एक दौर था जब दिल्ली का कनाट प्लेस स्थित सुपर बाजार शहर के वैभव और आम आदमी की जरूरतों का पर्याय हुआ करता था। 1966 में सरकार द्वारा मूल्य नियंत्रण के उपाय के रूप में शुरू किया गया यह विशाल सुपरस्टोर आज खंडहर में तब्दील हो चुका है और अपने पुनरुद्धार के लिए कानूनी दांव-पेंच में फंसा है। फिलहाल, यह इमारत पूरी तरह से जर्जर हो चुकी है, मकड़ी के जालों से ढकी है और इसकी पुरानी भव्यता का कोई निशान बाकी नहीं है।
कभी दिल्ली की जीवनरेखा माना जाने वाला यह सुपर बाजार, जिसमें करीब 150 दुकानें और 2200 से अधिक कर्मचारी थे, आज सिर्फ एक बस स्टाप से ही पहचाना जाता है। कनाट प्लेस के केंद्र में स्थित यह छह मंजिला इमारत, जिसे कभी भारत का पहला ‘सुपरस्टोर’ या ‘सहकारी सुपरमार्केट’ माना जाता है। यह एक सरकारी पहल थी, जो 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद कीमतों को नियंत्रित करने और आम जनता को उचित दरों पर सामान उपलब्ध कराने के लिए शुरू की गई थी। यहां माचिस की डिब्बी से लेकर पामोलिव तेल, चीनी, प्याज, घड़ियां, स्टेशनरी और ट्रांजिस्टर जैसे कई उत्पाद उचित मूल्य पर उपलब्ध थे।
एशियाई खेल और प्याज संकट में बना सहारा
कनाट प्लेस के बंगाली मार्केट के एक स्थानीय व्यवसायी प्रमोद गुप्ता बताते हैं कि 1982 में जब नई दिल्ली में एशियाई खेल आयोजित हुए थे, तो यहीं से अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी अपनी जरूरतों का सारा सामान खरीदा करते थे। 90 के दशक में जब प्याज के दाम आसमान छू रहे थे, तब सुपर बाजार ने राशन कार्ड पर दो किलो प्याज मुहैया कराकर दिल्लीवासियों को बड़ी राहत दी थी। जिसके लिए लंबी कतारें लगती थीं। सरकारी कार्यालयों के लिए स्टेशनरी और बच्चों के लिए एनसीईआरटी की किताबें भी यहां सस्ते दामों पर मिलती थीं।
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पतन की कहानी : कुप्रबंधन और प्रतिस्पर्धा
उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय की अप्रैल 2018 की रपट के अनुसार, सुपर बाजार को वर्ष 1996 में भारी नुकसान उठाना पड़ा। इसका मुख्य कारण अधिक कर्मचारियों की नियुक्ति, प्रबंधन की विफलता, कार्यशील पूंजी की अपर्याप्तता और प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोण की कमी था। इन समस्याओं के चलते 2002 में इस ऐतिहासिक सुपर बाजार को बंद कर दिया गया।