दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 17 जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक पत्र लिखकर सिंगापुर जाने की मंजूरी देने की अपील की थी लेकिन केंद्र चुप्पी साधे बैठा है। केजरीवाल का कहना है कि ऐसा लग रहा है कि उन्हें सिंगापुर जाने की मंजूरी ना दिए जाने के पीछे राजनीतिक कारण हैं। केजरीवाल ने ये भी कहा कि वो अपराधी नहीं हैं, जो उन्हें विदेश जाने से रोका जा रहा है।
रिकॉर्ड खंगाले तो पता चलता है कि 2019 में भी केजरीवाल को विदेश में एक ऐसे ही इवेंट में शामिल होने की मंजूरी नहीं मिली थी। उन्हें वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से काम चलाना पड़ा था। इस बार उनके ऑफिस ने सिंगापुर जाने की मंजूरी मांगने वाली फाइल बीती 7 जून को उपराज्यपाल को भेजी थी। लेकिन नतीजा पहले जैसा ही रहा। अभी तक वो मंजूरी मिलने की राह देख रहे हैं।
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक ब्यूरोक्रेट्स को विदेश यात्राओं के लिए विदेश मंत्रालय की मंजूरी जरूरी होती है। कई मंत्रालय आपस में समन्वय करते हैं। विदेश मंत्रालय से मंजूरी मिलने के बाद मुख्यमंत्रियों को डिपार्टमेंट ऑफ इकॉनमिक अफेयर्स से भी मंजूरी लेनी होती है। रिपोर्ट कहती है कि मुख्यमंत्रियों और राज्य स्तर के मंत्रियों के विदेश दौरे प्रधानमंत्री कार्यालय और कैबिनेट सचिवालय के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। मुख्यमंत्री के आवेदन के बाद पीएमओ एक्शन लेता है। नियम कहते हैं कि प्रक्रिया कैबिनेट सचिवालय से शुरू होनी चाहिए।
रिपोर्ट के मुताबिक प्रक्रिया के तहत पीएमओ आवेदन को विदेश मंत्रालय के पास भेज देता है। जहां जाने के लिए मंजूरी मांगी गई है, विदेश मंत्रालय आवेदन को वहां के भारतीय दूतावास में भेजता है। फिर तमाम छानबीन के बाद मंजूरी देने पर फैसला लिया जाता है। मंजूरी का अंतिम अधिकार पीएमओ के पास होता है। रिपोर्ट कहती है कि स्वास्थ्य कारणों से मांगी गई मंजूरी जल्द से जल्द मिल जाती है। नियमों में ऐसा प्रावधान भी नहीं है, जो किसी मुख्यमंत्री को विदेशी जमीन पर मौजूद लोगों से मिलने से रोक सके।
वैसे केजरीवाल के विदेश दौरे को लेकर ही पहली बार कोई विवाद नहीं खड़ा हुआ है। इससे पहले ममता बनर्जी को भी ईटली जाने की मंजूरी नहीं मिली थी। राहुल गांधी के यूके के दौरे को लेकर विवाद हुआ था। बीजेपी का कहना था कि उन्होंने अपने ब्रिटेन दौरे से पहले केंद्र सरकार से आवश्यक अनुमति हासिल नहीं की थी।
