तृणमूल कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में सब कुछ सहज और सामान्य नहीं दिख रहा है। कोलकाता हवाई अड्डे पर सोमवार को अखिलेश यादव के समर्थन के लिए लखनऊ रवाना होने से पहले ममता बनर्जी पत्रकारों से रूबरू हुई। उनसे गोवा में चुनाव प्रचार की बाबत सवाल हुआ तो बोली कि वे लखनऊ जा रही हैं। गोवा को कोई और देख रहा है। वे गोवा नहीं जाएंगी। तृणमूल कांग्रेस की तरफ से गोवा में पार्टी के विस्तार का अभियान ममता के भतीजे सांसद अभिषेक बनर्जी और सांसद महुआ मोइत्रा चला रहे हैं।
तृणमूल कांग्रेस ने दूसरे दलों से नेता तो जरूर तोड़ लिए पर गोवा के चुनावी मुकाबले में पार्टी अपेक्षित माहौल नहीं बना पाई। जाहिर है कि दीदी ने भतीजे का नाम लेने के बजाए कोई कहकर संबोधित किया तो इससे दोनों के बीच मतभेद के कयास तो लगने ही थे। प्रशांत किशोर से भी ममता अब खुश नहीं लग रहीं। उनकी कंपनी को इस अपेक्षा से ठेका दिया गया था कि तृणमूल कांग्रेस को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करने में मदद मिलेगी। अभी तक के नतीजों से ऐसा होता दिख नहीं रहा।
चर्चा है कि पीके ने ममता को संदेश भेजा था कि वे अब पश्चिम बंगाल, मेघालय और ओड़िशा में काम करना नहीं चाहते। दीदी ने भी तत्काल उन्हें धन्यवाद लिख भेजा। वे 2026 तक के अपने अनुबंध को जब चाहें तोड़ सकते हैं। पीके को जून 2019 में पश्चिम बंगाल लाने वाले अभिषेक बनर्जी ही थे। अपने भतीजे की गतिविधियों से भी ममता खफा बताई जा रही हैं। अभिषेक के चहेते युवा नेता जहांगीर खान को मिली वाई श्रेणी की सुरक्षा को वापस लेने के सरकार के फैसले से इसकी झलक दिखी। अभिषेक के उस इंटरव्यू से भी ममता कुपित बताई जा रही हैं जिसमें उन्होंने राजनीतिकों के लिए भी सक्रियता की कोई अधिकतम उम्र सीमा तय करने की बात कही थी। ममता खुद 67 की हो चुकी हैं।
स्थानीय निकाय चुनाव के उम्मीदवारों की दोहरी सूची सामने आने से भी पार्टी के अंदरूनी मतभेदों को लेकर कानाफूसी बढ़ी है। प्रशांत किशोर के संगठन ने जो सूची जारी की थी उसे नकारते हुए ममता ने पार्थ चटर्जी और सुब्रत बक्शी की सूची को अधिकृत ठहराया। लखनऊ में ममता ने कहा कि अखिलेश अगर भाजपा को यूपी से भगा दें तो दिल्ली से 2024 में वे भगा देंगी। अच्छा होता कि दिल्ली का सपना देखने से पहले दीदी पश्चिम बंगाल में अपने कुनबे को सलीके से सहेज लेतीं।
चुनावी मांग
हिमाचल में चुनावी साल शुरू हो गया है। चुनावी साल की वजह से प्रदेश में कर्मचारी आंदोलन पर हैं। ऐसा हर चुनावी साल में होता है। लेकिन हाल ही में ठेकेदारों ने चार सौ करोड़ रुपयों के करीब लंबित भुगतान को लेकर जब हड़ताल की तो पूरे मंत्रिमंडल में ही हलचल मच गई। मचती भी क्यों नहीं। चुनावों के खर्च को चलाने के लिए पिछले दरवाजे से पैसा इन्हीं ठेकेदारों के जरिए मिलता है। ऐसे में राठौर ने झट से ठेकेदारों की मांग का समर्थन कर दिया।
वामपंथी विधायक राकेश सिंघा भी समर्थन में उतर गए। क्योंकि ठेकेदारों के पास काम करने वाले श्रमिकों का भुगतान रुक गया था। पहले तो मुख्यमंत्री ने इस मामले पर अदालत के आदेश का हवाला देकर इस भुगतान का मामला अदालत के जरिए सुलटाने का रुख ले लिया। लेकिन जब ठेकेदारों ने अपना संघर्ष बढ़ाया तो मुख्यमंत्री ने मंत्रिमंडल की बैठक बुला ली। ज्यादातर मंत्री राजधानी से बाहर थे। कई पहुंच भी नहीं सके। बैठक में तुरंत ठेकेदारों के भुगतान को लेकर रास्ता निकाल कर एक संबधित अधिनियम में संशोधन करने का फैसला ले लिया गया।
अब बाकी कर्मचारी सोच रहे हैं कि उनका संघर्ष तो सालों तक चलता है। लेकिन सरकार कोई परवाह ही नहीं करती। हालांकि अभी यह मामला अदालत में है। अदालत ने अगर सरकार के रुख को नहीं माना तो जयराम सरकार फिर चुनावी साल में मुश्किल में फंस जाएगी। कांग्रेस पार्टी चाहती भी कुछ ऐसा ही है। चाहती है कि ठेकेदार सरकार के खिलाफ रहें।
चर्चा-ए-मुफ्त
दिल्ली और पंजाब में ज्यादा दूरी नहीं है। लेकिन वहां के आर्थिक और राजनीतिक संस्कृति में खासी दूरी है। दिल्ली में बिजली-पानी मुफ्त की बात यहां के मध्यवर्गीय लोगों के लिए संजीवनी की तरह ही है। दिल्ली वालों की बिजली का बिल पड़ोसी राज्यों के लोगों के लिए ईर्ष्या का सबब बन जाता है। एक तरह से कहें तो आम आदमी का चरित्र ही शहरी मध्य-वर्ग का है। बात एक ब्यूटी पार्लर में चल रही थी। दुलहन के मेकअप का बिल पचास हजार का था और उसके साथ आई लड़कियों का अलग से। वो बात कर रही थीं कि पंजाब में केजरीवाल आएंगे तो स्त्रियों को एक-एक हजार रुपए देंगे।
इसके लिए बस उन्हें मोबाइल से घंटी मारनी पड़ेगी। अब जो लड़की अपने मेकअप के लिए पचास हजार दे सकती है उसकी इस वादे में क्या रुचि रहेगी। लेकिन पंजाब के इलाके इस बात की तस्दीक करते हैं कि चाहे आपके बटुए में कितने भी पैसे हों मुफ्त का आकर्षण कभी खत्म नहीं होता है। चंडीगढ़ जैसे अपेक्षाकृत महंगे इलाकों में भी पार्लर से लेकर मॉल तक मुफ्त-मुफ्त की बातें जरूर होती हैं। पंजाब में भी हाशिए पर पड़ा ऐसा तबका है जिसके लिए ये वादे उनकी जिंदगी पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ सकते हैं। विरोधाभासों से भरे इस राज्य में आम आदमी पार्टी चर्चा में तो खूब है और वो भी अपने मुफ्त-मुफ्त के वादों को लेकर। (संकलन : मृणाल वल्लरी)