होने को तो सारी दुनिया ही कोरोना वायरस के महाप्रकोप की चपेट में है। पर राजस्थान के कांग्रेसी नेताओं की कोरोना ने हताशा ज्यादा ही बढ़ा दी है। मध्यप्रदेश के सियासी संकट और कमलनाथ सरकार के पतन से महीनों पुरानी हसरत फिर ताजा हो गई थी। मार्च के अंतिम सप्ताह यानी नवरात्रों में मलाईदार पद मिलने का भरोसा पक्का था। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी सबक ले लिया था कि विधायकों के अंसतोष को दूर न किया तो भाजपा उनकी सरकार को भी गिरा सकती है। भाजपाई तो डंके की चोट पर कह भी रहे थे कि कई कांगे्रसी विधायक उनके संपर्क में हैं। वे जब चाहें सरकार गिरा सकते हैं। उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट को लेकर भी तमाम तरह की अटकलें लगाई जा रही थी। यह कहने वालों की भी कमी नहीं थी कि पायलट भी ज्योतिरादित्य सिंधिया की राह जाने की तैयारी में हैैं। यहां तक कि पायलट के ससुर फारूक अब्दुल्ला की रिहाई के भी तमाम निहितार्थ निकाले जा रहे थे। गहलोत ने खतरे को भांप करीबियों को संकेत भी दे दिया था कि मंत्रिमंडल विस्तार और मलाईदार पदों का बंटवारा वे शीघ्र करेंगे। पर कोरोना ने तो हर किसी की प्राथमिकता अचानक बदल दी। गहलोत सरकार के लिए भी कोरोना चुनौती है। भीलवाड़ा में कोरोना संक्रमित रोगी मिल चुके हैं। स्वास्थय सेवाओं के मामले में गहलोत का रिपोर्ट कार्ड अच्छा रहा है। कोरोना से पहले ही इन्होंने निरोगी राजस्थान अभियान चला दिया था। अब कोरोना से निपटने के लिए गहलोत ने जो उपाय किए हैं उनकी आम आदमी ही नहीं केंद्र सरकार ने भी सराहना की है। अपने विधायकों को भी उन्होंने इस महामारी के मुकाबले के लिए जी जान से जुटने को कहा है। वे जुट भी गए हैं, इस उम्मीद में कि क्या पता उनके काम से प्रभावित होकर ही मुख्यमंत्री उनका कल्याण कर दें। जो भी हो फिलहाल तो तमाम दावेदार यही कहकर अपना मन समझा रहे हैं कि तय वक्त से पहले कभी किसी को कुछ नहीं मिलता। लगता है उनके भाग्योदय का सही वक्त अभी आया ही नहीं।

कोरोना इफेक्ट
कोरोना का प्रकोप मानवता के लिए ऐतिहासिक तो है ही, इसके कारण और भी कई इतिहास बनेंगे और परंपराएं टूटेंगी। अपने देश में जिस एनसीआर को लेकर महीनों से सत्ता पक्ष और विपक्ष में जद्दोजहद चल रही थी, उसे टालना पड़ा है। वह भी अनिश्चितकाल के लिए। निश्चित तो इस स्थिति में कुछ है ही नहीं। एक अप्रैल से तय थी प्रक्रिया। और तो और 26 मार्च को तय राज्यसभा के चुनाव का मतदान भी चुनाव आयोग ने टाल दिया। कुल 55 सीटों में से 38 का चुनाव तो निर्विरोध ही हो गया और मतदान की नौबत नहीं आई। पर बाकी 17 सीटों का मामला कोरोना ने उलझा दिया है। सात राज्यों की हैं ये सीटें। इनमें गुजरात और मध्य प्रदेश को लेकर रस्साकशी ज्यादा है। चुनाव आयोग शुरू में तो इसी निर्णय पर अटल था कि 26 मार्च को मतदान कराया जाएगा। पर जब प्रधानमंत्री ने पूरे देश को तीन हफ्ते के लिए लाकडाउन किया तो सवाल उठा कि सैंकड़ों की संख्या में विधायक एक स्थान पर जमा होंगे मतदान के लिए। फिर कैसे बचा जा सकेगा संक्रमण से। मध्य प्रदेश में इस बीच कमलनाथ सरकार चली गई और भाजपा वापस सत्ता में आ गई। 230 सदस्यीय सदन में अब 24 सीटें खाली हो चुकी हैं। साफ है कि तीन राज्यसभा सदस्यों का चुनाव बचे 206 विधायक करेंगे। कांगे्रस ने दिग्विजय सिंह और फूलसिंह बरैया को उम्मीदवार बनाया है। सत्ता थी तो उसे दो सीट पर जीत का भरोसा था। भाजपा ने भी दो उम्मीदवार उतार रखे हैं। एक उतारती तो मतदान की नौबत ही न आती। अब चर्चा गरम है कि दिग्विजय सिंह फंस सकते हैं। विधायकों में से अगर ज्यादा ने प्रथम वरीयता की वोट बरैया को दे दी तो दिग्विजय को मुश्किल होगी। इतना तो भाजपा ने स्पष्ट कर ही दिया है कि अपने दोनों उम्मीदवारों को जिताएगी। यानी कांगे्रस का एक चित हो जाएगा। दिग्गी हो या बरैया, यह मतदान के बाद ही स्पष्ट होगा। अब जरा कोरोना प्रभाव भी देख लें। राज्यसभा सदस्यों का कार्यकाल छह साल होता है। जाहिर है बचे 17 सदस्यों के काल की गणना उनके निर्वाचन की तारीख से होगी। यह भी नई परंपरा होगी। मध्यप्रदेश इस बार एक नया सियासी इतिहास और रचेगा। 24 विधानसभा सीटों पर एक साथ उपचुनाव का। मध्यावधि चुनाव तो अतीत में भी खूब हुए हैं अपने देश में। पर इतनी बड़ी संख्या में किसी एक राज्य में उपचुनाव कभी नहीं हुए। चर्चा तो यह है कि भाजपा पर दबाव बनाने के लिए कांगे्रस अपने सभी बचे 92 विधायकोें के सामूहिक त्यागपत्र भी दिला सकती है। ताकि भाजपा को मध्यावधि चुनाव के लिए विवश किया जा सके। कल्पना कीजिए यदि कांगे्रस ने यह कदम उठाया और भाजपा फिर भी मध्यावधि को तैयार न हुई तो कितनी सीटों के लिए कराना पड़ेगा उपचुनाव।

बर्र का छत्ता
अपने देश में कोरोना वायरस के प्रकोप से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने आपदा प्रबंधन कानून-2005 का सहारा लिया है। पाठकों को बता दें कि कानून-व्यवस्था अपने संविधान में राज्यों के अधिकार क्षेत्र का विषय है। सो, लॉकडाउन सामान्य परिस्थितियों में कानूनन राज्य सरकारें ही कर सकती हैं। केंद्र या तो इमरजेंसी लगाकर ये अधिकार ले सकता है या आपदा कानून के तहत। यह कानून आपदा से निपटने के लिए केंद्र सरकार को लोगों पर पाबंदी लगाने और त्वरित निर्णय लेने के अधिकार देता है। सरकार ने पीड़ित और प्रभावित लोगों की मदद क लिए आर्थिक पैकेज भी घोषित किया है। समाज के विभिन्न तबकों से भी ऐसी मदद की पेशकश सामने आ रही है। आपदा कोष में आर्थिक योगदान देने वाले भी आगे आ रहे हैं। साथ ही सोशल मीडिया पर भी ज्ञान खूब बंट रहा है। सरकार को सुझाव भी दिए जा रहे हैं। मेरठ के एक वकील आशुतोष गर्ग ने सुझाव दे डाला कि देश के अनेक मंदिरों और धार्मिक संस्थानों के पास अरबों-खरबों की संपदा हैं। तिरुपति, पुरी, साईंबाबा शिर्डी, सिद्धिविनायक और पदमनाभन जैसे मंदिरों के नाम भी दे दिए। सरकार उनसे धन ले। पीड़ितों की मदद कर देश को आर्थिक संकट से उबारे। यह रकम निष्क्रिय है। इसका इस्तेमाल नए अस्पताल बनाकर स्वास्थ्य सुविधाओं के विकास में करे। हैदराबाद की एक डाक्टर मनीषा बांगर की इस बाबत लिखी गई पोस्ट का भी खूब प्रचार हुआ। पर न तो अपनी तरफ से किसी प्रमुख धर्मस्थान ने मदद की पेशकश की और न किसी सरकार ने उनसे ऐसा आग्रह किया। सरकारें तो वैसे भी डरती हैं। वे जानती हैं कि धर्मस्थलों को छेड़ना बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा होगा।

प्रस्तुति : अनिल बंसल