ओवैसी की आस
ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन के मुखिया सांसद असद्दुदीन ओवैसी भी उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग में कूद पड़े हैं। भाजपा को तो उत्तर प्रदेश में उनकी सक्रियता पर कोई एतराज नहीं पर विपक्षी दल जरूर उन्हें भाजपा की ‘बी’ टीम बताकर उनकी खिल्ली उड़ा रहे हैं। सूबे में मुसलमानों की औसत आबादी 18 फीसद है। पर कई इलाकों में 25 से 35 फीसद तक भी है। विधानसभा की दो दर्जन सीटें जरूर ऐसी होंगी जहां मुसलमान मतदाता 45-50 फीसद से कम नहीं होंगे। ओवैसी की अपनी सियासत है। वे सिर्फ मुसलमानों के वोट चाहते हैं। उन्हीं के शोषण की चर्चा करते हैं। इस महीने मेरठ और मुजफ्फरनगर में अपनी सियासी रैलियां कर जमीन तलाशने की कवायद की। केंद्र और उत्तर प्रदेश दोनों सरकारें भाजपा की हैं। पर ओवैसी भाजपा से ज्यादा हमलावर समाजवादी पार्टी पर नजर आए। मुसलमानों को अपना नेतृत्व सपा, बसपा या कांग्रेस को सौंपने के बजाए खुद करने की नसीहत दी।

बेशक, उनकी सभाओं में भारी भीड़ तो कहीं नहीं उमड़ी पर मुजफ्फरनगर के 2013 के दंगों का दर्द उभारते हुए तोहमत तब की सूबे की अखिलेश यादव सरकार पर लगाना नहीं भूले। सूबे के मुसलमान हालांकि इस हकीकत से अनभिज्ञ नहीं हैं कि ओवैसी चाहकर भी सूबे में अपनी सरकार नहीं बना सकते। इसीलिए मुसलमानों में भी यह धारणा बखूबी बन चुकी है कि वे विपक्ष के वोट काटेंगे। बिहार में उन्हीं के कारण राजद को नुकसान हुआ। पर, ओवैसी अपनी दलीलों से ऐसे आरोप लगाने वालों से सवाल करते हैं कि 2019 में सपा और बसपा मिलकर लड़े थे। फिर भी हार गए। मुसलमानों के तकरीबन सारे वोट उन्हें ही मिले थे। फिर क्यों हारे।

बकौल ओवैसी सपा, बसपा और कांग्रेस का वोट बैंक भाजपा के साथ जा चुका है। ओवैसी उत्तराखंड के रुड़की स्थित पिरान कलियर के मजार पर भी गए और चादर चढ़ाई। संभल का नाम बदलने के यूपी सरकार के प्रस्ताव पर हमला बोलते हुए ओवैसी ने संभल को गाजियों की धरती बताया तो भाजपाई भी मैदान में कूद पड़े। तभी तो भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने लोगों को आगाह किया कि हिंदु-मुसलमान को बांटने की ओवैसी की चाल यूपी में नहीं चलने वाली। टिकैत ने फरमाया कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तालिबान और अब्बाजान की रट तो लगाए हैं पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर रहे ओवैसी पर कोई कार्रवाई नहीं करेंगे। आखिर भाजपा के चचा जान जो ठहरे ओवैसी।

बात की सौगात
उत्तराखंड की राजनीति में इस समय जबरदस्त माहौल बना हुआ है। राजनेताओं के बीच मोबाइल पर हो रही बातचीत चर्चित हो रही है। नई चर्चाएं और गठजोड़ सामने आ रहे हैं। अब तक कांग्रेस के दिग्गज नेता पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को कोसने वाले भाजपा सरकार के सबसे चर्चित मंत्री हरक सिंह रावत, हरीश रावत से माफी मांगते नजर आ रहे हैं और उन्हें अपना बड़ा भाई और मार्गदर्शक बता रहे हैं। हरीश रावत ने हरक सिंह को फोन करके कहा कि आपदा के समय सांप और नेवले दोनों एक हो जाते हैं और हम तो पुराने सहयोगी और मित्र हैं। यह कहकर हरक सिंह रावत को कांग्रेस में आने का हरीश रावत ने खुला निमंत्रण दिया।

इस फोन की बातचीत के वायरल होने के बाद भाजपा में खलबली मच गई। दूसरी ओर हरिद्वार जिले के खानपुर के भाजपा विधायक और गुर्जर समुदाय के नेता कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन ने कह दिया कि वे किसी पार्टी के मोहताज नहीं हैं। 2002 में उत्तराखंड के पहले विधानसभा चुनाव में कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन गुर्जर बाहुल्य विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय विधायक बने थे और उसके बाद वे कांग्रेस में शामिल हो गए। वे लगातार चुनाव जीतते आ रहे हैं। 2016 में भाजपा में शामिल हो गए थे। भाजपा में भी उनकी पटरी नहीं बैठी और उन्हें अनुशासनहीनता का नोटिस मिला। लेकिन उनके जनाधार को देखते हुए भाजपा हाईकमान को उनको दिया गया नोटिस वापस लेना पड़ा था।

नौकरशाही की सुस्ती
हिमाचल प्रदेश में तीन विधानसभा और एक संसदीय हलके के चुनावों के दौरान यह पहली बार हुआ है कि नौकरशाही चुपचाप बैठ राजनीतिक दंगल देखती रही। नौकरशाही पहले भी खामोश रहती थी, लेकिन पर्दे के पीछे से वह बहुत कुछ करती थी। इस बार तस्वीर बदली हुई रही। अब सब दो नंवबर का इंतजार कर रहे कि मतगणना के बाद नतीजा क्या रहेगा। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के कम ही चहेते नौकरशाह हैं। उनकी मित्रमंडली ने तय किया कि पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल को इन चुनावों में घुसने नहीं देना है। पहले जब प्रदेश में चुनाव होते थे तो नाराज या हाशिए पर रखे गए नेताओं को मनाने के लिए उनके चहेते नौकरशाहों को लगाया जाता था।

इस बार नौकरशाही पर्दे के पीछे के खेल में बड़ा कुछ करती नजर नहीं आई। जयराम ठाकुर मंडी में ही जुटे रहे। वीरभद्र सिंह, शांता कुमार से लेकर धूमल तक अब तक कोई भी ऐसा मुख्यमंत्री नहीं रहा जो किसी उपचुनाव तो क्या आम चुनावों में भी तमाम समय अपने जिला और हलके में रहा हो। राजनीतिक विरोधी तो यह सब तमाशा देखते ही रहे नौकरशाही भी मजे लेने में पीछे नहीं रही। अब दो नवंबर को ही पता चलेगा कि नौकरशाही किस करवट बैठती है। अभी सरकार का एक साल तो है ही।

(संकलन : मृणाल वल्लरी)