कैलाश विजयवर्गीय भाजपा का चाणक्य समझ बैठे थे खुद को। अमित शाह और नरेंद्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के मिशन को रफ्तार देने के लिए उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार का ऑपरेशन बड़े जोश-खरोश से करने चले थे। पर मुंह की खानी पड़ी। सारे देश में भाजपा और मोदी सरकार दोनों की साख पर अलग बट्टा लगवा दिया।

खुदा ही मिला न विसाले सनम। सतपाल महाराज ने सोलह कांग्रेसी विधायकों को तोड़ने का सब्जबाग दिखाया था। पर यह संख्या नौ से आगे बढ़ ही नहीं पाई। हरीश रावत के दो बार स्टिंग आॅपरेशन भी करा डाले। सीबीआइ का चाबुक अलग चलवाया। लेकिन न्यायपालिका ने संविधान के रक्षक की भूमिका फिर अदा कर दी। विश्वास मत में रावत भारी पड़े। विजयवर्गीय और श्याम जाजू की जोड़ी बड़ी मशक्कत के बाद कांग्रेस की एक और विधायक रेखा आर्य को ही तोड़ पाए। लेकिन बदले में भाजपा का भी एक विधायक पाला बदल कर कांग्रेस के खेमे में चला गया।

नौ बागी विधायकों की विधानसभा अध्यक्ष ने सदस्यता पहले ही खत्म कर दी थी। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से भी मतदान का अधिकार नहीं ले पाए ये बागी। पार्टी के सह संगठन मंत्री शिव प्रकाश का जौहर भी काम नहीं आ पाया। भुवनचंद खंड़ूड़ी और रमेश पोखरियाल निशंक ने खरीद-फरोख्त और तख्ता पलट के इस खेल से खुद को अलग रखा। अलबत्ता भगत सिंह कोश्यारी और अजय भट्ट आलाकमान की तिकड़ी की कठपुतली बन गए। रावत ने एक तरफ तो अपना सियासी कद बढ़ा लिया, दूसरी तरफ अपनी पार्टी के हौसले भी बुलंद कर दिए। जो अरुणाचल की अपनी सरकार को तमाम मशक्कतों के बावजूद बचा नहीं पाई थी। उत्तराखंड के भाजपाई अब विजयवर्गीय को कोस रहे हैं।

सरकार का एक साल से भी कम कार्यकाल बचा है। चुनाव में भाजपा की जीत की संभावनाएं प्रबल दिख रही थीं। फिर क्यों की विजयवर्गीय ने असंवैधानिक कवायद। भाजपा जब विपक्ष में थी, तो अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को लेकर कितनी लानत-मलानत करती थी कांग्रेस की। पर खुद सत्ता में आई तो उसी 356 से ऐसा मोह उमड़ा कि अपनी साख तक को दांव पर लगा दिया। ऊपर से यह संदेश अलग गया कि राजनीति में कोई साखदार नहीं। चोर-चोर मौसेरे भाई जैसी है आज देश की सियासी तस्वीर।

सटोरियों की फितरत
नतीजों की तारीख नजदीक आने पर दिल की धड़कनें बढ़ना स्वाभाविक ठहरा। पश्चिम बंगाल में भी उम्मीदवारों की बेचैनी बढ़ने का यही कारण है। ऊपर से सटोरियों ने जीना मुहाल कर दिया है। कई उम्मीदवारों की तो नींद ही उड़ा दी है। पिछले लोकसभा चुनाव को छोड़ दें, तो कोलकाता के सट्टा बाजार का आकलन ज्यादातर चुनावों में ठीक ही साबित होता रहा है। इस बाजार के आकलन को पैमाना मानें तो ममता सरकार के कई मंत्री चुनाव हार सकते हैं। इनमें मदन मित्र और गौतम देव जैसे धुरंधर भी शामिल हैं। सट्टेबाजों के हिसाब से तो तृणमूल कांग्रेस के गढ़ भी चौंकाने वाले नतीजे दे सकते हैं। खासकर बीरभूम और हुगली जिलों के संकेत चौंकाने वाले हैं। भाव तो माकपा के सूर्यकांत मिश्र का भी खासा ऊंचा है। पाठकों को बता दें कि भाव ऊंचा सट्टा बाजार में कमजोर उम्मीदवार का होता है। तो क्या मुख्यमंत्री पद का ख्वाब देख रहे मिश्र विधानसभा चुनाव भी नहीं जीत पाएंगे। सटोरिए तो ममता की सत्ता में वापसी को तय मान रहे हैं। बेशक कुछ सीटें घट सकती हैं। सट्टा ममता की हार-जीत पर भी खूब लगा है। हालांकि भाव नीचा है। यानी जो उनकी जीत पर सट्टा लगाएगा उसे खासा मुनाफा हो सकता है। सटोरिए भी कम चालाक नहीं हैं। नतीजे उलट आने पर होने वाली फजीहत से बचने का रास्ता पहले ही खोज रखा है। नतीजों के तीन दिन पहले यानी सोलह मई को भाव में उलट-फेर की संभावना बता दी है। यानी एग्जिट पोल के नतीजों के बाद बदल सकता है सट्टा बाजार का नजरिया।

बेचारगी परनामी की
भाजपा की राजस्थान में हालत माशा अल्लाह है। सूबेदार अशोक परनामी के भरोसे चल रहा है संगठन। बेचारे परनामी पता नहीं किस वजह से अपनी टीम ही नहीं बना पा रहे। यानी इस मामले में भी उन्हें स्वायत्तता नहीं होने की अटकलें जारी हैं। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की मंजूरी के इंतजार में होंगे। ऊपर से आलाकमान की मंजूरी का झंझट अलग ठहरा। अमित शाह संकेतों में कई बार समझा चुके हैं कि आरएसएस की पृष्ठभूमि वालों को तरजीह देनी चाहिए। रही संघ की बात, तो उसने जो नाम सुझाए हैं वे अपनी बेबाकी के लिए कुख्यात रहे हैं। ऊपर से वसुंधरा के विरोधी अलग। यानी करेला वह भी नीम चढ़ा। वसुंधरा की नाराजगी तो परनामी मोल ले नहीं सकते। भले टीम नहीं बनने से संगठन की गतिविधियां ठप रहें। अमित शाह ने प्रभारी भी अविनाश राय खन्ना को बना दिया, जिन्हें न राजस्थान में दिलचस्पी है और न उनके पास समय है। पंजाब की सियासत का मोह ही नहीं छोड़ पा रहे। नतीजतन राष्ट्रीय संगठन मंत्री के नाते सहप्रभारी बनाए वी सतीश के कंधों पर है सारा जिम्मा। ऊपर से संघ ने अपना कोई प्रचारक भाजपा को राजस्थान के संगठन मंत्री के लिए दिया ही नहीं। संघियों की पीड़ा भी गैरवाजिब नहीं। पार्टी में संगठन मंत्री की कोई औकात ही न बचे तो फिर प्रचारक क्यों गवाएं। फंस गए बेचारे वी सतीश। एक तरफ संघियों को संगठन और अपनी सरकार होने का हवाला देकर चुप रहने की नसीहत देते हैं, तो दूसरी तरफ सत्ता का सुख भोग रहे गैरसंघी नेताओं से तालमेल बिठाना पड़ता है। सो, परनामी की टीम तय नहीं हो पाने का कारण संघी और गैरसंघी खेमों की तनातनी ही है। पहले भी परनामी ने अध्यक्ष के अलावा संगठन महामंत्री से लेकर खजांची और प्रवक्ता जैसे दायित्व भी खुद ही संभाले थे। तभी तो अमित शाह का कटाक्ष भी सहना पड़ा था। इस बार तो उन्हें प्रवक्ता भी बनाने हैं और खजांची भी। मुश्किल यह है कि टीम के अभाव में सरकार के खिलाफ उठने वाले हर मुद्दे पर पार्टी की तरफ से सफाई देने बेचारे परनामी खुद ही उतरते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि पार्टी और सरकार में संगठन का पक्ष रखने वाले नेताओं का टोटा पड़ गया है। वजह तो यही है कि ऐसे माहौल में हर कोई बच रहा है जिम्मा संभालने से।

आस्तीन का सांप
हरीश रावत अब आत्ममंथन कर रहे हैं। करीबी सूत्रों का तो यही दावा है। यानी पड़ताल में जुटे हैं कि संकट के वक्त किसने साथ दिया। किसने दगाबाजी की और कौन विरोधियों के साथ साजिश में शरीक था। हरक सिंह रावत की शिकायत वाजिब हो सकती है। मंत्री होते हुए भी उनकी कोई सुन ही नहीं रहा था। पर असली धोखा तो हरीश रावत को उनके मुंह लगे उस रिटायर अफसर ने दिया बताते हैं, जिसे उन्होंने नियम तोड़ कर मुख्य सचिव के पद पर सेवा विस्तार देने की पुरजोर कोशिश की थी। राकेश शर्मा आजकल नदारद हैं। रावत ने उन्हें न केवल अपना मुख्य प्रधान सचिव बना लिया था, अलबत्ता राजस्व परिषद का मुखिया भी नियुक्त कर दिया था। जबकि मुख्य सचिव की बराबरी वाली इस कुर्सी पर रिटायर अफसरों को नियुक्त करने की कभी परंपरा नहीं रही। रावत को उनके पार्टी सूबेदार किशोर उपाध्याय ने तो कई बार चेताया भी था कि उनके अपने ही उनके खिलाफ साजिशों में शामिल हैं। पर रावत को अब समझ आया कि सबके विरोध की अनदेखी कर जिसे सिर आंखों पर बिठाया, वही निकला आस्तीन का सांप।

आस्था की आड़
आम श्रद्धालु तो इसे कुंभ ही मानता है, भले उज्जैन में चल रहे धार्मिक समागम का सही नाम सिंहस्थ है। मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने कितनी मशक्कत की इस आयोजन को यादगार बनाने के फेर में। पर साधुओं ने फिर भी नुक्ता-चीनी कर ही डाली। द्वारकापीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती भाजपाईयों को कभी नहीं भाए। वजह उनका कांग्रेस मोह ही होगी। उज्जैन के विचार महाकुंभ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शिरकत भला उन्हें क्यों न अखरती। तभी तो बयान दे दिया कि विचार महाकुंभ के नाम पर सियासी पैमाने पर हो रहा है मंथन। जो संसद में भी मुमकिन था। शंकराचार्य की मानें तो प्राचीनकाल में राजा-महाराजा ज्ञान की खोज में खुद चक्कर लगाते थे ऋषि-मुनियों के। पर साधुओं का समागम माने जाने वाले सिंहस्थ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो खुद ही बड़े भारी उपदेशक नजर आए। भारतीय साधू समाज के राष्ट्रीय मंत्री अविमुक्तेश्वरानंद महाराज ने भी फरमाया कि सरकार की नजर में तो सिंहस्थ में इस बार मूर्ख आए हैं। तभी तो विद्वानों को विचार महाकुंभ का बुलावा तक नहीं भेजा। और तो और मोदी के योग गुरू एचआर नागेंद्र भी नहीं गए इस विचार महाकुंभ में। विवेकानंद योग अनुसंधान केंद्र बंगलुरु के मुखिया का नाम अगर वक्ताओं की सूची में नहीं हो, तो फिर वे जाएं भी क्यों? उनकी बहन नागरत्ना का नाम वक्ताओं की सूची में था तो क्या? मौका तो दिया ही नहीं उन्हें बोलने का। ऊपर से नगा साधुओं पर मोदी ने ऐसी टिप्पणी कर डाली कि अखाड़ा परिषद आग बबूला हो गई। मोदी ने कहा था कि कुंभ मेले को केवल नगा साधुओं तक सीमित कर दिया गया है, जिससे विदेशियों के बीच भारत की छवि बिगड़ती है। साधुओं को मोदी का लहजा व्यंग्यात्मक नजर आया है। आए भी क्यों न? परंपरा के हिसाब से तो कुंभ नगा और अखाड़ों का ही समागम माना जाता है। लेकिन विचार महाकुंभ का आयोजन करने वाले सूबे के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान को मोदी की आलोचना करने वालों की कतई परवाह नहीं। वे तो इसी से बम-बम हैं कि विचार महाकुंभ में चालीस से ज्यादा देशों के प्रतिनिधियों ने न केवल शिरकत की बल्कि देश और दुनिया की मौजूदा चुनौतियों पर गंभीरता से चिंतन भी किया।

लाबिंग का दौर
राज्यसभा चुनाव की तारीख तय होते ही सरगर्मियां भी तेज हो गई हैं मध्यप्रदेश में। भाजपा तीनों सीटें झटकने की रणनीति बुन रही है, तो कांग्रेस भी अपनी इकलौती सीट को बचाने के फेर में दुबली हुई जा रही है। कांग्रेस का एक वोट कम पड़ रहा है। उसे उम्मीद है कि जुगाड़ हो जाएगा और उसकी सीट बरकरार रह जाएगी। भाजपा के चंदन मित्र और अनिल माधव दवे का कार्यकाल पूरा हो रहा है, तो कांग्रेस की विजय लक्ष्मी साधौ भी उनके साथ ही रिटायर हो जाएंगी। दवे तो अपनी वापसी को लेकर बेफिक्र लग रहे हैं, पर चंदन मित्र पर अब तलवार लटकी है। दो बार मौका दे चुकी है पार्टी उन्हें। इस बार उनकी सीट झटकने की तिकड़म भिड़ा रहे लोगों में पार्टी के संघी महामंत्री राम माधव और उपाध्यक्ष ओम माथुर भी बताए जा रहे हैं। फिलहाल यूपी के प्रभारी हैं माथुर। मोदी के करीबी माने जाते हैं। राज्यसभा में पिछली दफा भी मध्यप्रदेश से उनका आना लगभग तय हो गया था, पर चंदन मित्र आखिरी वक्त पर भारी पड़ गए। रही कांग्रेस की बात तो विजय लक्ष्मी की सीट पर निगाह महिला कांग्रेस की अध्यक्ष शोभा ओझा ने भी टिका रखी है। इसके अलावा पार्टी के सूबेदार अरुण यादव, वकील विवेक तनखा, पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचौरी और पूर्व सांसद सज्जन सिंह वर्मा भी लाबिंग कर रहे हैं। यह बात अलग है कि दोनों दलों में से कोई भी अभी अपने पत्ते नहीं खोल रहा।

सियासी पैंतरा
नीकु ने अब बिहार के बाहर भी डंका बजाने की ठान ली है। नीकु यानी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अब उत्तर प्रदेश में मोदी विरोध का बिगुल बजाएंगे। शुरुआत मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से ही कर दी। मकसद था शराबबंदी की पैरोकारी। वाराणसी में मोदी से सवाल भी कर दिया कि वे शराबबंदी पर अपनी राय जाहिर करें। शराब मुक्त समाज तक सीमित रहते तो कोई विवाद नहीं होता। पर वे तो आरएसएस मुक्त राष्ट्र का नारा भी लगा बैठे। भाजपा और मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के मिशन की तर्ज पर। कांग्रेस तो मोदी के मिशन पर खामोश रही है लेकिन नीकु ने उसका तोड़ दे दिया। विश्वनाथ के मंदिर में शिव का दर्शन करना भी नहीं भूले। मकसद हिंदुत्व का नारा देने वालों को हैरान करना ही रहा होगा। समाजवादी महाहिंदू बन गया। वाराणसी के बाद जा धमके राजधानी लखनऊ। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के खिलाफ ज्यादा नहीं बोले। अलबत्ता यह जरूर कहा कि यूपी में भी शराबबंदी होनी चाहिए। जिक्र करना नहीं भूले कि उन्होंने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को इस बारे में चिट्ठी भी लिखी है। झारखंड के धनबाद शहर में नीकु का शराबबंदी की पक्षधर मानी जाने वाली महिलाओं ने ही विरोध किया था। पर लखनऊ में विरोध करने पहुंचे शराब के कारोबारी। विरोधियों ने नाक-भौं सिकोड़ी कि यूपी और झारखंड दोनों जगह स्थानीय लोगों ने नीकु को गंभीरता से लिया ही नहीं। नतीजतन भीड़ को वे बिहार से ही ढो कर लाए। आलोचकों के पास तो आलोचना के बहाने होते ही हैं। वे नीकु की शराब बंदी का यह कह कर मखौल उड़ा रहे हैं कि नीकु महज शराब के विरोधी हैं, नशे के नहीं। होते तो नशाबंदी अभियान चलाते। उनकी शराबबंदी से बिहार में दूसरे नशीले पदार्थों का कारोबार बढ़ गया है। उधर नीकु का लखनऊ आना मुलायम सिंह यादव के कारिंदों को खूब अखरा। अखिलेश सरकार के मंत्री राजेंद्र चौधरी ने नीतीश का नाम लिए बिना उनकी जमकर खिल्ली उड़ाई। सपा सरकार के खिलाफ साजिश रचने और सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ावा देने का आरोप भी जड़ा। सपा की जमीन में बिहार के दलों की खरपतवार के लिए कोई गुंजाइश नहीं होने की दुहाई दी। गठबंधन की बात करने वालों का भाजपा के साथ अरसे तक सत्ता सुख लूटने वाला बता कर मजाक उड़ाया। बिहार में जंगलराज होने और वहां के मुख्यमंत्री का यूपी में पर्यटन और दिल बहलाने के लिए दौरा करने की बात कह तो दी पर इससे नीकु तो खुश ही हुए होंगे। आखिर संज्ञान तो लिया ही उनके दौरे का सपा नेताओं ने।

दूध के जले
बिहार के जंगलराज को लेकर फिर विवाद गरमा गया है। नीतीश सरकार पर लालू और नीतीश के विरोधी जमकर हल्ला बोल रहे हैं। पहले गया में व्यवसायी पुत्र की सपा विधायक के बेटे के हाथों हत्या हुई। उसके बाद सीवान में एक पत्रकार को गोलियों से भून दिया गया। यानी हत्याओं का सिलसिला शुरू हो गया है। रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा ने सूबे में राष्ट्रपति शासन की मांग कर डाली है। पर भाजपा अभी इस हद तक नहीं पहुंची है। बेशक राजद-जद (एकी)-कांग्रेस गठबंधन की असली विरोधी तो वही है। राष्ट्रपति शासन की बात करने का अब मुंह भी तो नहीं है उसका। उत्तराखंड में पहले ही खासी फजीहत हो गई, अब बिहार में क्यों बेवजह फजीहत कराए।

वक्त का फेर
सियासत में कुछ भी निश्चित नहीं होता। हिमाचल को ही देख लीजिए। कभी महेश्वर सिंह ने भाजपा से अलग होकर अपनी हिमाचल लोकहित पार्टी बनाई थी तो सपना मुख्यमंत्री बनने का ही रहा होगा। पर ऐसे बुरे दिन आ गए हैं कि बेचारे अपनी पार्टी का अब अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी में विलय करने को मजबूर हो गए हैं। हालांकि इस पार्टी के पहले से ही सूबे में राजन सुशांत संयोजक बने बैठे हैं। वही सुशांत जो पिछली लोकसभा में भाजपा के सदस्य थे। पर प्रेम कुमार धूमल से अनबन हुई तो बाहर हो गए। आप के नेताओं से 26 मई को चंडीगढ़ में मिलेंगे महेश्वर। फिलहाल वे अपनी पार्टी के मुखिया तो हैं ही, विधानसभा के सदस्य भी हैं। महेश्वर कभी भाजपा के धुरंधर थे। अलग पार्टी बना कर भी खास सफलता नहीं मिल पाई। अकेला चना वैसे भी भाड़ कहां फोड़ पाता है। बेचारे वीरभद्र के पिछलग्गू बन गए थे पर वीरभद्र ने उनके भाई कर्ण सिंह को मंत्री बना कर उन्हें चिढ़ा दिया। लिहाजा अब वीरभद्र को सबक सिखाने के लिए आम आदमी पार्टी का दामन थामेंगे।