नीतीश कुमार अब प्रधानमंत्री पर आश्रित हो गए हैं। होना उनकी मजबूरी भी तो बन चुकी है। सत्ता में बने रहने के लिए तो नेता कुछ भी जतन करने से नहीं हिचकते। सो, बिहार के मुख्यमंत्री के सामने भी चारा क्या है? जानते हैं कि बदले समीकरणों में अब भाजपा अपनी स्थिति मजबूत करेगी। हो सकता है कि आने वाले दिनों में उनकी हालत वही हो जाए जो महाराष्ट्र में शिवसेना की हुई है। बाल ठाकरे के जीवनकाल में भाजपा को छोटे भाई की तरह जो मिला उस पर सब्र करना पड़ता था। मुख्यमंत्री का पद तो गठबंधन में जैसे शिवसेना की बपौती था। भाजपा की अगुआई में केंद्र सरकार बनने के बाद गठबंधन टूटा और दोनों पार्टियां अलग-अलग विधानसभा चुनाव लड़ीं तो शिवसेना का पराभव ही हुआ। नतीजा सामने है कि अब सरकार वहां भाजपा चला रही है और केंद्र में भी उसके हिस्से महज एक मंत्रिपद आया और वह भी गया-गुजरा। अब नीतीश को दोनों तरफ से चौकन्ना रहना पड़ेगा। सही है कि असली चिंता उनकी राजद के उभार को रोकने की होगी। पर लालू के जेल जाने के बाद भी उनकी पार्टी कहीं से कमजोर नहीं दिख रही। अलबत्ता लालू की गैरहाजिरी में शिवानंद तिवारी के रूप में एक कद्दावर नेता मिल गया है लालू के बेटों तेजस्वी और तेजप्रताप को। तिवारी की पहचान बिहार में बाबा के नाम से है। बाबा को पार्टी का उपाध्यक्ष बना रखा है। नीतीश से चोट खाए हैं तो लालू के साथ आना मजबूरी था। राजद के दूसरे उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह हैं जो लालू के जेल जाने के बाद मोदी सरकार पर खूब गरजे थे। अब पार्टी में उनकी कम बाबा की ज्यादा चल रही है। वैसे रघुवंश बाबू को भी उनके हितैषी ब्रह्म बाबा कहते हैं। नीतीश दोनों बाबाओं के दांवपेच से नावाकिफ नहीं हैं। शिवानंद तिवारी की मदद से ही लालू की सत्ता को उखाड़ पाए थे एक दौर में नीतीश। वैसे दोनों बाबाओं को अब अपने भविष्य से ज्यादा चिंता तो अपने दुलारों की है। पासवान और लालू की तरह वे भी क्यों नहीं चाहेंगे अपने बेटों को सियासी मैदान में हिट करना।

घर के न घाट के
मुकुल राय का भविष्य अंधेरी सुरंग में फंस गया लगता है। तृणमूल कांग्रेस में एक दौर में ममता के दाएं हाथ माने जाते थे राय। लेकिन घोटालों में फंसे तो ममता ने हाशिए पर धकेल दिया। अपनी उपेक्षा सही नहीं गई। सो, बेचारे गए साल भाजपा में आ गए। उम्मीद थी कि अमित शाह और उनकी टोली सिर आंखों पर बिठाएगी। पश्चिम बंगाल में भाजपा ने ताकत तो झोंक भी रखी है। वोट बैंक भी बनने लगा है। पर चुनाव में सफलता अभी सपना ही बनी है। मुकुल राय के साथ आने से उम्मीद लगाई होगी कि ममता के जनाधार में सेंध लगा पाएंगे। लेकिन भाजपा में भी पार्टी के सूबेदार दिलीप घोष से पटरी नहीं बैठ पा रही। उधर ममता तो नाम लिए बिना लगातार गद्दार कह कर उन पर हमले बोल ही रही हैं। त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी को मुश्किल हो रही है। सो, ठीकरा मुकुल राय पर फोड़ दिया। फरमाया कि सूबे में चुनाव लायक संसाधन ही नहीं हैं पार्टी के पास। त्रिपुरा का काम देखने वाला गद्दार निकला। भाजपा में चला गया। हर कोई समझ रहा है कि संकेत मुकुल राय की तरफ ठहरा। रही दिलीप घोष की बात तो वे डाक्टरों की सलाह पर आराम कर रहे हैं। मुकुल राय समर्थकों ने अमित शाह को दिल्ली जाकर समझाया कि घोष की जगह किसी और को सूबेदार बना दें तभी सक्रिय हो पाएगी सूबे में भाजपा। घोष को भनक लगी तो वे भी फट पड़े और ममता के अंदाज में ही बोले कि पार्टी में कुछ गद्दार हैं जो उनकी कुर्सी हथियाना चाहते हैं। सूबे के प्रभारी महासचिव कैलाश विजय वर्गीय के करीबी तो जरूर हैं मुकुल राय पर दिलीप घोष के मुकाबले अभी तो उन्नीस ही दिख रहे हैं।

संजीवनी
राजस्थान में लोगों के अच्छे दिन आए हों या नहीं पर भाजपा के अच्छे दिनों की पोल तो उपचुनाव के नतीजों ने खोल ही दी। लोकसभा की अजमेर और अलवर व विधानसभा की मांडलगढ़ सीट पर कितनी बुरी तरह हार गई भाजपा। जबकि सूबे और केंद्र दोनों जगह उसी का राज ठहरा। नौसीखिए से भी पूछो तो जवाब देगा कि उपचुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी जीतती है। इलाके के मतदाता सोचते हैं कि विपक्षी को जिताने से न विकास योजनाएं हिस्से आएंगे और न शासन-प्रशासन में उसकी कोई सुनेगा। लेकिन भाजपा का आलाकमान इस करारी हार को इसे केंद्र सरकार की लोकप्रियता पर सवालिया निशान मानने के बजाए मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के अहम अहंकार की हार समझ रहा है। यानी चार साल का वसुंधरा सरकार का कामकाज लोगों को भाया नहीं। वैसे सरकार से न पार्टी के कार्यकर्ता ही खुश दिखे कभी और न संघी। इस हार ने सनातन बागी चल रहे सबसे वरिष्ठ भाजपा विधायक घनश्याम तिवाड़ी को मौका दे दिया है। वे खुल कर बोल रहे हैं कि भ्रष्टाचार ने सीमाएं तोड़ दी हैं तो फिर अंजाम यही तो होना था। पाठकों को याद दिला दें कि 2013 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को दो सौ में से 163 सीटों पर ऐतिहासिक सफलता मिली थी। ऐसे बंपर बहुमत के बाद भी लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई सरकार। रही कांग्रेस की बात तो उसे फिलहाल संजीवनी मिल ही गई है।