लोकसभा चुनाव में सिर्फ एक साल का समय बचा है। ऐसे में सभी राजनीतक दलों ने तैयारियां शुरू कर दी हैं। समाजवादी पार्टी सुप्रीमो अखिलेश यादव ने भी चुनाव में उतरने का ऐलान कर दिया है। हालांकि, इस बार उन्होंने आजमगढ़ की जगह कन्नौज सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने का मन बनाया है। 20 साल पहले इसी सीट पर वह पहली बार चुनावी मैदान में उतरे थे। कन्नौज सपा का गढ रहा है, लेकिन 2019 में वह भाजपा से इसे हार गई थी। ऐसे में अखिलेश एक बार फिर कन्नौज के दुर्ग को जीतने की योजना बना रहे हैं। इसके अलावा, यह पहला लोकसभा चुनाव होगा, जिसमें उनके पिता मुलायम सिंह यादव साथ नहीं होंगे।
1999 से 2018 तक कन्नौज सीट पर यादव परिवार का दबदबा रहा है, लेकिन पिछले चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने इस पर कब्जा कर लिया। 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा ने अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव को दूसरी बार इस सीट पर मैदान में उतारा था, लेकिन वह अपना 24 साल पुराना किला हार गई। भाजपा के सुभ्रत पाठक ने डिंपल को शिकस्त दी थी। कन्नौज जिले के सपा प्रमुख कलीम खान ने द इंडियन एक्सप्रेस क बताया कि पार्टी ने यहां अगले लोकसभा चुनाव को लेकर तैयारियां शुरू कर दी हैं। कलीम ने बताया कि 1 जून से बूथ कमेटियां बनाई जाएंगी और जिला कमेटियां बनाने की भी तैयारी है।
कन्नौज सीट पर सपा का इतिहास
1999 में सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने कन्नौज सीट जीती थी, लेकिन बाद में उन्होंने संभल को बनाए रखने के लिए यह सीट खाली कर दी और 2000 में अखिलेश ने यहां पर उपचुनाव लड़ा और जीत हासिल की। यह उनका पहला लोकसभा चुनाव था। इसके बाद लगातार दो बार 2004 और 2009 के चुनाव में भी उन्होंने यहां से जीत हासिल की। 2014 में पार्टी ने डिंपल यादव को कन्नौज से लड़वाया और वह भारी वोटों के साथ जीत गईं। 2019 में उन्हें फिर से उतारा गया, लेकिन वह भाजपा उम्मीदवार सुभ्रत पाठक से हार गईं। डिंपल फिलहाल मैनपुरी सीट से लोकसभा सांसद हैं। मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद ये सीट खाली हो गई थी, जिसके बाद पिछले साल उपचुनाव हुआ और डिंपल को जीत मिली।
सपा के प्रवक्ता और महासचिव राजेंद्र चौधरी ने कहा कि कन्नौज और फरुखाबाद साजवादियों की धरती रही है। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने यहां से लोकसभा चुनाव लड़ा था और अखिलेश भी लोहिया जी के राह पर चल रहे हैं। अगर पार्टी फैसला करती है तो वह यहां से चुनाव लड़ेंगे।
मुस्लिम, दलित और यादवों का दबदबा
कन्नौज में मुस्लिम, दलित और यादवों का दबदबा है। यहां तीन लाख मुसलमान रहते हैं और दलितों एवं यादवों की आबादी क्रमश: 2.8 फीसदी और 2.5 है। 2019 के चुनाव में भाजपा को यहां दलितों और यादवों को वोट ज्यादा मिला था। अगर हाल ही में हुए यूपी निकाय चुनावों पर नजर डालें तो सपा यहां सिर्फ एक जिला पंचायत तालाग्राम जीती थी। ऐसे में अखिलेश के लिए राह इतनी भी आसान नहीं होगी। हालांकि, स्थानीय नेताओं का ऐसा मानना है कि अगर अखिलेश यहां वापसी करते हैं तो इससे आस-पास के क्षेत्रों में भी पार्टी को मजबूती मिलेगी। इस बीच अखिलेश यहां के कई दौरे कर चुके हैं और स्थानीय मुद्दों को उठा रहे हैं।
लोकसभा चुनाव में फिर से उतरने के अखिलेश के फैसले के साथ ही यह भी सवाल उठने लगे हैं कि वह राष्ट्रीय राजनीति में उतरेंगे या फिर यूपी विधानसभा में विपक्ष के नेता के तौर पर योगी सरकार को घेरते रहेंगे। हालांकि, जब उनसे नवंबर में 2024 चुनाव लड़ने को लेकर सवाल किया गया था, तो उन्होंने कहा था, “क्या करेंगे खाली बैठकर घर पर? हमारा तो काम ही है चुनाव लड़ना। चुनाव लड़ेंगे यहां पे। जहां पहला चुनाव लड़े थे, वहां फिर लड़ेंगे।”