आजादी से पहले तक राजाओं का अपना राजपाट था, जनता प्रजा और शासक राजा थे। तब कई रियासतें एक-दूसरे को साथ ही लेकर चलती थीं। इनके बीच मतभेद भी रहता था, लेकिन जब यही राजपरिवार आजादी के बाद देश की राजनीति में कूदे तो एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी बन गए। परिवारों में हिस्से हो गए। कोई कांग्रेस में चला गया तो कोई उसके विरोधी खेमे में।

जिन महलों से निकली एक आवाज पर जनता अपने राजा के साथ निकल पड़ती थी, आजादी के बाद उन्हीं महलों से विरोध की आवाजें भी आने लगी थी। अपनी-अपनी रियासत के समय जो राजा कभी एक साथ सुख-दुख बांटते थे, वो राजनीति के मैदान में एक दूसरे के शत्रु बने दिखाई देने लगे। आज हम आपको मध्यप्रदेश के राजपरिवारों की कहानी बता रहे हैं। जो आजादी से पहले तो साथ थे, लेकिन आजादी के बाद एक दूसरे के धुर विरोधी बन गए।

मध्यप्रदेश की राजनीति में मुख्य रूप से दो ही राज परिवारों का दबदबा रहा है। पहला सिंधिया राजपरिवार, दूसरा राघोगढ़ राजपरिवार। राघोगढ़ के मुखिया दिग्विजय सिंह कांग्रेस नेता हैं और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री भी। एक समय था जब राघोगढ़ रियासत, सिंधिया राज्य के अंतर्गत आती थी। सिंधिया परिवार के मुखिया महाराजा तो राघोगढ़ परिवार का मुखिया राजा कहलाते हैं। बताया जाता है कि एक युद्ध में सिंधिया के पूर्वजों ने राघोगढ़ को हरा दिया था और तब से यह रियासत ग्वालियर के अधीन आ गई थी। एक समय ऐसा भी था, जब दोनों परिवार मिलकर सत्ता चलाते थे। अंदर से दोनों के बीच अदावत तो थी, लेकिन शासन में दोनों साथ ही थे। आजादी के बाद जब ये परिवार राजनीति में उतरे तो दोनों परिवारों ने एक दूसरे के खिलाफ तलवारें खींच ली।

सिंधिया राजपरिवार- आजादी के कुछ सालों बाद से ही सिंधिया परिवार राजनीति में है। ये राजनीति में सबसे ज्यादा चर्चित रहा है और परिवार के अंदर विरोध भी रहा है। किताब ‘प्रिंसेस इन इंडियन पॉलिटिक्स’ में प्रोफेसर विलियम एल. रिचर लिखते हैं कि इस परिवार में राजनीति की शुरुआत राजमाता विजयाराजे सिंधिया से हुई थी। राजमाता पहले कांग्रेस से चुनाव जीतीं, फिर जनसंघ में चली गईं। जब वो जनसंघ में थीं, तो उनके बेटे माधवराव सिंधिया कांग्रेस में थे। माधवराव कांग्रेस से कई बार सांसद रहे। मां-बेटे एक दूसरे के खिलाफ तो चुनाव नहीं लड़े, लेकिन दोनों के बीच हमेशा वैचारिक मतभेद रहा।

राजमाता की बेटी वसुंधरा राजे ने बीजेपी से अपनी राजनीति कैरियर की शुरूआत की और राजस्थान की मुख्यमंत्री बनीं। जब माधवराव सिंधिया की एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई तो उनके बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पिता की विरासत को संभाला और कांग्रेस में शामिल हो गए। कांग्रेस से वो सांसद बने और फिर केंद्रीय मंत्री भी। आज ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी में हैं और केंद्र में मंत्री भी।

राघोगढ़– मध्यप्रदेश के राघोगढ़ रियासत के 12वें शासक, बलभद्र सिंह 1945 में गद्दी पर बैठे थे। आजादी से पहले राघोगढ़ रियासत ग्वालियर के अंतर्गत आती थी। सिंधिया परिवार के पूर्वजों से राघोगढ़ के राजा युद्ध हार गए थे। दोनों के बीच सालों पुरानी अदावत तो थी, लेकिन सत्ता दोनों मिलकर ही चलाते थे। आजादी के बाद बलभद्र सिंह 1951 के चुनाव में एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े और राघोगढ़ विधानसभा क्षेत्र से जीते थे। उनके दोनों बेटे, दिग्विजय सिंह और लक्ष्मण सिंह राजनीति में सक्रिय हैं। दिग्विजय सिंह ने अपनी राजनीति की शुरूआत निकाय चुनाव से की थी।

1970 में राजमाता विजया राजे सिंधिया ने दिग्विजय सिंह को जनसंघ ज्वाइन करने का सुझाव दिया था, लेकिन सिंह ने कांग्रेस से अपनी राजनीतिक पारी की शुरूआत की। कांग्रेस से वो विधायक बने, सांसद बने और फिर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी भी उन्हें मिली। उनके भाई लक्ष्मण सिंह राजनीति की शुरूआत तो कांग्रेस से की थी, लेकिन बीच में वो बीजेपी में भी चले गए। हालांकि अभी वो कांग्रेस में वापस आ गए हैं।

पूर्वी मध्य प्रदेश में रीवा शाही परिवार भी राज्य की राजनीति में सक्रिय रहा है। महाराजा मार्तंड सिंह 1971, 1980 और 1984 में रीवा से सांसद चुने गए थे। उन्होंने पहले दो चुनाव निर्दलीय और आखिरी चुनाव कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में जीता था। इसी तरह पन्ना और राजगढ़ के शाही परिवारों के सदस्य राजनीति में सक्रिय रहे हैं। लोकेंद्र सिंह 1984 में पन्ना निर्वाचन क्षेत्र से जीते थे, जबकि भानु प्रकाश सिंह 1962 में राजगढ़ निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए थे।

मध्यप्रदेश की राजनीति में ऐसे तो खिलचीपुर राजपरिवार, छतरपुर राजपरिवार और नरसिंहगढ़ राजपरिवार भी राजनीति में है। लेकिन जो मुकाम सिंधिया और राघोगढ़ राजपरिवार ने राजनीति में पाई है, वहां तक अभी कोई राजपरिवार नहीं पहुंच पाया है।