स्पेशल मैरिज एक्ट पर एक बड़े फैसले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बुधवार को 30 दिन के पूर्व नोटिस की बाध्यता खत्म करते हुए कहा कि यह युगल की पसंद के अधीन होगी।

कोर्ट ने एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर यह फैसला दिया, जिसमें आरोप लगाया गया था कि एक वयस्क लड़की को अपने प्रेमी से शादी करने की उसकी इच्छा के खिलाफ हिरासत में ले लिया गया है, जो एक अलग धर्म से संबंध रखती है। दंपति ने अदालत से कहा था कि अनिवार्य 30-दिन का नोटिस “गोपनीयता पर हमला है और उनकी शादी के संबंध में उनकी मुक्त पसंद में हस्तक्षेप करना” है।

अपने अवलोकन में न्यायमूर्ति विवेक चौधरी ने कहा कि इस तरह के प्रकाशन को अनिवार्य बनाना स्वतंत्रता और गोपनीयता के मौलिक अधिकारों पर हमला करना है, जिसमें राज्य और गैर-राज्य के लोगों के हस्तक्षेप के बिना शादी का चयन करने की स्वतंत्रता शामिल है।

इसके अलावा अदालत ने अपने आदेश में कहा कि शादी करने का इरादा करने वाले पक्ष 30-दिन के नोटिस को प्रकाशित करने या प्रकाशित नहीं करने के लिए शादी के अधिकारी को एक लिखित अनुरोध भेज सकते हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि यदि कोई दंपती प्रकाशित होने की सूचना नहीं देना चाहता है तो विवाह अधिकारी इस तरह का कोई नोटिस प्रकाशित नहीं करेगा और न ही कोई आपत्ति दर्ज कराएगा।

कोर्ट ने कहा, “1954 के अधिनियम की धारा 5 के तहत नोटिस देते समय यह विवाह के पक्षकारों के लिए वैकल्पिक होगा कि वे विवाह अधिकारी को धारा 6 के तहत नोटिस प्रकाशित करने के लिए लिखित में अनुरोध करें या न करें। और 1954 के अधिनियम के तहत निर्धारित आपत्तियों की प्रक्रिया का पालन करें। यदि वे अधिनियम की धारा 5 के तहत नोटिस देते समय लिखित रूप में नोटिस के प्रकाशन के लिए ऐसा अनुरोध नहीं करते हैं, तो विवाह अधिकारी इस तरह का कोई नोटिस प्रकाशित नहीं करेगा।”