राजस्थान की वसुंधरा सरकार के पास अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है। विधानसभा चुनाव में महज आठ महीने हैं। लिहाजा जो करना है वह फटाफट करना होगा। सियासी हवा भी पार्टी के खिलाफ ही बह रही है। हाल में हुए दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट के उपचुनाव में बुरी गत से इसका साफ संकेत मिल गया। वसुंधरा राजे की कार्य प्रणाली से भाजपा आलाकमान खुश तो पहले भी नहीं था पर उपचुनाव के नतीजों ने उसे और आईना दिखा दिया। यह बात अलग है कि अमित शाह चाह कर भी वसुंधरा को छेड़ नहीं सकते। हार तो मध्यप्रदेश में भी लोकसभा उपचुनाव में शिवराज चौहान के मुख्यमंत्री रहते हो चुकी है। पंजाब में गुरदास पुर में भी हार ही हिस्से आई पार्टी के।
अब यूपी में भी दोनों लोकसभा सीटें गंवा बैठी पार्टी। इस कसौटी पर तो शिवराज चौहान और योगी आदित्यनाथ को भी बदलना पड़ेगा। इसके बावजूद झुंझुनू की रैली में लोगों ने प्रधानमंत्री की मौजूदगी में वसुंधरा को हूट कर दिया। भाजपा ने देश को कांग्रेस मुक्त करने का संकल्प लिया है पर राजस्थान में भाजपाई खुद ही मान कर चल रहे हैं कि कांग्रेस की वापसी तय है। किरोड़ीलाल मीणा को पार्टी में वसुंधरा के एतराज के बावजूद न केवल वापस लिया बल्कि राज्यसभा की सीट भी दे दी। ताकि मीणा बिरादरी की नाराजगी दूर हो सके।
राज्यसभा में आए मदन लाल सैनी भी संघी हैं कहने को तो पर वसुंधरा से तो छत्तीस का ही आंकड़ा है उनका। रूठे पार्टी कार्यकर्ताओं को मनाने के लिए भी मंत्रियों का समूह बनाया गया है। जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं को अंदरखाने लालीपाप दिया जा रहा है कि उनके कहने से तबादले होंगे। इस चक्कर में सरकार ने तबादलों पर लगी अपनी पाबंदी भी हटा ली है। कार्यकर्ता तबादलों के लोभ में कम से कम अब पार्टी के प्रति रोष तो नहीं उगलेगा।
(प्रस्तुति : अनिल बंसल)