अमित शाह को टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में यह कहने की क्या जरूरत थी कि मायावती ने उत्तर प्रदेश की सियासत में अपनी प्रासंगकिता गंवाई नहीं है। भरोसा भी जता दिया कि बसपा के कोर जाटव वोट बैंक के साथ ही उन्हें मुसलमानों का वोट भी मिल रहा है। सीटों में यह वोट तब्दील होगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता। वे संदेश यही देना चाहते होंगे कि उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग भाजपा और सपा के बीच दो ध्रूवीय होने के तमाम आकलन सही नहीं हैं। गनीमत है कि उन्होंने यह नहीं कहा कि बसपा सरकार भी बना सकती है। यह बात अलबत्ता अगले दिन खुद मायावती ने कह दी।
लखनऊ में मतदान केंद्र पर अपना मत डालने पहुंची मायावती से पत्रकारों ने पूछा था कि अमित शाह ने उनकी तारीफ की है। जवाब में मायावती भी कृतज्ञ नजर आई। जवाब दिया कि यह अमित शाह की महानता है कि उन्होंने सच्चाई को स्वीकार किया है। अब जरा दोनों नेताओं के इस सदभाव की पड़ताल भी कर ली जाए। मायावती ने 2007 में अपने बूते सरकार बनाकर सबको चौंकाया था। लेकिन 2012 में वे सत्ता से बाहर हो गईं। दो साल बाद हुए लोकसभा चुनाव ने तो उनका भट्टा ही बैठा दिया।
लोकसभा में बसपा का एक भी नुमाइंदा नहीं पहुंचा। फिर आई राष्ट्रपति चुनाव की बारी। रामनाथ कोविंद का समर्थन कर बसपा ने संकेत दे दिया कि जिस भाजपा के साथ मिलकर उसने तीन बार सरकार बनाई थी, वह उसके लिए अब भी अछूत नहीं है। इसके बाद बसपा का ग्राफ लगातार गिरता गया। तो भी मायावती भाजपा के प्रति कभी आक्रामक नहीं दिखीं। लोकसभा के 2019 के चुनाव में सपा से गठबंधन करने का अलबत्ता उन्हें फायदा हुआ। बसपा शून्य से दस तक जा पहुंची। चुनाव बाद उन्होंने अचानक न केवल गठबंधन तोड़ दिया बल्कि सपा और कांग्रेस पर लगातार हमलावर रहीं।
राज्यसभा चुनाव में भाजपा ने उनका एक सदस्य जितवाया तो मायावती ने बयान दे दिया कि उनके लिए भाजपा नहीं सपा अछूत है। बस यहीं से मुसलमान वोट बैंक उन्होंने खुद ही गंवा दिया। अब तक के चार चरण के मतदान का मूल्याकंन करने वाला हर कोई कह रहा है कि सूबे के मुसलमानों ने बसपा और ओवैसी दोनों को भाजपा की बी टीम बताकर पूरी तरह नकारा है। असलियत तो नतीजे ही बताएंगे पर इतना तो साफ हो गया है कि परोक्ष रूप से बसपा और भाजपा इस चुनाव में नूरा कुश्ती लड़ रहे हैं। चर्चा तो यहां तक हो रही है कि भाजपा बहिन जी को इसी साल उपराष्ट्रपति बना सकती हैं।
माफिया की मर्जी
कोराना काल में हिमाचल में किसी ने कुछ काम किया हो या न किया हो लेकिन जहरीली शराब और पटाखों की अवैध फैक्टरी का धंधा खूब चला। लेकिन न तो नौकरशाहों को, न पुलिस को और न ही सरकार की एजंसियों को कोई भनक लगी। सब के सब वर्क फ्राम होम पर चले गए और माफिया काम पर जुट गए। ऊना के हरोली में पटाखे की अवैध फैक्टरी में विस्फोट हो गया और छह महिलाएं जिंदा जल गई। सरकार और अधिकारियों को तब पता चला कि सब कुछ अवैध तौर पर चल रहा है।
इसी तरह मंडी में जहरीली शराब पीने से सात लोगों की जान चली गई। तब जाकर सरकारी मशीनरी को पता चला कि यह शराब अवैध तौर पर बनाई जा रही थी। सारे दलों के नेता एकजुट हो गए हैं कि जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन नेताओं की भूमिका को लेकर दोनों दलों की ओर से चुप्पी साध ली गई है। जबकि पता सबको सब कुछ है।
शासन के बारीक सूत्रों को जानने वाले कहते हैं कि जब राजनीतिक नेतृत्व शासन के प्रति प्रतिबद्धता के बजाय चंद चहेतों के प्रति प्रतिबद्ध हो जाता है तो नौकरशाही किसी भी राज्य में अराजकता का ऐसा झंझावत खड़ा कर देती है जिसने बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। जयराम ठाकुर की सरकार भी कुछ ऐसे ही झंझावत में फंसती नजर आ रही है। अब साल भी चुनावी चला हुआ है, ऐसे में राम ही जाने आगे क्या होने वाला है।
अशोक की दिलाई आस
जिन पांच प्रदेशों में चुनाव हो रहे हैं, उनमें राजस्थान का नाम नहीं है। लेकिन इस अहम चुनावी समय में सुर्खियां बटोर गए राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत । पिछले दिनों आए केंद्रीय बजट के बाद केंद्र सरकार को बजट का महत्व समझाने के लिए पूरा प्रचार-तंत्र लगा देना पड़ा था। लेकिन राजस्थान के बजट-भाषण में पुरानी पेंशन योजना लागू करने का जिक्र आते ही अशोक गहलोत राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गए। नवउदारवाद के तीन दशकों के रिपोर्ट कार्ड ने आम आदमी को निराशा के जिस राजमार्ग पर अकेला सा छोड़ दिया है, वहां यह एलान उसे कड़ी धूप में मिली छतरी सा महसूस हो रहा है।
इसके साथ ही अशोक गहलोत ने जिस शहरी गारंटी योजना का जिक्र किया है, अगर वो जमीन पर उतर पाया तो आने वाले समय में यह खेल के नियम बदल देने वाला सरीखा फैसला होगा। कहा गया कि इस एलान का असर उत्तर प्रदेश चुनाव के बाकी बचे चरण पर भी पड़ सकता है। ध्रुवीकरण की राजनीति के दौर में अशोक गहलोत ने पुरानी पेंशन की बात रख सबके सामने कड़ी चुनौती रख दी है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने सत्ता में आने के लिए जो वादा किया है, अशोक गहलोत ने सत्ता में रहते हुए उस पर अमल कर दिया। आने वाले दिनों में पेंशन व सामाजिक सुरक्षा बड़ा मुद्दा रहने वाला है यह अशोक गहलोत ने तय कर दिया।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)