पिछले शुक्रवार को बिहार के पूर्वी चंपारण ज़िले के मोतिहारी में एक चुनावी रैली में जन सुराज के प्रमुख प्रशांत किशोर ने लोगों से ‘अच्छे उम्मीदवारों’ को वोट देने की अपील की। ​ उन्होंने सुझाव देते हुए कहा कि विकल्पहीनता के कारण लोग पहले गलत चुनाव करते थे। इस बार उनके पास यह बहाना नहीं है।

प्रशांत ने कहा, “पिछले तीन दशकों में पहली बार हर निर्वाचन क्षेत्र में एक अच्छा विकल्प है लेकिन जब डॉक्टर साहब (जन सुराज के मोतिहारी उम्मीदवार डॉ. अतुल कुमार) सड़कों पर घूम रहे हैं, वोट मांग रहे हैं तो लोग पूछ रहे हैं कि हम आपको वोट क्यों दें? उनका कहना है हमें एक मज़बूत आदमी चाहिए? क्या वह जीत पाएगा? अगर मेरा वोट बर्बाद हो गया तो क्या होगा?” पीके ने कहा कि पिछले 30 सालों से आपका वोट बर्बाद हो रहा है, अच्छे लोगों को वोट दें।

जन सुराज को वोट देने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं बिहार के लोग?

आत्मविश्वास से लबरेज प्रशांत किशोर के भाषण में साफ़ दिखाई देने वाली घबराहट इस चुनौती को रेखांकित करती है कि उनकी नवगठित पार्टी एक ऐसे राज्य में किस तरह की चुनौतियों का सामना कर रही है जहां नजदीकी और परिचय को उतना ही महत्व दिया जाता है जितना कि व्यापक राजनीतिक आख्यानों और चुनावी वादों को।

2 अक्टूबर, 2022 को पीके ने चंपारण के गांधी आश्रम से अपनी 3500 किलोमीटर की राज्यव्यापी पदयात्रा शुरू की और 665 दिनों में 2,600 से ज़्यादा गांवों से गुज़रे। फिर भी लोग, जन सुराज की राजनीतिक भाषा और चुनावी वादों से प्रभावित होने के बावजूद पार्टी को अपना वोट देने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं। कम से कम अभी तो नहीं।

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जन सुराज को लेकर क्या कहते हैं बिहार के लोग?

मोतिहारी शहर से लगभग 30 किलोमीटर दूर चिरैया बाज़ार में, तीस साल के आसपास के मैकेनिक महेश यादव और राशन डीलर रामलाल गुप्ता स्थानीय राजनीति पर चर्चा कर रहे हैं। दोनों अलग-अलग खेमे से हैं, यादव राजद समर्थक हैं जबकि गुप्ता भाजपा को वोट देते हैं। फिर भी, दोनों जन सुराज की तारीफ़ में एकमत हैं। महेश यादव ने इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत के दौरान कहा, “ज़्यादातर सीटों पर पार्टी ने पढ़े-लिखे उम्मीदवार उतारे हैं। वह बच्चों की शिक्षा से लेकर पलायन तक, हर सही मुद्दे पर बात कर रही है।” रामलाल गुप्ता ने कहा, “किस पार्टी में इतनी हिम्मत है कि वह कहे कि अगर आपको लगता है कि मेरा उम्मीदवार अच्छा नहीं है तो उसे वोट मत देना?” लेकिन, दोनों में से कोई भी जन सुराज को को वोट देने को तैयार नहीं है।

महेश ने कहा, “देखिए इन इलाकों में उम्मीदवार की नज़दीकी मायने रखती है। यह मायने रखता है कि उम्मीदवार स्थानीय पुलिस थाने या ब्लॉक कार्यालय में फ़ोन करके काम करवा सकता है या नहीं।” वहीं, रामलाल ने कहा, “यह चुनाव जन सुराज के प्रचार के लिए है।” महेश यादव ने कहा,”लेकिन अगले चुनाव तक प्रशांत किशोर मुख्यमंत्री पद के दावेदार होंगे।”

बिहार चुनाव में क्या है पार्टियों का चुनावी एजेंडा?

हालाँकि, पार्टी के कुछ प्रशंसक हैं जो उसे वोट भी देंगे। चिरैया के पास राघोपुर गांव में 35 वर्षीय मिक्कू यादव, हैदराबाद से अभी-अभी लौटे हैं, जहाँ वे पेंटर का काम करते हैं। उनका कहना है, “पार्टी कुछ ज़रूरी बात कह रही है। हमें इसे सुनना चाहिए। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार को मौका मिला है तो जन सुराज को क्यों न आज़माया जाए? मुझे परवाह नहीं कि यह जीतता है या नहीं।”

30 वर्षीय टैक्सी चालक टुन्ना दुबे जो मोतिहारी पहुँचने पर जन सुराज पदयात्रा में शामिल हुए इस बात से सहमत हैं। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस से कहा, “पुरानी पीढ़ी पारंपरिक पार्टियों के साथ है लेकिन युवा पीढ़ी जन सुराज में संभावनाएं देखती है। यह युवाओं की सबसे बड़ी समस्या, पलायन के बारे में बात कर रही है। यह कह रही है कि इससे यहां रोज़गार के अवसर पैदा होंगे।” क्या हर पार्टी पलायन और रोज़गार पर चर्चा नहीं कर रही है? इस पर टुन्ना ने कहा, “लेकिन जब वे सत्ता में थे तब उन्होंने कुछ नहीं किया। किशोर द्वारा यह मुद्दा उठाए जाने के बाद ही उन्होंने इस पर बात करना शुरू किया। उन्होंने इसे सभी पार्टियों के लिए चुनावी एजेंडा बना दिया है।”

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जन सुराज बिहार चुनाव पर कैसे असर डाल सकती है?

जातिगत सीमाओं से ऊपर उठकर पार्टी की यह अपील इसे चुनावी समीकरणों में संभावित रूप से खलल डालने वाला बनाती है, भले ही यह मुट्ठी भर सीटें ही क्यों न जीत पाए। किशोर की पार्टी को वोट न देने वालों सहित अधिकांश मतदाता और बीजेपी और आरजेडी जैसी पार्टियों के कार्यकर्ता मानते हैं कि जन सुराज सभी निर्वाचन क्षेत्रों में 5000 से 10,000 वोट हासिल करेगी मगर इससे ज़्यादा नहीं। 2020 में, 52 सीटों पर जीत का अंतर 5000 से कम था।

उम्मीदवारों की शैक्षिक योग्यता और साफ़-सुथरे ट्रैक रिकॉर्ड पर ज़ोर देने के दावों के बावजूद, किशोर जन सुराज के उम्मीदवारों की जीत की संभावना और निर्वाचन क्षेत्रों के जातिगत गणित को लेकर भी उतने ही चिंतित नज़र आए। इसमें स्थापित चुनावी गणित को बिगाड़ने की अपनी क्षमता है।