कोरोना वायरस की वजह से लॉकडाउन में मजदूर पति बेंगलुरु में फंस गया और महिला घर में बच्चों को खाना नहीं दे पा रही थी। तीन बच्चों को भूख से बिलखती देख महिला छह माह के दुधमुंहे बच्चे को कंधे पर लेकर पैदल ही शहर की ओर चल पड़ी ताकि अधिकारी उसे मदद कर सकें और वो अपने बच्चों को खाना दे सके। यह वाकया है पश्चिम बंगाल के मालदा जिले के गजोल प्रखंड के देओतला पंचायत के बनियापुकुर गांव का है। 26 वर्षीय आदिवासी महिला मारग्रेट हांसदा का पति चंदन टुडु बेंगलुरु की फैक्ट्री में काम करता है लेकिन लॉकडाउन की वजह से वह वहीं फंसा हुआ है।
मारग्रेट के पास न तो पैसे बचे थे और न ही घर में राशन। ऐसे में वह कुछ दिनों तक पड़ोस की चावल मिल के पीछे फेंके गए खुद्दी (चावल के टुकड़े) को चुनकर बच्चों का पेट भर रही थी लेकिन जब वह भी खत्म हो गया और बच्चे दो दिन से भूखे थे, तब महिला ने उम्मीद की आस लिए शहर की ओर जाना बेहतर समझा। घर पर साढ़े तीन साल की बेटी और आठ साल के बेटे को छोड़कर वह चिलचिलाती धूप में भूखे पेट, छह माह के बच्चे को अपने कंधे पर लेकर पैदल ही 13 किमी दूर प्रखंड मुख्यालय पहुंच गई।
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अंग्रेजी अखबार ‘द टेलिग्राफ’ से उसने बातचीत में कहा, “मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था। बच्चे दो दिन से भूखे थे। उन्हें खाना देना ही हमारा एकमात्र काम था। इसलिए शहर पैदल ही चल पड़ी क्योंकि उसके पास किराया देने के भी पैसे नहीं थे।” उसने बताया कि उसे शहर के बड़े-बड़े बाबू से उम्मीद थी और आखिरकार हुआ भी ऐसा ही। जैसे ही मारग्रेट गजोल पहुंची, उस पर पुलिसकर्मी की नजर पड़ गई। जब पुलिसकर्मी ने उससे पूछा तो मारग्रेट ने अपना दर्द बयां कर दिया।
मारग्रेट की पीड़ा समझ गजोल थाना-इन चार्ज हरधन देब ने उन्हें तुरंत सहायता पहुंचाई। महिला को चावल,दाल, खाद्य तेल और किराने के जरूरी सामान दिए गए। इतना सामान देख मारग्रेट खुशी से रो पड़ी, वह चिल्ला उठी “अच्छा हुआ कि मैं यहां तक पैदल चलकर आई। अब मैं दो हफ्ते तक बच्चों को खिला सकती हूं।” उसकी गोद में एक बच्चा था और वह इतना सामान ढोकर 13 किलोमीटर वापस नहीं जा सकती थी, इसलिए पुलिसवालों ने उसे गाड़ी से उसके घर तक पहुंचाया। जिले के एसपी ने कहा कि वो अन्य अधिकारियों से बात कर पीड़ित महिला को राशन दिलाने की कोशिश करेंगे। हालांकि महिला के पास राशन कार्ड नहीं है।
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