मुकेश भारद्वाज

हरियाणा में 21वीं सदी की पहली ओमप्रकाश चौटाला सरकार के अंतिम चरण में एक पत्रकार सम्मेलन के दौरान मुख्यमंत्री अपनी नई छड़ी के साथ पधारे। प्रेस कांफ्रेंस के औपचारिक दौर के बाद एक पत्रकार ने मुख्यमंत्री से पूछा, कोशिश चौटाला को मनमुदित करने की थी, ‘‘सीएम साहब, आपने नई छड़ी ले ली?’’

अपनी नई छड़ी को देख कर आह्लादित होते हुए चौटाला ने फरमाया, ‘‘हां पहले वाली छड़ी बहुत पुरानी हो गई थी इसलिए यह नई ली है।’’ इसके पश्चात उन्होंने छड़ी की महिमा भी बखान की जिसे प्रथम पंक्ति में बैठे पत्रकारों ने बड़े चाव से सुना। लेकिन पिछली पंक्ति में खड़े एक पत्रकार ने धीरे से, लेकिन यह सुनिश्चित करते हुए कि चौटाला को सुनाई पड़ जाए, अपना सवाल दागा- ‘‘आपने छड़ी तो बदल ली पर अपनी छवि कब बदलेंगे?’’

बस फिर क्या था, आदतन चौटाला गुस्सा गए और सवाल का तीखा प्रतिकार किया। बहरहाल संदर्भ सिर्फ इसलिए कि 1999 में बंसीलाल का तख्तापलट कर 2000 में सत्ता में आए चौटाला पर आरोप था कि सत्ता ने उन्हें निरंकुश बना दिया जो उनके व्यवहार में जाहिर होने लगा था। इसलिए अपने शासनकाल के अंत तक उनकी छवि आम आदमी की नजर में एक खास छवि बन गई थी। वो क्या थी? यह पत्रकार के सवाल से ही जाहिर है।

संयोग की बात है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की छवि उनकी सत्ता के पहले छह महीनों में ही ऐसी बन गई कि उसे संवारने के लिए प्रचार के बजट में 21 गुणा इजाफा करना पड़ गया। पिछले शासनकाल के 25 करोड़ से सीधे 526 करोड़। यह रकम ही साबित करती है इस छवि की स्थिति और उसे सुधारने के लिए भारी भरकम बजट। केजरीवाल के बहुचर्चित टीवी विज्ञापन का सार भी यही है कि अरविंद क्या करना चाहते हैं, क्या कर चुके हैं और क्या करेंगे? लेकिन फिर भी सब उनके पीछे पड़े हैं उनको चलने नहीं दे रहे। दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का यह दावा कि बजट के प्रावधान पारदर्शिता के चलते किए गए। पहले की सरकारें अलग-अलग तरह से प्रचार करती थीं लेकिम हम बता कर कर रहे हैं।

अरविंद केजरीवाल के संघर्ष और राजनीतिक संघर्ष के दौरान की निजी छवि पर गौर करें। सर्दी-जुकाम भी अब ठीक है। मफलर से वे किनारा कर चुके हैं। उनके चेहरे पर अब नूर है। उनकी आवाज में दबंगई है (उनकी ‘कमीनों’ वाली टेप अभी सबकी याद में ताजा है)। उनको किसी वरिष्ठ, पुराने, सुलझे हुए या संस्थापक सदस्य, यहां तक कि अपने आंतरिक लोकपाल की भी वैसी कोई जरूरत नहीं। देश के लिए लोकपाल मांगने वाले केजरीवाल ने सत्ता संभालते ही अपने लोकपाल की राय को दरकिनार कर दिया।

उनके अपने हाथों से चुने हुए मंत्री विवादों के घेरे में हैं। सोमनाथ भारती की पत्नी टीवी पर, महिला आयोग में अपनी प्रताड़ना की दुहाई दे रही हैं। जितेंद्र सिंह तोमर अपनी फर्जी डिग्रियों के चलते जेल की हवा खा रहे हैं। उनके खासमखास कुमार विश्वास पर भी एक महिला ने गंभीर आरोप जड़े। उनकी एक अन्य विधायक पर भी अपनी शिक्षा-दीक्षा को लेकर गलत जानकारी देने का इल्जाम है। ऐसी सूचनाएं हैं कि उनके डेढ़ दर्जन से ज्यादा विधायक किसी न किसी मामले में फंसे हैं। उनके वरिष्ठ साथी शांति भूषण, प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव उनसे दूर हो चुके हैं।

यह सब देखें तो ऐसा लगता ही है कि उनकी आम आदमी की छवि को गहरा धक्का व धब्बा लगा है। लेकिन मुद्दा यह है कि यह धब्बा क्या महज इश्तिहार धो पाएंगे। टीवी पर, सड़कों पर लगे होर्डिंग्स पर, सरकारी दफ्तरों के बाहर, अखबारी पन्नों पर या फिर मल्टीप्लेक्स में चंद कलाकार या कुछ किराए पर लिए लेखक जब उनकी ईमानदारी की दुहाई देंगे तो क्या जनता को सहज ही उन पर विश्वास हो जाएगा? क्या सरकार की ईमानदारी के लिए विज्ञापन का प्रमाणपत्र पर्याप्त है? अगर ऐसा है तो कांग्रेस के प्रचार अभियान में क्या कमी रही?

इसमें यह तर्क जरूर हो सकता है कि एक कामयाब विज्ञापन अभियान चला कर ही नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के पद पर काबिज हुए। चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी की विज्ञापनबाजी में पार्टी से ज्यादा व्यक्ति विशेष पर जोर था। व्यक्ति विशेष की खूबियों पर ही नहीं वरन उनके डिजाइनर परिधान पर भी। तो क्या यह रणनीति आम आदमी पार्टी ने मोदी की पुस्तक के पन्नों से चुराई है। अगर हां, तो शायद कुछ गलत भी नहीं। आखिर जो रणनीति राष्ट्रीयस्तर पर कामयाब हुई वह राज्यस्तर पर क्यों न हो? पर फिर मोदी के अभियान पर क्यों सवाल उठाए जाते थे?

अपनी रिकॉर्डतोड़ विजय की तरह ही आप ने अपने विज्ञापन बजट में भी रिकॉर्डतोड़ बढ़ोतरी की है। लिहाजा उस पर सवाल भी रिकार्डतोड़ है। यह फैसला तब आया है जबकि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी राजनैतिक दलों और राजनेताओं को प्रचारित करने पर सवाल उठाए हैं। आखिर यह सब जनता के पैसे पर ही तो किया जाता है। गाहे-बगाहे यह चर्चा होती है कि यह अनुचित है, पर उसके बावजूद यह जारी है। और दिल्ली सरकार ने तो हद ही कर दी।

इश्तिहारों के लिए दिल्ली सरकार का जो बजट महज 20 से 25 करोड़ का होता था वह एकदम से बढ़ कर 526 करोड़ हो गया। कांग्रेस नेता अजय माकन के तर्क में दम है कि इतने पैसों से 1100 बसें नई आ जातीं और एक सौ नए स्कूल खुल जाते। प्रशांत भूषण ने इसे सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना बताया है। और यह भी कहा है कि इसे चुनौती दी जाएगी क्योंकि यह अदालत की अवमानना है।

लेकिन इन सबके बीच बेफिक्र केजरीवाल दिन में 40 बार अपना गुणगान करते हैं, ‘‘जो कहा सो किया।’’ शायद ठीक से याद नहीं आ रहा है लेकिन ऐसा कुछ तो कहा नहीं था। यह ‘अपने मुंह मियां मिट्ठू’ नहीं तो क्या है? बहरहाल, इस मामले में पार्टी के अंदर भी लोग हैं जो सच को सच कहने का दम भरते हैं। आप विधायक पंकज पुष्कर की आवाज इसी का सबूत है।

बहुत अरसा पहले सरकारों ने यह व्यवस्था कर दी कि आप अपने प्रमाणपत्रों को स्वसत्यापित कर दें। यानी आप अपने प्रमाणपत्रों पर खुद ही हस्ताक्षर कर दें तो उन्हें सत्यापित मान लिया जाएगा। तो क्या यह मान लिया जाए कि अब सरकारें भी अपने प्रमाणपत्रों को खुद ही सत्यापित कर दें और उन्हें प्रामाणिक मान लिया जाए। लेकिन ऐसा लगता नहीं। यह महज

एक खुशफहमी है। आत्ममुग्धता है। टीवी पर, रेडियो पर, अखबारों में आपका बखान आपको आत्ममुग्ध तो कर सकता है लेकिन आपको असल में कितना लाभ दे पाएगा यह देखने की बात है।