इन दिनों भारतीय टीवी पर देसी चायनीज के विज्ञापन का बोलबाला है। यानी चीनी नूडल्स पंजाबी तड़का मार कर। हिंदी पट्टी में शक्कर को चीनी कहते हैं, चीनिया केला और चीनिया बादाम (मूंगफली) भी सुने जा सकते हैं। हर गली-मुहल्ले में एक दाम पर मिलने वाला ‘चायना बाजार’ सजा पड़ा है। राजपथ पर मोदी सरकार ने जोर-शोर से योग दिवस मनाने का एलान किया तो पता चला कि चीन में बनी चटाइयों पर ही भारतीय शीर्षासन करेंगे। दिवाली पर नियोन लाइट में चमचमाती लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमा खरीद लाए और होली में रंगों की फुहार भी चीनी पिचकारी से कर रहे हैं। हमारी खाने की थाली से लेकर तीज-त्योहार में चीन का बाजार घुसा पड़ा है। वहीं चीन में भी एक छोटा सा भारत है और पीकिंग विश्वविद्यालय में मीरा, सीता और राम रामचरितमानस और रवींद्रनाथ ठाकुर की रचनाएं पढ़ रहे हैं। भारत में तो चीन खूब दिख रहा है, पर चीन में बसे छोटे भारत को जानने के लिए पढ़ें इस बार का बेबाक बोल।
भार्गवी तमिल हैं। पीकिंग विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर पढ़ाई कर रही हैं। अपने नैन-नक्श व भारतीय बल्कि यूं कहें कि दक्षिण भारतीय अंदाज के अपने पहनावे के कारण दूर से ही पहचानी जाती हैं। लेकिन अगर उनकी वेशभूषा उनके भारतीय होने की चुगली न करे तो उनकी जुबान से यह फर्क करना मुश्किल हो जाएगा कि वे चीनी हैं या भारतीय। भार्गवी धाराप्रवाह चीनी बोल लेती हैं और हिंदी व अपनी मातृभाषा तमिल भी। यह दृश्य पीकिंग विश्वविद्यालय के ऐसे आलीशान आडिटोरियम का है जिसकी भव्यता आंखें चुंधियाती हैं।
पीकिंग विश्वविद्यालय में मीरा, गंगा, राम और सीता ने आकर हमें नमस्ते किया। आम तौर पर चीनी उच्चारणों को लेकर उलझी जुबान इन नामों को सुनते ही दोस्ती की भाषा बोलने लगी और बात आगे बढ़ी। दरअसल चीन में हिंदी सीखने वाले विद्यार्थियों को हिंदी भाषा में लोकप्रिय नाम भी दिया जाता है, और विश्वविद्यालय परिसर में वे उसी नाम से जाने जाते हैं। तो यह है किसी चीज को सीखने की चीन के लोगों की लगन।
दूसरा दृश्य चीन के थ्येनमन स्कावयर पर स्थित ‘द ग्रेट हाल आॅफ पीपुल्स’ का है। अपनी भव्यता में इस हाल का पूरी दुनिया में कोई दूसरा सानी ढूंढ़ना मुश्किल होगा। मौका राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के स्वागत का था। कड़ी धूप में सेना के तीन अंगों की मुस्तैद टुकड़ियां सावधान की मुद्रा में थीं। चारों तरफ चीन का लाल रंग रचा था। लेकिन उसकी बराबरी पर ही भारत का सम्मान तिरंगा भी लहरा रहा था। द ग्रेट हॉल में तिरंगे की शान ही निराली थी। राष्ट्रपति के आगमन के बाद पहले चीन के एक बड़े सैनिक बैंड ने राष्ट्रगान की धुन को इतनी दक्षता से बजाया कि हाल में खड़े भारतीयों को एक पल के लिए विश्वास ही न हुआ कि किसी दूसरे देश के लोग यह बजा रहे हैं, या वे भारत में नहीं हैं। और रात्रिभोज के समय चीन और बालीवुड को जोड़ते हिंदी गाने ‘बार-बार देखो’, ‘रोजा जानेमन’ और मेरा नाम ‘चीन चिन चुन’ पर चीनी और भारतीय पैर एक साथ थिरकने लगे।
जैसे ही प्रणब मुखर्जी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ बातचीत के लिए तय स्थान की ओर बढ़े, राह के किनारे पर बैठीं चीनी लड़कियों ने सरोद वादन कर सबका मन मोह लिया। चीन के सभी लोग अपना काम करते हुए उसमें ऐसे रम जाते हैं कि आसपास की दुनिया उनके लिए मानो है ही नहीं। ये दोनों दृश्य इसलिए कि चीन में काम की लगन फिर चाहे वह चीनियों की हो या वहां रह रहे भारतीयों की हो, अप्रतिम है। अपने काम में डूब जाते हैं सब।
चीन में भारतीयों की संख्या ज्यादा नहीं। लेकिन जो हैं वे ज्यादातर खुश हैं और वहां अपने विकास से संतुष्ट। भार्गवी का कहना है कि वे पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से चीन में हैं और अपनी वैयक्तिकता बनाए रखते हुए वहां आगे बढ़ रही हैं। बात बेजिंग की करें तो वहां शायद कुल मिला कर एक हजार भारतीय रहते होंगे। महाराष्ट्र के जसमीत सिंह कलसी कई सालों से चीन में हैं। बेजिंग में आने वाले भारतीयों को अगर लजीज भारतीय खाने का लुत्फ उठाना हो तो वे लोग बेजिंग रेस्तरां ताज पैवेलियन का रुख करते हैं। रेस्तरां के मालिक पस्ताकिया भी पिछले एक अरसे से बेजिंग में खुश हैं और उनका कारोबार भी ठीक चल रहा है। वे कहते हैं, ‘चीन में अगर अपने ग्राहकों की संख्या का अंदाज लगाना हो तो हमारे पास खाने के लिए आने वाले ग्राहकों में करीब तीस फीसद ही भारतीय हैं। इसके अलावा बीस फीसद के करीब चीनी ग्राहक आते हैं जबकि आधे से ज्यादा हिस्सा विदेशियों का है’।
चीन में भारतीयों से सामान्य व्यवहार के बारे में पूछे जाने पर जसमीत ने कहा कि यहां उन्हें कभी भेदभाव नहीं झेलना पड़ा। उन्होंने कहा, ‘हम यहां एक बहुत छोटा समूह हैं लेकिन एक बार चीनी भाषा आ जाने के बाद आपसी व्यवहार की समस्या दूर हो जाती है और कोई मुश्किल नहीं’। चीन में भारतीय व्यंजन पूरी, छोले, समोसा व खीर हिट हैं। भारतीय विदेश मंत्रालय से मिली सूचना के अनुसार बेजिंग में महज सात या आठ सौ भारतीय ही होंगे जबकि शंघाई में इनका आंकड़ा 10 हजार की संख्या को छूता है। चीन में सबसे ज्यादा भारतीय चीन की भव्यता के प्रतीक शहर क्वांग चो में ही हैं। विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा, ‘क्वांग चो नया बना शहर है और चीन के अत्याधुनिक उद्योग व व्यवसाय का आलीशान केंद्र है। यहां भारतीयों की संख्या 20 हजार से भी ज्यादा है और इनमें से बहुत से बड़ी-बड़ी कंपनियों के शीर्ष स्तर पर कार्यरत हैं’। इस अधिकारी का कहना है कि चीन में रहने का सीधा फार्मूला यही है कि आपको चीनी भाषा का ज्ञान हो। वरना कई बार सामान्य चीनी के बोलने के कर्कश अंदाज से आप भ्रमित हो जाते हैं कि वह गुस्सा कर रहा है या लड़ना चाहता है।
चीन में महिलाओं की मौजूदगी मुखर है। यहां कई संवेदनशील कार्यों में महिलाएं अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभा रही हैं। बेजिंग हवाई अड्डे के अति महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के लाउंज का समूचा प्रबंधन व सुरक्षा महिलाओं के जिम्मे है। राष्ट्रपति को सलामी देने वाली सेना की तीनों टुकड़ियों में महिलाओं ने बराबरी से शिरकत की और इसके बाद सबकी अगवानी में भी महिलाएं आगे थीं।
विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी के अनुसार यहां किसी के भी विकास व तरक्की में भाषा बड़ी बाधा हो सकती है। इसलिए मंत्रालय के सभी लोगों को भी पहले भाषा सीखने में दक्ष होना पड़ता है। फिर सब कुछ आसान हो जाता है। विदेशियों के रास्ते में भाषा आड़े न आए, इसके लिए आपको उपकरण प्रदान किए जाते हैं जो उच्चारण के साथ-साथ ही अंग्रेजी अनुवाद पेश करते जाते हैं। भाषा के प्रति चीनियों के आग्रह की प्रशंसा और आलोचना दोनों होती है। लेकिन अगर भारतेंदु हरिश्चंद्र की सीख याद करें, ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल’ तो शायद हमें चीन से यह सीख लेनी होगी कि ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के तहत बतौर भाषा हिंदी को दुनिया की भाषा के समांतर खड़ा करने की कोशिश भी होनी चाहिए। चीनी भाषा सीखे बिना यहां रह पाना असंभव सा है और यह इस भाषा की मजबूती का कारण भी है।
यात्रा के दौरान जब पत्रकारों ने प्रणब मुखर्जी से सवाल किया कि इतने लंबे अर्से तक सार्वजनिक क्षेत्र में जिम्मेदारी निभाते हुए भी बोलने का बंगाली अंदाज आपसे जुदा नहीं हो पाया है तो प्रणब दा ने बड़ी संजीदगी से मुस्कुराते हुए कहा, ‘मुझे अपने बंगाली अंदाज पर नाज है और मैंने कभी इसे बदलना नहीं चाहा’। वैश्विक मंच पर प्रणब ने बंगाली भाषा को लेकर जो आदर और सम्मान दिखाया, वह भारतीय भाषाओं को लेकर देश में अनुकरणीय हो तभी ‘मेक इन इंडिया’, ‘मेड इन चाइना’ को मात दे पाएगा।
क्वांग चो के बड़े व्यवसायियों ने प्रणब के लिए एक शानदार आयोजन किया जहां चीन के साथ कारोबार की संभावनाओं पर विस्तार से चर्चा हुई। वहीं मौजूद एक बड़े व्यवसायी ने जनसत्ता से बातचीत में जैसे भारत-चीन संबंधों का निचोड़ ही निकाल डाला। उनका कहना था, ‘चीन के साथ भारत के संबंध थोड़े जटिल हैं। चीन के साथ हमारी दोस्ती भी है और दुश्मनी भी। दो देश जिनकी सीमाएं आपस में जुड़ती हैं, के बीच दुश्मनी का भाव सहज ही है। लेकिन सच यह है कि हमें इसी दोस्ती और दुश्मनी के बीच में से अपना रास्ता निकालना है क्योंकि विश्व के आर्थिक पटल पर जिस तेजी से चीन ने अपनी जगह बनाई है उसके कारण इससे अलग होना उतना भी आसान नहीं’।
इस व्यवसायी की बात में दम है। शायद इसलिए जब राष्ट्रपति से पूछा गया कि क्या किन्हीं विशेष मुद्दों या व्यक्ति पर बात हुई तो उनका जवाब दो टूक था कि इस स्तर पर बातचीत व्यक्तिगत नहीं होती। लिहाजा यह यात्रा इस मायने में अहम रही कि इसके दौरान भारत की ओर से मुद्दों के आपस में स्वीकार्य समाधान पर जोर दिया गया। शायद इसलिए राष्ट्रपति ने चीन को भी ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्मार्ट सिटी और डिजिटल इंडिया’ जैसी मोदी सरकार की योजनाओं में भाग लेने का बुलावा दिया। हालांकि यह भी सच है कि ‘मेक इन इंडिया’ को ‘मेड इन चाइना’ के जवाब के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन चीन ने इसमें अपनी भागीदारी को लेकर सकारात्मक संकेत देकर ही भेजा। यह कितना सफल होगा यह देखने की बात है।
चीन में भारतीयों को इसलिए भी ज्यादा परेशानी से दो-चार नहीं होना पड़ता कि उनमें बहुत से अपने व्यवसाय या बड़े पदों पर हैं। लेकिन इसके अलावा भी ऐसे भारतीयों की कमी नहीं जो चीन में खरीद-फरोख्त के लिए आते हैं। बड़ी संख्या में ये लोग क्वांग चो और शंघाई से उपभोक्ता वस्तुएं खरीद कर लौटते हैं। ऐसे ही एक व्यवसायी अशोक कपूर ने बताया, ‘मैं तो साल में तीन या चार बार यहां कच्चा माल लेने आता हूं जो मुझे भारत के मुकाबले एक चौथाई दाम में मिल जाता है’। कपूर फोटो एलबम के धंधे में हैं। चीन में दरअसल ऐसा बहुत कुछ है जिसकी वजह से जो चीन में है वह वहीं रहना चाहता है।
चीन में जाकर खरीद-फरोख्त करने वाले भारतीयों को देख कर यह तय है कि जब तक भारत उन लोगों को अपनी सरहद के अंदर वह सब प्रतियोगी मूल्यों पर प्रदान नहीं कर पाएगा जिसके लिए ये चीन दौड़ते हैं, तब तक ‘मेक इन इंडिया’ सपना ही रहेगा। आखिर ‘मेक इन इंडिया’ का अपने देश में भी इस्तेमाल होना चाहिए। राकेश खुल्लर ने बताया, ‘चीन में हमारे सारे खर्चे निकालने के बाद भी फर्नीचर हमें भारत से सस्ता मिलता है। यही हाल इलेक्ट्रानिक उपकरणों का भी है’। जाहिर है कि भारत को चीन की निर्माण नीतियों से सीख लेनी चाहिए और लालफीताशाही का अंत करना चाहिए।
क्वांग चो और बेजिंग का आंतरिक ढांचा बेजोड़ है। शहर के बीचोंबीच और सड़कों के दोनों किनारों पर पिछले 15 सालों में इतनी हरियाली खड़ी कर दी गई है कि यह यकीन नहीं आता कि क्वांग चो का मौजूदा चेहरा पिछले 20 सालों में ही उभरा है। बेजिंग और क्वांग चो में आपको छोटी गाड़ी (मारुति जैसी) नहीं दिखती। हालांकि गाड़ियां यहां संपन्न वर्ग ही चलाता है। क्वांग चो में तो ट्रैफिक का जबर्दस्त अनुशासन है लेकिन बेजिंग में जाम से जूझना पड़ता है। मध्यमवर्गीय चीनी सार्वजनिक परिवहन पर ही भरोसा करते हैं। यह भी सच है कि कभी साइकिल के लिए मशहूर चीन में अब सड़कों पर चारपहिया वाहनों का आधिपत्य है।
क्वांग चो हवाई अड्डे पर उतरने वाले पर्यटकों को एक पल को तो भरोसा ही नहीं होता कि यह शहर जिस देश में है वह समाजवाद का सबसे बड़ा ध्वजवाहक था। चीन का आंतरिक ढांचा पूंजीवाद के अश्लील इश्तहार जैसा लगता है। रात को जगमगाता शहर बताता है कि अंधेरे में अपनी भव्यता से आंखें चुंधियाने के लिए ऊर्जा की कितनी खपत की जा रही है। चीन का जनवादी गणराज्य अब पूंजीवाद के हाईवे पर है और अब कम्यून नहीं क्वांग चो उसकी पहचान है।