बिहार की राजनीति में हर नेता बयानवीर बन गया है। अब कोई राजनीतिक क्रांति तो होने से रही, लेकिन कटाक्ष क्रांति जरूर आ गई है। बेतुके बयान देने से सुर्खियों में तो आ ही जाते हैं। अब नीतीश कुमार के एक बयान ने बखेड़ा खड़ा कर दिया है। बिहार के मुख्यमंत्री यों ज्यादा नहीं बोलते। कम अवसरों पर ही बोलते हैं। जो भी बोलते हैं, सोच समझकर और नपा तुला ही बोलते हैं।

आजकल बिहार में वे समाधान यात्रा निकाल रहे हैं। चौतरफा हमलों के शिकार हैं पर परवाह नहीं कर रहे। भाजपा तो विरोधी है सो उसका उन पर वार करना स्वाभाविक ठहरा। लेकिन वे तो अपनों तक के निशाने पर हैं। जिन उपेंद्र कुशवाहा को 2021 में सिर माथे बिठाया था और पार्टी में शामिल कर एमएलसी बना उनका पुनर्वास किया था, वे ही सबसे बड़े विरोधी बन गए हैं। बेशक पार्टी के संसदीय बोर्ड के मुखिया ठहरे। नीतीश उन्हें सलाह भी दे चुके हैं कि उनका मन जिस पार्टी में जाने का हो, वे तुरंत चले जाएं। लेकिन उपेंद्र कुशवाहा पत्ते खोलने को तैयार नहीं। सपना तो उप मुख्यमंत्री पद का देखा था पर हिस्से में मंत्री पद भी नहीं आया।

सहयोगी दल राजद के नेता भी नीतीश की टांग खींचने में पीछे नहीं। सुधाकर सिंह ने तो मंत्री रहते हमला बोला था। मंत्री पद तो चला गया पर तेवर बरकरार हैं। नीतीश पर वार करने वालों में राजद विधायक विजय मंडल भी शामिल हो गए हैं। तेजस्वी यादव इस तरह के अपने नेताओं को कार्रवाई की धमकी तो जरूर दे रहे हैं पर कर कुछ नहीं रहे हैं। ताजा बयान नीतीश ने भाजपा को लक्ष्य करके दिया। फरमाया कि मर जाना कबूल है पर भाजपा के साथ जाना कतई नहीं। यह सफाई भी दे रहे हैं कि वे 2020 में मुख्यमंत्री बनना ही नहीं चाहते थे। पर भाजपा ने बनने को विवश किया। उसके बाद जो सलूक किया, जग जाहिर है।

इस एलान की भाजपा के सूबेदार संजय जायसवाल ने खिल्ली उड़ाई। 2016 के बयान की याद दिलाई। जब नीतीश ने कहा था कि वे किसी भी हालत में भाजपा के साथ नहीं जाएंगे। पर अगले ही साल राजद और कांग्रेस को गच्चा देकर भाजपा से मिले थे। भाजपा के बिहार के प्रभारी विनोद तावड़े नीतीश को ठग कहने में भी नहीं हिचके। बयान दिया कि ऐसा कोई सगा नहीं, नीतीश ने जिसको ठगा नहीं। नीतीश के पुराने भाजपाई साथी सुशील मोदी तो नीतीश पर पाला बदलकर प्रधानमंत्री का अपमान करने का आरोप लगा चुके हैं। नीतीश उनके बारे में ज्यादा नहीं बोलते और यही कटाक्ष करते हैं कि मेरी आलोचना करना उनकी मजबूरी है।

वजूद पर संकट

उत्तर पूर्व के तीन राज्यों के इसी माह हो रहे विधानसभा चुनाव में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है। त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में कांग्रेस का एक विधायक है। त्रिपुरा में तो पिछले चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस का सूपड़ा ही साफ कर दिया था। 60 में से 44 सीटें जीतकर वाममोर्चे की दो दशक से भी ज्यादा पुरानी सरकार को तो सत्ता से बेदखल किया ही था, कांग्रेस के जनाधार को भी डकार लिया था। कांग्रेस को 2013 में त्रिपुरा में 37 फीसद वोट मिले थे। जो 2018 में घटकर दो फीसद रह गए थे। कांग्रेस को नुकसान ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने भी पहुंचाया था। हालांकि तृणमूल का सत्ता में आने का सपना पूरा नहीं हो पाया था।

त्रिपुरा में आदिवासियों की बहुतायत है। तभी तो एक तिहाई सीटें जनजाति के लिए आरक्षित हैं। जनजातियों की क्षेत्रीय पार्टी आइपीएफटी से गठबंधन भाजपा का पहले भी था और इस बार भी है। कांग्रेस ने वाममोर्चे से हाथ मिलाया है। उसे गठबंधन में 13 सीटें मिली हैं। पूर्व मुख्यमंत्री समीर रंजन बर्मन के विधायक पुत्र सुदीप राय बर्मन कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए थे। अब कांग्रेस में उनकी वापसी हो चुकी है। उन्होंने दावा किया है कि भाजपा का इस बार त्रिपुरा से सफाया हो जाएगा। कांग्रेस अपना खोया जनाधार वापस हासिल कर सत्ता में वापसी करेगी। इस सूबे में इस बार मुकाबला कांटे का ही होने के संकेत मिल रहे हैं।

दक्षिण का दुख

अन्ना द्रमुक के दोनों गुटों के बीच जंग तेज हो जाने से भाजपा की दुविधा बढ़ गई है। दक्षिण के इस राज्य में भी केरल की तरह ही भाजपा अभी तक अपनी खुद की कोई जमीन तैयार नहीं कर पाई है। जयललिता के सहारे हालांकि अतीत में उसे यहां लोकसभा और विधानसभा की सीटें मिल चुकी हैं पर जयललिता की विरासत का झगड़ा भाजपा को भी भारी पड़ रहा है। एक तरफ ओ पनीरसेल्वम और ई पलानीस्वामी के गुटों में वर्चस्व की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुकी है तो दूसरी तरफ शशिकला भी अपने लिए संभावनाएं तलाश रही हैं। जेल से तो वे पहले ही बाहर आ गई थी।

अन्ना द्रमुक के दोनों गुटों की लड़ाई के हश्र का इंतजार कर रही होंगी। अन्ना द्रमुक के झगड़े से स्टालिन की द्रमुक निश्चिंत है। इस बीच इरोड पूर्व विधानसभा सीट के उप चुनाव को लेकर भी अन्ना द्रमुक के दोनों गुट आमने-सामने हैं। पनीरसेल्वम ने यहां अपने उम्मीदवार का एलान कर दिया है और भाजपा से समर्थन मांगा है। जबकि पलानीस्वामी खेमा तो पहले ही उम्मीदवार उतार चुका था। अब दुविधा दोनों धड़ों के सामने दोहरी है। एक तो यह कि चुनाव आयोग पार्टी का अधिकृत चुनाव निशान किसे देगा और दूसरा भाजपा किसका साथ देगी।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)