दिल्ली में उप राज्यपाल के माध्यम से केन्द्र सरकार और आम आदमी पार्टी(आप) की दिल्ली सरकार शुरू से चल रहा जंग का अंत होता नहीं दिख रहा है। दिल्ली का सही शासक कौन है शायद इसका फैसला तो अगले महीने हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट कर देगी लेकिन जिस तरह की कटुता बढ़ी है वह कम होने के बजाए बढ़ती ही जा रही। दिल्ली में महिला सुरक्षा के नाम पर 28 जुलाई को होने वाली विधान सभा की बैठक इसे और बढ़ाने का काम करेगी। पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम में जिस तरह के विवाद आप और दिल्ली पुलिस में हुए हैं उसमें पुलिस खुलकर केजरीवाल सरकार के खिलाफ हो गई है।
दिल्ली की जो शासन व्यवस्था है उसके हिसाब से दिल्ली की चुनी हुई सरकार केन्द्र यानि उप राज्यपाल को साथ किए बिना ज्यादा काम नहीं कर सकती है। जो 63 विभाग सीधे विधान सभा के अधीन यानि दिल्ली की चुनी हुई सरकार के अधीन हैं उसके लिए भी कई ऐसी बाधाएं खड़ी कर दी गई हैं जिससे उन पर स्वतंत्र काम करना कठिन है। एक तो केन्द्र सरकार या उप राज्यपाल के सीधे अधीन रहने वाले तीनों विभाग(पुलिस, भूमि और कानून-व्यवस्था) का दायरा काफी बड़ा है दूसरे पिछले संशोधनों से दिल्ली सरकार के अधिकारों में कमी हुई है। इनमें कोई ठोस बदलाव संसद के बिना हो ही नही सकता। सामान्य कामकाज के लिए इतने में ही तमाम अवसर हैं, वह झगड़े के बजाए आपसी रजामंदी से संभव है।
जिस स्तर पर विवाद पहुंच चुका है उससे तो यही लगा रहा है कि यह सरकार इसी तरह चलती रहेगी। इसका खामियाजा दिल्ली के लोगों को उठाना पड़ रहा है। तमाम विकाय कार्य बंद पड़े हैं। नए स्कूल,कालेज क्या फ्लाई ओवर या सड़कें तक नहीं बन रही है। अरविंद केजरीवाल की सरकार भी एक तरह से लड़ने के लिए पूरी तरह से कमर कस ली है। सालाना बजट में विज्ञापन का बजट 30 करोड़ से बढ़ाकर 526 करोड़ करने को उपयोग सरकार इस झगड़े में अपना पक्ष लोगों को बताने में और अपनी उपलब्धियां गिनाने में कर रहा है।
उप राज्यपाल नजीब जंग से केजरीवाल सरकार का विवाद तो पिछली आप की सरकार के ही समय से है। संयोग आसा बन रहा है कि जो विवाद शुरू हो रहा है उसका समादान हुए बिना ही नया विवाद शुरू हो जा रहा है। अधिकारियों के तबादले आदि पर चला विवाद अदालत से ही सुलझेगा लेकिन इस विवाद ने दिल्ली के अधिकारियों को एक दूसरे का विरोधी बना दिया। दिल्ली में पहली बार तबादलों की ज्यादातर फाइलें मुख्य सचिव केके शर्मा के पास जा ही नहीं रही है। पूरी सरकार मुख्यमंत्री केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेन्द्र कुमार और उनके ही विश्वासी अधिकारी चला रहे हैं। अनेक ईमानदार और काबिल माने जाने वाले अधिकारी हाशिए पर हैं।
दो-दो गृह सचिव का विवाद तो सुलझा लेकिन लगता नहीं कि दो-दो एसीबी(भ्रष्टाचार निरोधक शाखा) के प्रमुख का विवाद सुलझेगा। उप राज्यपाल द्वारा नियुक्त प्रमुख मुकेश मीणा को दिल्ली सरकार पैदल करने में लगी है और राजनिवास मीणा को ही मान्यता देकर सरकार की ओर से नियुक्त एसएस यादव को बेअस करने में लगे हुए हैं। दोनों प्रमुख एक दूसरे के कपड़े फाड़ने में लगे हुए हैं। इस चक्कर में एसीबी का काम लगभग बंद हो गया है। एक तरफ मीणा नए हेल्प लाइन की घोषणा करते हैं दूसरे तरफ सरकार ऐसा करने पर उनके खिलाफ कारवाई करने की चेतावनी दे रहा है।
दिल्ली महिला आयोग का विवाद भी उसी तरह का है। बिना उप राज्यपाल की मंजूरी के स्वाती मालीवाल को दिल्ली महिला आयोग के अध्यक्ष पर विवाद होने पर दो दिन बाद सरकार ने जिस तरह से उप राज्यपाल की मंजूरी के लिए नाम भेजा वह भी अपने आप में विवाद को कम करने वाला नहीं लगता है। अब तो यह लगने लगा है कि दिल्ली की सरकार ने इस विवाद को ही अपने काम के ढ़ग में शामिल कर लिया है। भले ही वे दिल्ली को पूर्ण राज्य बनवाने के मुद्दे पर जनमत संग्रह की बात करते हों लेकिन उन्हें पता है कि आसानी से यह संभव नहीं है। इसलिए इसे ही दिल्ली पर राज करने का सबसे बड़ा मुद्दा बना लिया है।
भाजपा जिसने इस मांग की शुरूवात की थी वही दोबारा केन्द्र में अपने बूते सरकार में आने पर इस मांग के हर से विधान सभा चुनाव में घोषणा पत्र जारी नहीं कर पाए। जिस तरह से दिल्ली के अधिकारियों को केन्द्र सरकार के अधीन बताने वाला 21 मई के परिपत्र के खिलाफ आप सरकार ने 26 और 27 मई को विधान सभा की विशेष बैठक बुलाकर उसे वापिस लेने का प्रस्ताव पास किया उसी तरह से एक वरिष्ट नौकरशाह के पत्र से नाराज होकर तब के उप राज्यपाल ने 2002 में संशोधन करवाकर गृह मंत्रायल से दो परिपत्र (25 जुलाई और 29 अगस्त) जारी करवा लिए जिसके तहत कोई भी विधेयक का प्रारूप तक को विधान सभा में पेश किए जाने से पहले केन्द्र सरकार की मंजूरी लेनी होगी। इसके विरोध में तब की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने दिल्ली सचिवालय से संसद तक पैदल मार्च किया था और11 सितंबर 2002 विधान सभा की विशेष बैठक बुलाकर पूर्ण राज्य का प्रस्ताव पास किया था।
आजादी के बाद मार्च 1952 में महज दस विषयों के लिए 48 सदस्यों वाली दिल्ली को विधान सभा दी गई थी।1955 में राज्यपुर्नगठन आयोग बनने के बाद दिसल्ली की विधान सभा भंग कर दी गई। 1958 में दिल्ली नगर निगम अधिनियम के तहत दिल्ली में नगर निगम बनी। प्रशासनिक सुधार आयोग की 1966 में रिपोर्ट आने के बाद 61 सदस्यों वाली महानगर परिषद बनी जिसे 1987 में भंग करके दिल्ली को नया प्रशासनिक ढ़ांचा देने के लिए बनी बालकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर 1993 में पुलिस और जमीन के बिना विधान सभा दी गई। तभी इस पर गंभीरता से चर्चा होनी चाहिए थी कि आखिर चुनी हुई सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री के बजाए उप राज्यपाल का शासन क्यों होना चाहिए। जो लोग दिल्ली सरकार को बनाते हैं वे कुछ चीजों के लिए किसी और को जिम्मेदार क्यों मानें।
(मनोज मिश्र)