नई दिल्ली। दिल्ली में किराया कानून के विरोध में व्यापारियों ने जंतर-मंतर पर धरना दिया। दो दशकोंसे भी ज्यादा समय से विवाद में रह रहे दिल्ली किराया कानून की वजह से रोज अनेक दुकानदारों को अपनी बरसों पुरानी दुकानों से बेदखल किए जाने से आहत व्यापरियों ने इस मामले में केंद्र सरकार के तुरंत सीधे हस्तक्षेप की मांग को लेकर मंगलवार को जंतर-मंतर पर राजधानी के सभी भागों के दुकानदारों ने एक धरना दिया।
व्यापारियों ने कहा कि यह बेहद अजीब बात है कि अर्थव्यवस्था और देश के विकास में व्यापारियों को देश की राजनीतिक जमात रीड़ की हड्डी बताती है लेकिन देश में सबसे ज्यादा उपेक्षा व्यापारियों की ही होती है। धरने का आयोजन कॉन्फेडरेशन आॅफ आल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) के बैनर तले हुआ, जिसमें फेडरेशन आॅफ दिल्ली ट्रेड एसोसिएशन, दिल्ली राज्य व्यापार संगठन, दिल्ली व्यापार महासंघ सहित दिल्ली के 200 से अधिक प्रमुख व्यापारी संगठनों जुड़े व्यापारियों ने भाग लिया। धरने की अध्यक्षता कॉन्फेडरेशन आॅफ आल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष रमेश खन्ना ने की।
धरने में शामिल व्यापारी बेहद गुस्से में थे और ‘दुकान हमारी, पैसा हमारा, फिर भी दुकानदार बेचारा’, ‘पगड़ी देकर दुकानें ली हैं’ ‘व्यापार किया है अपराध नहीं’, ‘जो नहीं करे व्यापारी का मान, उसका कैसे करें सम्मान’ जैसे नारे लगाकर अपना रोष जाहिर कर रहे थे। व्यापारियों की मांग है कि गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों के किराया कानून में कट आॅफ डेट के प्रावधान की तरह दिल्ली में भी किराया कानून में 1,1.1996 की कट आॅफडेट घोषित की जाए, जिससे दिल्ली में पुराने किराएदार, जिन्होंने पगड़ी देकर दुकानें ली हैं को संरक्षण दिया जाए। उन्होंने यह भी मांग की है कि सुप्रीम कोर्ट की 5 न्यायधीशों की एक बेंच द्वारा ज्ञान देवी के मुकदमे में वाणिज्यिक और रिहायशी संपत्तियों के बीच के अंतर को मान्यता दी जाए।
वास्तविक जरूरत के आधार पर दशकों पुरानी दुकानों को खाली कराया जा रहा है जबकि न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत के अनुसार वास्तविक जरूरत एक तरफ न होकर किराएदार की भी वास्तविक जरूरत को समझा जाना चाहिए क्योंकि एक दुकान से अनेक लोगों और उनके परिवारों की रोजी रोटी चलती है।
धरने में शामिल व्यापारी नेताओं ने कहा कि आजादी के बाद जिस समय व्यापारियों ने दुकानें किराए पर ली थी उस समय मकान मालिकों को संपत्ति की कुल कीमत के रूप में राशि दी थी, जिसे पगड़ी कहा गया क्योंकि उस समय के कानून के अनुसार मकान मालिक अपनी संपत्ति को बेच नहीं सकते थे और न ही बंटवारा कर सकते, इसीलिए उस संपत्ति का किराया बहुत ही मामूली रखा गया। मकान मालिकों ने पगड़ी से प्राप्त राशि से और संपत्तियां खरीदीं और इस तरह बड़ी मात्रा में आर्थिक लाभ कमाया। यह उसी तर्ज पर था जिस तरह डीडीए ने उस समय संपत्ति की कीमत तो ली लेकिन संपत्ति लीज पर दी और प्रतिवर्ष लीजहोल्डरों से लीज राशि वसूल की और अब ऐसी संपत्तियों को फ्रीहोल्ड करके लीजहोल्डर को मालिकाना हक़ दिया जा रहा है।
व्यापारी नेताओं ने कहा कि वर्ष 2008 से पहले दिल्ली में किसी मकान मालिक की कोई वास्तविक जरूरत नहीं थी लेकिन 2008 से लेकर अब तक अचानक वास्तविक जरूरत के आधार पर दुकानें खाली कराने का सिलसिला बढ़-सा गया है। इससे साफ पता चलता है कि संपत्ति की बढ़ती कीमतों को देख कर ही जमे-जमाए दुकानदारों को उनकी दुकानों से बेदखल किया जा रहा है। व्यापारी नेताओं ने कहा कि आजादी के बाद से लेकर वर्ष 1980 तक दिल्ली में व्यापारिक बाजार काफी कम थे। दिल्ली में व्यापार बढ़ाने की दृष्टि से व्यापारियों ने उस समय पगड़ी देकर किराए पर दुकानें लेकर दिल्ली के अलग-अलग भागों में अपनी मेहनत और अपने पैसे से दुकानें चलाईं और बाजार को जमाया, जिसके कारण ही उस जगह की गुडविल भी बनी और संपत्तियों की कीमतें बढ़ने लगीं। वर्ष 2007 में सीलिंग के मामले में अदालत में चल रहे एक मामले में शहरी विकास सचिव ने एक हलफनामा दाखिल कर इस बात को स्वीकार किया कि पिछले चार दशकों में सरकारी एजंसियां दिल्ली में कुल 16 फीसद व्यावसायिक क्षेत्र ही विकसित कर पाईं। बाकी 84 व्यावसायिक क्षेत्र व्यापारियों ने अपनी मेहनत से दिल्ली में विकसित किया और अब दिल्ली के व्यापारियों को दुकानें खाली करने को कहा जा रहा है। इससे न केवल व्यापारियों बल्कि उन पर आश्रित कर्मचारियों की रोजी-रोटी के लिए भी एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है।
व्यापारियों ने केंद्रीय शहरी विकास मंत्री वेंकैय्या नायडू से आग्रह किया है कि वे इस मामले में दखल दें और दिल्ली में एक संतुलित किराया कानून बने इसके लिए एक विशेष टास्क फोर्स का गठन किया जाए, जिसमें वरिष्ठ सरकारी अधिकारी और संबंधित वर्गों के प्रतिनिधि शामिल हों।