हें इस समयावधि में न ही याद किया गया और न ही उनसे संवाद स्थापित करने की गंभीर कोशिशें ही पार्टी स्तर पर हुर्इं।
उधर, भारतीय जनता पार्टी हार के बाद दस्तूरन चिंतन और मंथन की मुद्रा में पहुंच चुकी है। भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को इस बात की चिंता सता रही है कि डेढ़ दशक से सक्रिय रहे जिन भितरघातियों ने नरेंद्र मोदी के आने के बाद शीत निद्रा का रुख अख्तियार कर लिया था वे पंचायत चुनाव में पुन: पार्टी की जड़ों को खोखली करने की कोशिशों में कैसे जुट गए? उन पर पार्टी के प्रदेश पदाधिकारियों और वरिष्ठ नेताओं की नजर कैसे नहीं पड़ी? उत्तर प्रदेश में भाजपा के भीतर कई गुट हैं। इस बात का पता अमित शाह और ओम माथुर समेत सभी वरिष्ठों को है। इन गुटों के बीच एक-दूसरे को पछाड़ने की प्रतिस्पर्धा लगभग हर वक्त जारी रहती है।
लोकसभा चुनाव में मिली अप्रत्याशित सफलता के बाद अति आत्मविश्वास का शिकार हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता जीत के उत्साह में इन गुटों को नजरअंदाज कर गए। उनकी इसी नाकामी ने पंचायत चुनाव में भाजपा को बड़ा झटका दिया है। इस झटके से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का ध्यान भटकाने के लिए दूसरे दलों के नेताओं को भाजपाई बनाने की कोशिशें शुरू कर दी गर्इं। ताकि असलियत से पार्टी आलाकमान का ध्यान भटकाया जा सके। साथ ही प्रदेश के सभी जिलों से ऐसे कार्यकर्ताओं की रिपोर्ट तलब की गई है जिन्होंने भाजपाई होने के बाद भी गैरों को जिताने पर अधिक ध्यान दिया।
उत्तर प्रदेश में हुए पंचायत चुनावों में भाजपा और सपा को मिली करारी हार ने यह साफ कर दिया है कि दोनों ही दलों में अब भी असंतुष्टों की संख्या इतनी अधिक है कि वे चुनाव परिणामों पर असर डाल सकते हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि इन असंतुष्टों की पहचान पहले से होने के बावजूद उन्हें अब तक संतुष्ट करने की कोशिशें क्यों नहीं हुर्इं। अगर कोशिशें हुर्इं तो जो संतुष्ट नहीं हुए उनका निष्कासन क्यों नहीं किया गया?
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