भारत की राजनीति में कुछ नाम ऐसे हैं, जिन्होंने पद की लंबाई नहीं, अपने विचारों की गहराई से इतिहास रचा। बिहार के सातवें मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल (बी.पी. मंडल) उन्हीं में से एक हैं। सिर्फ एक महीने के कार्यकाल के बावजूद उन्होंने भारतीय समाज की दिशा बदल दी। उनके नेतृत्व में जन्मा “मंडल आयोग” आज भी सामाजिक न्याय की सबसे ठोस नींव माना जाता है। जातीय समानता, अवसरों में हिस्सेदारी और हाशिए पर खड़े वर्गों को पहचान देने का जो सिलसिला मंडल ने शुरू किया, उसने आने वाले दशकों में राजनीति, समाज और सत्ता—तीनों की सोच बदल दी।
भारत की राजनीति में कुछ नाम ऐसे हैं, जिनका प्रभाव उनके कार्यकाल से कहीं ज्यादा व्यापक और स्थायी होता है। बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल यानी बीपी मंडल उन्हीं में से एक थे — एक ऐसे नेता जिन्होंने सामाजिक न्याय की वह नींव रखी, जिस पर आज भी भारतीय राजनीति खड़ी है। बिहार के सातवें मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल भले ही सिर्फ 30 दिनों का रहा, लेकिन “मंडल आयोग” की सिफारिशों ने भारतीय समाज की संरचना और सोच दोनों को हमेशा के लिए बदल दिया।
बीपी मंडल का जन्म 25 अगस्त 1918 को वाराणसी में हुआ था, हालांकि उनकी जड़ें बिहार के मधेपुरा जिले के मुरहो गांव से जुड़ी थीं। उनके पिता रासबिहारी मंडल एक जाने-माने स्वतंत्रता सेनानी, समाजसेवी और बिहार कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में थे। दुर्भाग्य से उनके जन्म के अगले ही दिन पिता का निधन हो गया। मां सीतावती मंडल ने उन्हें बेहद सादगी और अनुशासन के साथ पाला। जमींदार परिवार से आने के बावजूद बीपी मंडल के भीतर सामाजिक विषमता के प्रति गहरा असंतोष था। बचपन से ही उन्हें यह अहसास था कि जाति और स्थिति के कारण लोग बराबरी से वंचित हैं। यही सोच आगे चलकर उनके राजनीतिक जीवन का मूल दर्शन बनी।
मंडल ने अपनी शुरुआती पढ़ाई मधेपुरा के मुरहो गांव में की, फिर दरभंगा के राज हाई स्कूल में दाखिला लिया। वहीं उन्होंने जातिगत भेदभाव का खुलकर विरोध किया। स्कूल हॉस्टल में अगड़ी जातियों को दी जा रही प्राथमिकता के खिलाफ उन्होंने आंदोलन किया, जिससे सभी छात्रों के लिए समान व्यवस्था लागू हुई।
यही वह दौर था जब सामाजिक बराबरी का बीज उनके भीतर गहराई से अंकुरित हुआ। आगे चलकर उन्होंने पटना कॉलेज से अंग्रेजी ऑनर्स में स्नातक की पढ़ाई पूरी की। उसके बाद वे दंडाधिकारी (मजिस्ट्रेट) बने और 1945 से 1951 तक प्रशासनिक सेवा में कार्यरत रहे। लेकिन भीतर से वे हमेशा आमजन की आवाज बनने की चाह रखते थे। आखिरकार उन्होंने नौकरी छोड़ दी और राजनीति की राह चुनी।
1952 में बीपी मंडल कांग्रेस के टिकट पर मधेपुरा से विधायक बने। उस दौर में कांग्रेस की पकड़ मजबूत थी, लेकिन वे आम जनता से सीधे संवाद करने के लिए जाने जाते थे। 1957 में वे भूपेंद्र नारायण मंडल से चुनाव हार गए, मगर 1962 में उन्होंने वापसी की और के.बी. सहाय सरकार में मंत्री बने। कांग्रेस के भीतर व्याप्त सामंती मानसिकता और ऊंच-नीच के विरोध में उन्होंने 1965 में पार्टी छोड़ दी और डॉ. राममनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) से जुड़ गए। सामाजिक न्याय की लड़ाई में वे लोहिया के सबसे सक्रिय सिपाहियों में गिने जाने लगे।
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1967 में वे मधेपुरा से सांसद बने और 1968 में बिहार के सातवें मुख्यमंत्री बने। उनका कार्यकाल केवल 1 फरवरी से 1 मार्च तक यानी 30 दिनों का था, लेकिन उनके निर्णयों ने सबका ध्यान खींचा। उनके मंत्रिमंडल में 85 प्रतिशत मंत्री पिछड़ी जातियों से थे — यह उस दौर में सामाजिक बदलाव का बड़ा प्रतीक था। मंडल ने सत्ता में रहते हुए पिछड़े वर्गों को आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत बनाने की दिशा में कई नीतिगत संकेत दिए। लेकिन राजनीतिक अस्थिरता और आंतरिक विरोध के कारण उनकी सरकार गिर गई।
1977 में जनता पार्टी के शासनकाल में बीपी मंडल को “द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग” का अध्यक्ष बनाया गया। आयोग का उद्देश्य था – उन जातियों की पहचान करना जो सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी हैं और उनके लिए अवसरों में बराबरी सुनिश्चित करना। मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना और अन्य सामाजिक संकेतकों के आधार पर 52% भारतीय आबादी को अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के रूप में चिन्हित किया। आयोग ने सुझाव दिया कि सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी को 27% आरक्षण दिया जाए। यह रिपोर्ट 1980 में तैयार हुई। बीपी मंडल उस समय तक कमजोर हो चुके थे, लेकिन उन्हें इस बात का संतोष था कि उन्होंने सामाजिक समानता की दिशा में एक मजबूत आधार रख दिया है।
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बीपी मंडल का निधन 13 अप्रैल 1982 को हुआ। वे यह देखने के लिए जीवित नहीं रहे कि उनकी सिफारिशें किस तरह देश को बदल देंगी। 1990 में प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया। देशभर में विरोध प्रदर्शन हुए, लेकिन धीरे-धीरे समाज ने इस फैसले को स्वीकार किया। आज भारत में मंडल आयोग के कारण लाखों ओबीसी परिवारों को शिक्षा और रोजगार में अवसर मिले हैं। यही कारण है कि बीपी मंडल को सामाजिक न्याय का जनक कहा जाता है।
बीपी मंडल का विवाह सीता मंडल से हुआ था। उनके पांच बेटे और दो बेटियां थीं। परिवार के कई सदस्य आज भी राजनीति और सामाजिक कार्यों से जुड़े हैं। भारत सरकार ने 2001 में उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया और 2007 में मधेपुरा में “बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल इंजीनियरिंग कॉलेज” की स्थापना की गई।
आज जब राजनीति में “सामाजिक न्याय” और “समावेशिता” जैसे शब्द बार-बार गूंजते हैं, तो उनकी जड़ें मंडल आयोग की रिपोर्ट में ही मिलती हैं। बीपी मंडल ने दिखाया कि नेतृत्व का मतलब केवल सत्ता नहीं, बल्कि समाज के हर वर्ग को बराबरी का हक दिलाना है। वे भले ही अब नहीं हैं, लेकिन उनके विचार और काम आज भी हर उस युवा को प्रेरित करते हैं जो बराबरी और न्याय में विश्वास रखता है।