कभी कूड़े के ढेर, बदबू और जहरीले धुएं से सनी जमीन पर अब हरियाली लहराने लगी है। ग्रेटर नोएडा का वह इलाका, जिसे लोग नाक बंद कर पार किया करते थे, अब पेड़ों की छांव और पक्षियों की चहचहाहट से भर गया है। यह बदलाव अचानक नहीं हुआ—इसके पीछे सात महीनों की मेहनत, स्थानीय लोगों की चिंता, और एक संगठन की दूरदृष्टि है। यह कहानी सिर्फ एक जमीन के कायाकल्प की नहीं, बल्कि एक उम्मीद की है कि अगर इरादे नेक हों, तो बर्बादी को भी हरियाली में बदला जा सकता है।

पीपल, नीम, बरगद, अशोक और सागौन जैसे पेड़ अब उस जगह पर खड़े हैं, जो कभी बदबू और जहरीले धुएं से भरी रहती थी। इन पेड़ों की छांव में चलना गर्मी और उमस भरी दोपहर में जैसे सुकून देता है। दो माली पौधों की क्यारियों में चलते हुए उन्हें पानी देते हैं, जबकि कुछ दूरी पर एक पक्षी जोड़ा टहनियों को घोंसले में जोड़ने में व्यस्त है।

जहां जहरीली हवा चलती थी, वहां हरियाली का माहौल है

सिर्फ सात महीने पहले, ग्रेटर नोएडा के सेक्टर 16 रेलवे ब्रिज के पास की यह 10 एकड़ जमीन कचरे का अड्डा हुआ करती थी। यहां अवैध खनन के गड्ढे, जहरीला धुआं और बदबू न सिर्फ जमीन को बर्बाद कर रहे थे, बल्कि आस-पास के निवासियों के लिए गंभीर स्वास्थ्य संकट भी पैदा कर रहे थे। स्थानीय गैर-लाभकारी संस्था SAFE (Social Action for Forest and Environment) ने GNIDA (ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण) और NPCL (नोएडा पावर कंपनी लिमिटेड) के साथ मिलकर इस इलाके को एक हरित पारिस्थितिकी तंत्र में बदलने की मुहिम शुरू की।

स्थानीय लोगों की आवाज बनी पहल की नींव

SAFE के संस्थापक विक्रांत तोंगड़ बताते हैं, “यह इलाका अवैध मिट्टी खनन और गाजियाबाद से अनियमित रूप से बहाए जा रहे तरल कचरे से पूरी तरह तबाह हो गया था। सोसाइटियों से फेंके गए ठोस कचरे ने हालात और बिगाड़ दिए।” वे बताते हैं कि यहां लगातार लगने वाली आग ने आसपास के इलाकों में रहना मुश्किल कर दिया था।

तोंगड़ याद करते हैं, “रोजा-जलगांव के ग्रामीणों ने हमसे गुहार लगाई कि इस इलाके को बचाया जाए। यह एक हरी-भरी जमीन थी, जो डंपिंग ग्राउंड बनती जा रही थी। लोग इसे दूसरा गाजीपुर नहीं बनने देना चाहते थे।” उन्होंने कहा कि SAFE ने GNIDA से संपर्क किया और बहुत जल्द अधिकारी साइट का निरीक्षण करने पहुंचे। “NPCL ने इस काम के लिए आर्थिक सहायता दी,” उन्होंने बताया।

गांववालों ने नहीं बनने दिया दूसरा गाजीपुर

तोंगड़ कहते हैं, “सिर्फ सात महीनों में 1,600 किलो से ज्यादा प्लास्टिक कचरे को रिसाइकिल किया गया। साथ ही, 12 ट्रक कचरा GNIDA की लखनवानी केंद्र में भेजा गया।” वे बताते हैं कि ये लैंडफिल साइट उत्तर-मध्य रेलवे लाइन के किनारे एक किलोमीटर तक फैली हुई थी। “10 एकड़ में से हम चार एकड़ विकसित कर चुके हैं, बाकी हिस्से पर काम चल रहा है।”

GNIDA की अतिरिक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी प्रेरणा सिंह ने इस पहल को सार्वजनिक-निजी-भागीदारी मॉडल का “सर्वश्रेष्ठ उदाहरण” बताया। उन्होंने कहा, “यह सिविल सोसायटी की भूमिका को उजागर करने वाली एक प्रेरक मिसाल है। ग्रेटर नोएडा में लंबे समय तक कोई स्थायी डंपिंग साइट नहीं थी, लेकिन अब हमने असमोली में एक जगह चिन्हित की है। साथ ही, हम बेहतर कचरा प्रबंधन की दिशा में लगातार प्रयास कर रहे हैं।”

61 वर्षीय माली सतवीर सिंह के लिए ये पेड़ अब किसी संतान से कम नहीं। वे बताते हैं, “चिलचिलाती गर्मी में मैंने अपने हाथों से इन पेड़ों की मिट्टी जोती, पानी दिया। ये मेरे बच्चे हैं।” जहां पहले ज़मीन पर कचरे का अम्बार था, वहीं अब उन्हें रोज़ पौधों के बीच वक्त बिताना सुकून देता है।

42 वर्षीय विधवा जीत कौर, जो पास की पंचशील ग्रीन-2 सोसायटी में हेल्पर हैं, कहती हैं, “पहले जब कोई पूछता था कि कहां रहती हूं, तो मैं झूठ बोलती थी। अगर उन्हें पता चल जाता कि मैं डंपिंग साइट के पास रहती हूं, तो कोई मुझे काम ही नहीं देता।” अब वे मुस्कुराते हुए कहती हैं, “अब तो सब साफ-सुथरा है, और मैं गर्व से अपना पता बताती हूं।” पास ही छोटा भोजनालय चलाने वाले 40 वर्षीय सिकंदर यादव भी इस बदलाव से खुश हैं। वे उम्मीद के साथ कहते हैं, “अब यहां लोग आने लगे हैं। जब ये पेड़ और बड़े होंगे, तो मुझे लगता है मेरा धंधा भी बढ़ेगा।”