कुर्सी बनाम स्टूल
अबकी बार तीन सौ के पार। भाजपा ने यह नारा लगाकर कोई अतिरेक तो किया नहीं था। आखिर 2017 में उसे उत्तर प्रदेश की 403 में से 312 सीटों पर सफलता मिली ही थी। वैसे भी चुनाव में आशावादी तो सभी होते हैं। पर हर बार हर किसी की आशा पूरी हो, ऐसा भी तो मुमकिन नहीं। भाजपा के नारे को हरियाणा और पश्चिम बंगाल में हर किसी ने उलटते देखा। हरियाणा में 47 सीट लेकर भाजपा चुनाव में उतरी थी तो नारा था-अबकी बार सत्तर पार। नतीजा आया तो पहले की तुलना में सात सीटें घट गई।

उत्तर प्रदेश में तो चुनाव की तारीखों के एलान तक तमाम सर्वेक्षण भाजपा की स्पष्ट बहुमत की सरकार के दावे ही कर रहे थे। पर स्वामी प्रसाद मौर्य के इस्तीफे ने अचानक सारे सियासी पंडितों को अपने अनुमानों पर पुनर्विचार के लिए विवश कर दिया। इसके बाद अगला इस्तीफा दारा सिंह चौहान और उसके बाद धर्म सिंह सैनी ने दिया। कई विधायकों ने भी इस्तीफों की झड़ी लगा दी।

हर किसी ने भाजपा से अचानक हुए मोहभंग का कारण दलितों, पिछड़ों, गरीबों और किसानों की उपेक्षा ही बताया। चुनाव के वक्त नेताओं का दल-बदल करना आम बात होती है। जो छोड़कर जाते हैं, पार्टी उन्हें कचरा बताने से भी परहेज नहीं करती। लेकिन पार्टी छोड़कर जा रहे पिछड़े और अति पिछड़े नेताओं के बारे में ऐसी नकारात्मक टिप्पणी किसी भाजपाई ने नहीं की। भाजपा अगर उत्तर प्रदेश में 2012 के अपने पंद्रह फीसद वोट आधार से 2017 में बढ़कर लगभग 40 फीसद के आंकड़े तक पहुंची थी तो कारण पिछड़ों का साथ आना ही था।

भाजपा ने यह धारणा बना दी थी कि सपा महज यादवों और मुसलमानों के बारे में सोचती है। अब लग रहा है कि भाजपा के पिछड़े नेताओं में असंतोष है। तभी तो अखिलेश यादव उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य को स्टूल मंत्री बताकर भाजपा में पिछड़ों की हैसियत को आईना दिखा रहे हैं।

एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा तो कुर्सियों पर बैठे थे जबकि उपमुख्यमंत्री होते हुए भी केशव मौर्य दोनों के बीच एक स्टूल पर बैठे नजर आए थे। पिछले साल केशव मौर्य की नाराजगी की खबरें भी सामने आई थी। पर संघ और भाजपा के शिखर नेतृत्व ने उनकी मिन्नतें कर उन्हें बगावत से रोक दिया था। खुद योगी आदित्यनाथ को भी जाना पड़ा था तब केशव मौर्य के घर।

इजहार-ए-इरादा
उत्तराखंड में कांग्रेस गोत्र के भाजपाई नेता कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत की भाजपा छोड़कर कांग्रेस में जाने की पूरी संभावना थी। पिछले दिनों कैबिनेट मंत्रिपद से इस्तीफा देने की घोषणा की थी और कैबिनेट बैठक का बहिष्कार कर दिया था और तब उनके पार्टी छोड़ने की पूरी उम्मीद थी। लेकिन आलाकमान ने रावत को ऐसी घुट्टी पिलाई कि उन्होंने अब कांग्रेस में जाने का इरादा लगभग छोड़ दिया है।

अब रावत कह रहे हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री से वादा किया है कि वे भाजपा नहीं छोड़ेंगे और ना ही कोई विधायक उनके साथ भाजपा छोड़ रहा है। भाजपा ने तो विधानसभा चुनाव के ऐन मौके पर अपना घर संभाल लिया। लेकिन कांग्रेस में भाजपा ने सेंध लगानी शुरू कर दी है और भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने रात के अंधेरे में भाजपा के केंद्रीय प्रभारी तथा केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी और संगठन महामंत्री अजय कुमार से मुलाकात की।

उसके बाद वे देहरादून से लखनऊ रवाना हुए और वहां पर अखिलेश यादव से मिले सपा और भाजपा में अपनी राजनीतिक जमीन तलाश रहे किशोर उपाध्याय को भाजपा ज्यादा फायदेमंद नजर आई। भाजपा किशोर उपाध्याय को गढ़वाल मंडल की टिहरी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़वा सकती है जब कांग्रेस हाईकमान को यह पता चला कि किशोर उपाध्याय भाजपा में जल्दी जा सकते हैं तो रातों-रात कांग्रेस के उत्तराखंड प्रभारी भूपेंद्र यादव ने किशोर उपाध्याय को पार्टी के सभी पदों से हटा दिया और उन पर पार्टी के विरुद्ध काम करने का आरोप लगाया।

उम्मीदों की उम्मीदवार
उत्तर प्रदेश में राजनीतिक नैतिकता की नगण्यता के बीच प्रियंका गांधी अपनी एक अलग छवि बनाने में जरूर कामयाब हुई हैं। जिस देश के कानून के अनुसार जनसंचार माध्यमों पर बलात्कार पीड़िता का नाम और पहचान नहीं दिया जा सकता है वहां उन्होंने पीड़िता के परिवार को टिकट देने का फैसला किया है। प्रियंका की टीम ने नागरिकता कानून विरोधी आंदोलनकारी सदफ जाफर को भी टिकट देने का एलान किया है। सदफ जाफर उत्तर प्रदेश पुलिस की क्रूरता की मुखालफत का चेहरा बन गई थीं।

एक समय तो उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके पोस्टर भी चौराहे पर लगा दिए थे अपराधियों की तरह। प्रियंका गांधी को इस बात का अहसास तो खूब होगा कि उत्तर प्रदेश क्या पूरे देश की जमीन पर ही इस तरह के उम्मीदवारों की जीत आसान नहीं। चुनावी मैदान में मेधा पाटकर और इरोम चानू शर्मिला जैसी आंदोलनकारी को नकार दिया गया था। इन टिकटों का नतीजा जो भी हो लेकिन लैंगिक बराबरी की बात जिस भी मंच से उठे, जिस तरह की राजनीति से उठे असर तो उसका सकारात्मक ही पड़ना है। हमारे देश में बलात्कार का मुद्दा महंगाई और बेरोजगारी की तरह चुनावी मुद्दा क्यों न बनाया जाए?
(संकलन : मृणाल वल्लरी)