अमित शाह के दोबारा अध्यक्ष बनने के बाद दिल्ली में 19 और 20 मार्च होने वाली राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक में सरकार और संगठन में बेहतर तालमेल करने के प्रयास से अधिक इस साल और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी पर चर्चा ज्यादा होने वाली है। पिछले दिनों दोबारा अध्यक्ष बनने के बाद अमित शाह ने सफाई दी थी कि पदाधिकारियों में ज्यादा बदलाव नहीं होंगे लेकिन 11 महासचिवों में से दो (जगत प्रकाश नड्डा और धर्मेंद्र प्रधान) के केंद्र सरकार में मंत्री होने से कई बदलाव तो होने ही वाले हैं। उससे पहले भाजपा टीम में काफी समय से दलित महासचिव की भी जगह खाली है। नई दिल्ली नगर पालिका परिषद(एनडीएमसी) कन्वेंशनल सेंटर में होने वाली इस कार्यकारणी की बैठक को इसलिए महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है कि 2016 में जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं, उनमें किसी में भी सत्ता की दावेदारी लायक अभी तक गठबंधन नहीं हो पाया है। गठबंधन का फैसला तो अंतिम तौर पर अध्यक्ष अमित शाह की सलाह पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लेंगे और इस पर कोई फैसला सार्वजनिक नहीं लिया जाएगा लेकिन उन राज्यों और वरिष्ठ नेताओं की राय को तो महत्त्व देना ही होगा।

दिल्ली के बाद बिहार विधानसभा चुनाव में हुई हार ने अमित शाह को बैकफुट पर ला दिया है। दिल्ली में तो दबाव में आखिरी समय में स्थानीय नेताओं की राय के बिना किरण बेदी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाया गया लेकिन बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने पार्टी मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं तय कर पाई। चुनाव में पराजय के कई कारण थे लेकिन एक कारण मुख्यमंत्री का उम्मीदवार न घोषित करना था। इसीलिए असम विधानसभा चुनाव की घोषणा से काफी पहले ही केंद्रीय मंत्री रहे सर्वानंद सोनवाल को भाजपा ने मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दिया। भाजपा नेतृत्व को पता है कि पार्टी अपने बूते चुनाव नहीं जीत सकती है। इसलिए वह असम गण परिषद से चुनावी गठबंधन करने में लगी है। पार्टी के सचिव श्रीकांत शर्मा का कहना था कि अभी तक गठबंधन होने न होने पर अंतिम फैसला नहीं हुआ है।

जिन राज्यों में 2016 में चुनाव होने हैं, उसमें असम में ही भाजपा को सबसे बड़ी जीत का भरोसा है। तमिलनाडू में तो उसे तभी बड़ी सफलता मिलेगी जब उसका एआइडीएमके के साथ तालमेल हो जाए। डीएमके का तो कांग्रेस के साथ गठबंधन होना लगभग तय माना जा रहा है। केरल में तो भाजपा अपनी मजबूत उपस्थिति के लिए चुनाव लड़ेगी। सालों से केरल विधानसभा का चुनाव कांग्रेस की अगुवाई वाली मोर्चा और वामदलों के मोर्चा के साथ होती आई है। इतना ही नहीं वहां तो एक परंपरा सी बन गई है कि दोनों मोर्चा बदल-बदल कर शासन करते रहे हैं। उस हिसाब से इस बार वाम मोर्चा ज्यादा प्रभावी माना जा रहा है। वैसे आरएसएस के सहयोग से पिछले काफी समय से भाजपा ने अपना विस्तार किया है। भाजपा उससे बेहतर स्थिति पश्चिम बंगाल में मान रही है लेकिन वहां कि वाम मोर्चा और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस से अलग ही भाजपा को चुनाव लड़ना होगा। भाजपा का प. बंगाल के पहाड़ी इलाकों में ताकतवर गोरखा मुक्ति मोर्च से पहले से ही गठबंधन है।

भाजपा के लिए 2016 से अधिक 2017 के विधानसभा चुनाव चुनौती वाले हैं। उनमें पंजाब में वह अकाली दल के साथ सत्ता में है अन्यथा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में सत्ता से बाहर है। इन सभी राज्यों में भाजपा सत्ता की मुख्य दावेदार है। भाजपा नेतृत्व दिल्ली और बिहार विधानसभा हार के बाद कोई जोखिम लेना नहीं चाहता है। इसलिए पूंक-फूंक कर कदम रख रहा है। कार्यकारणी की बैठक में चुनावी चर्चा के साथ-साथ सरकार और संगठन में बेहतर तालमेल पर भी चर्चा होने वाली है। इस बैठक के तुरंत पहले भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने किसानों और गांवों को प्राथमिकता देने का दावा करते हुए आम बजट और किराया न बढ़ाने के साथ रेल बजट पेश किया था। उसे इन विधानसभा चुनावों का प्रमुख मुद्दा भी भाजपा बनाने का प्रयास करेगी। पार्टी की गुटबंदी और आरएसएस-भाजपा संबंधों में खटास आने की खबरों को नजअंदाज करके एक साथ चुनाव मैदान में जाने के संकेत भी दो दिनों की कार्यकारणी की बैठक में दिख जाएंगे।