उत्तराखंड की हरीश रावत सरकार का गिरना कांग्रेस आलाकमान की नाकामी का एक और प्रमाण है। हरीश रावत के खिलाफ पार्टी के नौ विधायकों ने बगावत अचानक नहीं की। असंतोष तो अरसे से सुलग ही रहा था। कभी विजय बहुगुणा दस, जनपथ की आंखों के तारे थे। मुख्यमंत्री पद से हटते ही आलाकमान से उनके रिश्ते बिगड़ गए। दरअसल जब से पार्टी में राहुल गांधी का दबदबा बढ़ा है, फूट और गुटबाजी भी बेकाबू हुई है। बहुगुणा अपने चंपू सुबोध उनियाल को मंत्री बनवाना चाहते थे। पर हरीश रावत ने उनके साथ वही बर्ताव किया जो बहुगुणा खुद मुख्यमंत्री रहते उनके साथ करते थे। नाकामी प्रभारी महासचिव अंबिका सोनी की भी कम नहीं रही। वे चौकस और सयानी होतीं तो असंतुष्टों को राहुल गांधी से मिलवा कर उनके शिकवे-शिकायत दूर करा सकती थीं। लेकिन उन्होंने रावत को मझधार में छोड़ दिया। कांग्रेस के अंदरूनी सूत्र इस संकट का ठीकरा रावत पर भी फोड़ रहे हैं जिन्होंने निर्दलियों और बसपाई विधायकों को तो सिर आंखों पर बिठाया, जबकि अपने विधायकों के साथ घर की मुर्गी दाल बराबर जैसा सलूक किया। काश, कांग्रेस आलाकमान अरुणाचल के प्रकरण से सबक लेकर चौकसी बरतता तो अपने अंदरूनी संकट में भाजपा को टांग फंसाने से रोक सकता था। कांग्रेस ने चूक कई मामलों में दिखाई। पहले तो राजभवन पर ही जरूरत से ज्यादा भरोसा कर लिया। यह सही है कि केके पाल को राज्यपाल मनमोहन सरकार ने बनाया था। पर वे सियासी वफादारी क्यों निभाते? वे तो आइपीएस अफसर थे। वक्त के साथ बदलने की फितरत वाले। मोदी सरकार ने कांग्रेसी राज में नियुक्त किए गए दूसरे राज्यपालों की तरह एक तो उनसे इस्तीफा नहीं लिया था। ऊपर से मिजोरम जैसे छोटे और दूरवर्ती सूबे से तबादला कर उन्हें उत्तराखंड का राज्यपाल बना दिया। स्टिंग आपरेशन के बाद तो राज्यपाल के पास केंद्र की मंशा के मुताबिक रिपोर्ट भेजने के अलावा और कोई चारा था भी नहीं। अनुभवी नेता होने के बावजूद रावत टीवी चैनल के मालिक पत्रकार की हकीकत को परखने में भी चूक कर बैठे।

नहीं गली दाल
अस्तित्व पर संकट हो तो नेता कौन सा टोना-टोटका नहीं आजमाते। उत्तराखंड की हरीश रावत सरकार को बचाने के लिए भी कांग्रेसियों ने मध्य प्रदेश में इंदौर के पास नलखेड़ा गांव में एक तांत्रिक अनुष्ठान कराया। मुख्यमंत्री के भाई गुरुवार रात विमान से इंदौर आए, फिर सड़क के रास्ते मां बगलामुखी देवी के सिद्ध पीठ मंदिर जा पहुंचे। रात में ही तांत्रिक अनुष्ठान हुआ, जिसकी तैयारी पहले से कर ली गई थी। रात भर अनुष्ठान करने के बाद हरीश रावत के भाई शुक्रवार सुबह वाया इंदौर विमान से दिल्ली चले गए। बगलामुखी देवी में रावत परिवार की अनूठी आस्था रही है। रावत जब केंद्र में मंत्री थे तो यहां विशेष अनुष्ठान कराया था। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी खुद आए थे और विशेष पूजा कराई थी। पाठकों को याद दिला दें कि इसी सिद्ध पीठ मंदिर में स्मृति ईरानी भी अनुष्ठान कराने पहुंची थीं। शाजापुर तहसील के नलखेड़ा स्थित तीन मुखों वाली त्रिशक्ति माता बगलामुखी के इस मंदिर का निर्माण कृष्ण के निर्देश पर महाभारत की विजय के बाद युधिष्ठिर द्वारा कराए जाने की मान्यता चली आ रही है। मनोकामना पूरी करने के लोभ में यहां आते हैं देश भर से तमाम लोग। तंत्र की देवी हैं बगलामुखी। तभी तो मंदिर शमशान में बना है। लेकिन मध्य प्रदेश से नाता रखने वाले भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बिछाए जाल में हरीश रावत ऐसे उलझ गए कि मां बगलामुखी के मंदिर में तांत्रिक अनुष्ठान कराना भी काम नहीं आया।

अग्नि परीक्षा
नीकु जो ठान लेते हैं उसे येन-केन प्रकारेण पूरा करके ही चैन लेते हैं। नीकु यानी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। उनकी इसी आदत की उनके विरोधी खूब आलोचना करते हैं। कोई उन्हें हठधर्मी कहता है तो कोई अहंकारी होने का आरोप लगाता है। जब से नरेंद्र मोदी को उनके प्रशंसकों ने नमो कहना शुरू किया है तभी से नीतीश के समर्थक भी उन्हें नीकु कहने लगे हैं। किसी मुद्दे पर विरोधी अगर नीकु के खिलाफ मुखर होते हैं तो नीकु उसे प्रतिष्ठा का सवाल बना लेते हैं। विरोधी जिसे उनका हठ मानते हैं, उसी को नीकु अपनी दृढ़ता समझते हैं। आजकल शराब बंदी का मुद्दा ऐसा ही बन गया है। नीकु ने फरमान जारी कर दिया है कि एक अपै्रल से बिहार के ग्रामीण इलाकों में देसी दारू पर पुख्ता पाबंदी रहेगी। अलबत्ता शहरी इलाकों में अंग्रेजी शराब पर फिलहाल पाबंदी नहीं होगी। हालांकि बाद में अंग्रेजी शराब पर भी पूरी पाबंदी लगेगी। एक साल बाद तो सूबे में दोनों ही शराबों पर पूरी तरह का प्रतिबंध लागू हो जाएगा। इसके लिए नीकु सरकार बाकायदा कानून बनाने जा रही है। ऐसा कानून जो कठोर तो होगा ही, दूसरे सूबों के लिए भी एक मिसाल बन जाएगा। दूसरी तरफ नीकु की योजना शराब बंदी के प्रति लोगों को जागरूक बनाने की भी है। इसके लिए गैर सरकारी संगठनों की मदद ली जा रही है। लोग भूले नहीं है कि किस तरह नीकु ने दलितों को महादलित बनाया था। दलितों के बीच से जब उन्होंने महादलितों की पड़ताल शुरू की तो उनके विरोधी दलित नेता उनके मुखर आलोचक बन गए। शुरुआत नीकु ने दलितों की 22 जातियों में से 18 को महादलित की श्रेणी में रख कर की थी। बाद में केवल एक जाति यानी पासवान को छोड़ बाकी सभी दलितों को महादलित मान लिया। दलित-महादलित प्रसंग काफी लंबा चला। अब कहीं कोई चर्चा तक नहीं। वैसे भी दलित और महादलित के वर्गीकरण को नीकु कानूनी रूप तो दे ही नहीं पाए। जिस तरह उन्होंने पिछडेÞ और अति पिछडेÞ के वर्गीकरण को दे रखा है। पर शराब बंदी का मुद्दा अलग ठहरा। उसका खुल कर विरोध भला कौन कर पाएगा। बेशक शराब के हिमायतियों की तादाद कम नहीं है। कहने वाले तो यहां तक नुक्ताचीनी कर रहे हैं कि नीकु के इर्द-गिर्द मंडराने वालों में भी दारू कुट्टों की भरमार है। कहीं शराब बंदी का नीकु का फैसला मखौल बन कर न रह जाए। यानी कानून धरा रह जाए और शराब बंदी महज कागजों तक सिमट जाए।

सुमो का धोबीपाट
सुमो ने भी सियासत की कच्ची गोलियां नहीं खेली हैें। सुमो यानी बिहार के सबसे कद्दावर माने जाने वाले भाजपा नेता सुशील मोदी। नीकु सरकार की धज्जियां उड़ाने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देते। आखिर विधानसभा में लंबे अरसे तक विपक्ष के नेता रहे हैं। अभी भी विधान परिषद में भाजपा के नेता तो हैं ही। इन दिनों बजट सत्र चल रहा है। विभिन्न विभागों के बजट को सदन से मंजूरी मिल गई है। सरकारी महकमें विधायकों को महंगे तोहफे दे रहे हैं। सुमो की तरह ही राबड़ी देवी भी विधान परिषद की ही सदस्य ठहरी। सुमो ने सरकारी महकमों से मिले तोहफ वापस कर दिए। जबकि राबड़ी देवी समेत सत्तारूढ़ गठबंधन के किसी भी विधायक ने तोहफा वापस नहीं किया। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की तरफ से विधायकों को माइक्रोवेव अ‍ॅवन भेंट किए गए। सुमो को सरकार की घेरेबंदी का मौका मिल गया। बोले कि शिक्षकों को वेतन तो सरकार दे नहीं रही, पर विधायकों को महंगे तोहफे बांट रही है। महकमे के मंत्री हैं अशोक चौधरी। उनके विभाग ने दलील दे दी कि इससे स्कूलों में छात्रों को दिए जाने वाले भोजन का विधायक स्वाद चख सकेंगे। यों तोहफे पहली बार नहीं बंटे। अतीत में भी कम से कम बजट सत्र में तो विधायकों को तोहफे न जाने कब से दिए जा रहे हैं। कभी कलाई घड़ी तो कभी सूटकेस। सूटकेस कभी खाली तो कभी उसमें कोई दूसरा उपहार रख कर। सुमो ने कभी भी ऐसे तोहफे न लिए हों, ऐसा तो है नहीं। पर इस बार तो वेतन के लिए पापड़ बेल रहे शिक्षकों के आंदोलन को देखते हुए और उन पर हुए पुलिसिया बल प्रयोग के मद्देनजर सुमो ने तोहफा न लेने का सियासी पैंतरा दिखा ही दिया। साथ ही नीकु सरकार की पोल अलग खोल दी और लोगों को पत चल गया कि उनके नुमांइदे कितने उपहार डकार रहे हैं।

बेमेल खिचड़ी
पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वाममोर्चे का विधानसभा चुनाव में गठबंधन तो जरूर हो गया, पर मोर्चे का एक घटक दल आरएसपी तो असमंजस में पड़ गया है। कहने को कांग्रेस अब पहले की तरह दुश्मन नहीं। लेकिन दुविधा यह है कि तालमेल के बावजूद कांग्रेस ने उन नौ सीटों पर भी अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं, जो आरएसपी के हिस्से में आई हैं और उसी की पारंपरिक सीटें भी मानी जाती हैं। कांग्रेस को मोर्चे ने 294 में से 85 सीटेंं दी हैं। पर उसे इतनी सीटों पर सब्र कहां। सो आरएसपी का नेतृत्व कांग्रेस से खफा है। पर मजबूरी देखिए कि वाममोर्चे के फैसले का विरोध भी नहीं कर सकता। मोर्चे में चलती तो माकपा की ही है। आरएसपी के नेता क्षिति गोस्वामी की बातों से भी यह असमंजस साफ झलकता है। ये जनाब दुहाई दे रहे हैं कि आरएसपी तो वाममोर्चे की अनुशासित सिपाही ठहरी। पर इतना तो पार्टी कहेगी ही कि माकपा ने सीटों का बंटवारा करते वक्त कांग्रेस के प्रति कुछ ज्यादा ही लचीला रुख दिखा दिया। तो भी मजबूरी सियासी वजूद को बचाने की हो तो झुकना ही पड़ता है। इससे पहले कांग्रेस के सूबेदार अधीर चौधरी ने समझौते का ईमानदारी से पालन नहीं करने की तोहमत आरएसपी पर ही जड़ दी थी। गोस्वामी ने चौधरी की टिप्पणी को दुर्भाग्यपूर्ण बता चुप्पी साध ली। ऐसे विरोधाभासी बर्ताव के चलते तो समझौते की डगर कांटों भरी ही रहेगी। तभी तो साख बचाने के लिए गोस्वामी ने कह दिया कि तृणमूल कांग्रेस विरोधी मतों का बंटवारा रोकने का अस्थायी बंदोबस्त भर है कांग्रेस से वाममोर्चे का तालमेल। यानी बेमेल खिचड़ी ही हुई यह तो।

करें अफसर भरे जनता
बिजली प्रबंधन के मोर्चे पर विफल साबित हुई है मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार। उत्पादन, वसूली, वितरण आदि हर मोर्चे पर बरसों से घाटे का रोना ही रोती रही हैं बिजली कंपनियां। पर कारणों की पड़ताल से जी चुराने में माहिर ठहरीं। अफसरों की गलती से करोड़ों डूब गए। सीएजी की ताजा रिपोर्ट ने 2010-11 से लेकर 2014-15 तक के चार साल के बिजली उत्पादन के तय लक्ष्यों के मुताबिक कोयले की वाजिब से ज्यादा खपत की तरफ ऊंगली उठाई है। प्लांट लोड फैक्टर भी कतई नहीं सुधरा इस दौरान। अलबत्ता वसूली बढ़ा कर वाहवाही लूटने की कोशिश लगातार चली। यह बात अलग है कि शिकार ईमानदार उपभोक्ता ही होते रहे। चार सालों में बकाया रकम घटने के बजाए इसमें छह अरब का इजाफा ही हो गया। गांवों के फीडर अलग करने का काम भी लेट-लतीफी की भेंट चढ़ा। इससे नुकसान तो होता ही है। पेनल्टी वसूलने में भी दरियादिली दिखाना महंगा पड़ा। कंपनियों के घाटे के रोने पर सीएजी का दिल कतई नहीं पसीजा। पसीजता भी क्यों? घाटे की जिम्मेवार तो ये कंपनियां खुद ही हैं। पर खामियाजा आम आदमी भुगत रहा है। वैसे दावा यही सुनाई पड़ता है कि बिजली उत्पादन के मामले में यह राज्य अतिरिक्त बिजली वाले राज्यों की कतार में आ चुका है। पर शर्मनाक बात तो यह है कि खपत से ज्यादा बिजली बनाने का दावा करने वाले सूबे में ही 563 गांवों में आज तक बिजली पहुंची ही नहीं। इसमें 178 गांव तो रीवा के हैं और गत मुरैना की भी वैसी ही बनी है। जहां 157 गांवों में सनातन अंधेरा है। लेकिन ऊर्जा मंत्री राजेंद्र शुक्ल फिर भी इन गांवों में जल्द बिजली पहुंचाने का लाली-पॉप देने में कतई संकोच नहीं कर रहे। कुछ नहीं सूझा तो यही फरमाया कि कई गांवों में तो सौर ऊर्जा का उपयोग किया जा रहा है।

वक्त का फेर
राजस्थान की वसुंधरा सरकार के मंत्रियों के रुतबे में भी फेरबदल हो गया। भाजपा की अंदरूनी राजनीति के साथ ही प्रशासनिक हलकों में भी चटखारे ले रहे हैं भाई लोग। तभी वसुंधरा के सबसे भरोसेमंद माने जाते थे राजेंद्र राठौड़। पर चिकित्सा मंत्री होने के बावजूद बेचारे राठौड़ को अब नौकरशाह ज्यादा भाव दे ही नहीं रहे। अलबत्ता परिवहन मंत्री युनूस खान की हवा है। हो भी क्यों न? परिवहन के अलावा पीडब्लूडी जैसा मलाईदार महकमा भी तो वे ही संभाल रहे हैं। इससे राठौड़ के साथ उनके रिश्तों में तल्खी बढ़ी है। विधानसभा के भीतर विधायक भी दोनों के रिश्तों पर खूब चटखारे लेते हैं। उधर, भाजपा के वरिष्ठ विधायक घनश्याम तिवाड़ी अपनी उपेक्षा का प्रतिशोध सदन में अपनी साफगोई से ले रहे हैं। तिवाड़ी तो युनूस को वसुंधरा की आंखों का तारा बता कर राठौड़ की खिल्ली भी उड़ाने से नहीं चूकते। एक बार तो सदन में यहां तक कह दिया कि चिकित्सा मंत्री का परिवहन मंत्री डाक्टर युनूस ने एकदम सटीक आपरेशन कर दिया है। राजस्थान भाजपा में चल रही उठापटक भविष्य में कुछ भी गुल खिला सकती है। राजेंद्र राठौड़ अपनी अनदेखी को अपने जातीय स्वाभिमान से भी तो नहीं जोड़ सकते। गजेंद्र सिंह और राजपाल शेखावत जैसे और भी राजपूत मंत्री हैं वसुंधरा की सरकार में। वे मुख्यमंत्री की ढाल बनने में देर नहीं लगाएंगे। ले-देकर पूर्व सूबेदार अरुण चतुर्वेदी ने जरूर खुद को गुटबाजी से बचा रखा है। मंत्री के नाते जहां वसुंधरा के भरोसेमंद हैं, वहीं संघ का खेमा भी उनसे संतुष्ट है। अमित शाह की निगाह में भी साफ-सुथरी है चौबे जी की छवि। शाह की तरह वे भी विद्यार्थी परिषद की पृष्ठभूमि वाले ठहरे। यों राठौड़ का प्रदर्शन विधानसभा में बेहतर रहा है। पर गैर संघी होने के कारण उन्हें तरजीह देकर मुख्यमंत्री संघी खेमे को नाराज करती थीं। दिल्ली में संघ का दबदबा बढ़ा तो उन्होंने भी राठौड़ की जगह चतुर्वेदी को अहमियत देने में अपनी भलाई समझी।

संकट में राजा
वीरभद्र सिंह संकट में हैं। संकट दोहरा है हिमाचल के कांग्रेसी मुख्यमंत्री पर। अब तक कानूनी और सियासी दोनों मोर्चों पर अपने दांवपेंच से सफल थे। अब तो प्रेम कुमार धूमल के साथ भी रिश्तों को सुधारा था। पर अचानक प्रवर्तन निदेशालय ने उन्हें झटका दे दिया। दिल्ली स्थित वीरभद्र परिवार की नौ करोड़ की संपत्तियों को जब्त कर लिया। इसके बाद तो धूमल को विरोध मे बयान देना ही पड़ा। नैतिकता के आधार पर उनसे इस्तीफा मांग लिया। विधानसभा का सत्र नहीं चलने देने की धमकी भी दे डाली। यह बात अलग है कि अब सत्र के ज्यादा दिन बचे ही नहीं। सात अप्रैल तक है सत्र। प्रवर्तन निदेशालय की ताजा कार्रवाई से वीरभद्र के चेहरे पर तनाव की लकीरें दिख रही हैं। वीरभद्र के वकीलों ने तो पिछले दिनों दिल्ली हाई कोर्ट में भी आशंका जता दी थी कि निदेशालय हिमाचल के मुख्यमंत्री को गिरफ्तार कर सकता है। बजट सत्र में ऐसा होने से कामकाज पर असर पड़ेगा। लेकिन हाई कोर्ट ने प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई पर रोक नहीं लगाई। वीरभद्र को यह उम्मीद कतई नहीं थी कि गिरफ्तारी से पहले भी प्रवर्तन निदेशालय संपत्ति जब्त करने का फैसला कर सकता है। अब तो सूबे के सियासी संकट के और गहराने का खतरा बढ़ रहा है। ऐसे में कहीं मध्यावधि चुनाव की नौबत न आ जाए हिमाचल में। अरुणाचल और उत्तराखंड में तो कांग्रेस की सरकारें गिर ही गईं, हिमाचल की सरकार पर भी अब गहरा गए हैं संकट के बादल।

लोकतंत्र का मखौल
विधायक किसी भी सूबे के क्यों न हों, अपनी सुख-सुविधाओं के प्रति मोह के मामले में सबका चरित्र एक सा ही दिखता है। पर्वतीय राज्य हिमाचल के विधायकों ने भी इसे साबित कर दिखाया है। अपने वेतन और भत्तों की चिंता तो उन्हें सदा सताती है, पर जनहित के मुद्दों से शायद ही वैसा सरोकार कभी दिखाते हों। वीरभद्र अपने मौजूदा कार्यकाल में विधायकों के वेतन और भत्ते दो बार बढ़ा चुके हैं। सूबे की माली हालत खस्ता है तो रहे। पचास हजार करोड़ का कर्ज चढ़ जाएगा आज की रफ्तार से तो अगले दो साल में इस सूबे पर। 35 हजार तक तो आंकड़ा पहुंच ही चुका है। बजट सत्र के बचे दिनों में फिर तैयारी है विधायकों के वेतन को बढ़ाने का प्रस्ताव पारित करने की। इस मामले में भाजपाई भी सुर में सुर मिलाएंगे। दस हजार रुपए माहवार से ज्यादा बढ़ जाएगा मूल वेतन। यानी विधायक को हर महीने दो लाख तीस हजार रुपए मिलेंगे। इसके उलट सांसद को तो अब भी एक लाख 30 हजार ही मिल रहे हैं। जबकि हिमाचल में एक सांसद 17 विधायकों के बराबर नुमाइंदगी करता है लोगों की। सांसदों का वेतन 2010 के बाद नहीं बढ़ा। पर हिमाचल के विधायकों का चार साल में तीसरी बार बढ़ जाएगा। आम आदमी की आमदनी बढ़ाने की सरकार को कतई चिंता नहीं। जबकि महंगाई के बोझ ने उसकी कमर तोड़ रखी है। बेरोजगारी का संकट भी लगातार बढ़ा है। बेरोजगार युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देने का चुनावी वादा भी पूरा नहीं किया वीरभद्र ने। सरकारी नौकरियों के हजारों पद खाली पड़े हैं। लेकिन माननीयों के लिए कोई संकट नहीं खजाने का।