जयंतीलाल भंडारी
देश में खुदरा महंगाई दर को सात फीसद से घटा कर छह फीसद पर लाने के लिए कई और कारगर प्रयासों की जरूरत है। अभी रेपो दर में कुछ और वृद्धि करके अर्थव्यवस्था में नगदी प्रवाह को कम किया जाना उपयुक्त होगा। लेकिन केवल ब्याज दर पर ही अधिक निर्भरता नुकसानदायक हो सकती है।
डालर की तुलना में रुपया ऐतिहासिक रूप से कमजोर है। 17 अगस्त को एक डालर की कीमत 79.50 के स्तर पर पहुंच गई थी। चिंताजनक तो यह कि रुपए में अभी और गिरावट की आशंका है। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद अब चीन-ताइवान तनाव और वैश्विक आर्थिक मंदी के खतरे के बीच रुपए की कीमत में बड़ी गिरावट के कारण जहां भारतीय अर्थव्यवस्था की मुश्किलें बढ़ रही हैं, वहीं आर्थिक विकास की योजनाएं भी प्रभावित हो रही हैं। इतना ही नहीं, असहनीय महंगाई से जूझ रहे आम आदमी की चिंताएं भी बढ़ती जा रही हैं।
डालर के मुकाबले रुपए के कमजोर होने का प्रमुख कारण बाजार में डालर की मांग बहुत ज्यादा हो जाना है। वर्ष 2022 की शुरुआत से ही विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआइआइ) भारतीय बाजारों से पैसा निकालने में लगे हैं। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरों में खासा इजाफा कर दिया है। दुनिया के कई विकसित देशों के केंद्रीय बैंक भी इसी रास्ते पर चल रहे हैं। बैंक आफ इंग्लैंड ने भी सत्ताईस साल बाद चार अगस्त को सबसे अधिक ब्याज दर बढ़ाई है। ऐसे में भारतीय शेयर बाजार में निवेश करने के इच्छुक निवेशक अमेरिका सहित अन्य विकसित देशों में अपने निवेश को ज्यादा लाभप्रद और सुरक्षित मान रहे हैं और इसीलिए भारत से पैसा निकाल कर अमेरिका व दूसरे विकसित देशों में निवेश कर रहे हैं।
गौरतलब है कि अभी भी दुनिया में डालर सबसे मजबूत मुद्रा है। दुनिया का करीब पिच्यासी फीसद कारोबार डालर में होता है। दुनिया के उनतालीस फीसद कर्ज डालर में दिए जाते हैं। इसके अलावा कुल डालर का करीब पैंसठ फीसद उपयोग अमेरिका के बाहर होता है। चूंकि भारत अपनी कच्चे तेल की करीब पचासी फीसद जरूरतों के लिए आयात पर निर्भर है, इसलिए डालर की अहमियत भारत के लिए भी काफी ज्यादा है। रूस-यूक्रेन युद्ध के मद्देनजर कच्चे तेल और अन्य वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी की वजह से भारत को डालर ज्यादा खर्च करने पड़ रहे हैं।
साथ ही देश में कोयला, उवर्रक, वनस्पति तेल, दवा निर्माण के कच्चे माल, रसायन आदि का आयात लगातार बढता जा रहा है, ऐसे में डालर की जरूरत भी बढ़ती जा रही है। स्थिति यह है कि भारत जितना निर्यात करता है, उससे अधिक वस्तुओं और सेवाओं का आयात करता है। इससे देश का व्यापार संतुलन लगातार प्रभावित हो रहा है। एसबीआइ की इको रैप रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2022-23 के अप्रैल से जुलाई के चार महीनों में भारत का व्यापार घाटा सौ अरब डालर के रेकार्ड स्तर पर पहुंच गया है।
सरकार ने खुद यह स्वीकार किया है कि दिसंबर 2014 से अब तक देश की मुद्रा में पच्चीस फीसद तक गिरावट आ चुकी है। इस वर्ष पिछले सात महीनों में ही रुपया करीब सात फीसद तक लुढ़क चुका है। फिर भी अन्य कई विदेशी मुद्राओं की तुलना में रुपए बेहतर स्थिति में है। ब्रिटिश पाउंड, जापानी येन और यूरो जैसी विदेशी मुद्राओं की तुलना में रुपए की स्थिति मजबूत है। इसका कारण भारत में राजनीतिक स्थिरता, भारत से बढ़ते निर्यात, विकास दर वृद्धि की संभावनाएं, पर्याप्त खाद्यान्न भंडार जैसे कारण भी रहे हैं।
रुपया कमजोर होने का एक असर देश में बढ़ती महंगाई के रूप में सामने आया है। हाल में प्रकाशित महंगाई के आंकड़ों के मुताबिक जून 2022 में थोक महंगाई दर 15.18 फीसद और खुदरा महंगाई दर 7.01 फीसद के चिंताजनक स्तर पर पाई गई। पांच अगस्त को ब्याज दरें और बढ़ाने के मौद्रिक नीति समिति के फैसले का एलान करते हुए आरबीआइ के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा भी था कि देश में अभी भी महंगाई की दर ऊंची बनी हुई है। बढ़ती महंगाई पर नियंत्रण के लिए ही एक बार फिर से रेपो रेट में पचास आधार अंकों की बढ़ोतरी की गई है। महंगाई को अभी और नियंत्रित करने के मद्देनजर रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति की सितंबर में होने वाली बैठक में रेपो दर में 35-40 आधार अंकों की और बढ़ोतरी की जा सकती है।
इस समय देश में खुदरा महंगाई दर को सात फीसद से घटा कर छह फीसद पर लाने के लिए कई और कारगर प्रयासों की जरूरत है। अभी रेपो रेट में कुछ और वृद्धि करके अर्थव्यवस्था में नगदी प्रवाह को कम किया जाना उपयुक्त होगा। लेकिन केवल ब्याज दर पर अधिक निर्भरता हानिप्रद हो सकती है। अधिक रेपो रेट बढ़ाने में उपभोक्ता और कारपोरेट दोनों प्रभावित होंगे, मांग घटेगी और इसका अर्थव्यवस्था भी प्रतिकूल असर करेगा। ऐसे में सबसे जरूरी यह है कि देश से निर्यात बढ़ाए जाए और आयात नियंत्रित किए जाएं। निसंदेह कमजोर होते रुपए की स्थिति से सरकार और रिजर्व बैंक दोनों चिंतित हैं और इस चिंता को दूर करने के लिए यथोचित कदम भी उठा रहे हैं।
आरबीआइ ने कहा है कि अब वह रुपए की विनिमय दर में तेज उतार-चढ़ाव की अनुमति नहीं देगा। उसका कहना है कि विदेशी मुद्रा भंडार का उपयुक्त उपयोग रुपए की गिरावट को थामने में किया जाएगा। 29 जुलाई को समाप्त सप्ताह में देश का विदेशी मुद्रा भंडार करीब पांच सौ तिहत्तर अरब डालर रह गया है। अब आरबीआइ ने विदेशों से विदेशी मुद्रा का प्रवाह देश की ओर बढ़ाने और रुपए में गिरावट को थामने, सरकारी बांड में विदेशी निवेश के मानदंड को उदार बनाने और कंपनियों के लिए विदेशी उधार सीमा में वृद्धि सहित कई उपायों की घोषणा की है। ऐसे उपायों से एफआइआइ पर अनुकूल असर पड़ा है और उनकी कुछ-कुछ वापसी भी देखी जा रही है।
यकीनन इस समय रुपए की कीमत में गिरावट को रोकने के लिए और अधिक उपायों की जरूरत है। इस समय डालर के खर्च में कमी और डालर की आवक बढ़ाने के रणनीतिक उपाय जरूरी हैं। अब रुपए में वैश्विक कारोबार बढ़ाने अवसर तलाशने होंगे। पिछले महीने रिजर्व बैंक ने भारत और अन्य देशों के बीच व्यापारिक सौदों का निपटान रुपए में किए जाने संबंधी महत्त्वपूर्ण कदम भी उठाया है। इससे भारतीय निर्यातकों और आयातकों को अब व्यापार के लिए डालर की अनिवार्यता नहीं रहेगी। साथ ही अब दुनिया का कोई भी देश भारत से सीधे बिना अमेरिकी डालर के व्यापार कर सकता है। इसका एक फायदा यह भी होगा कि डालर संकट का सामना कर रहे रूस, संयुक्त अरब अमीरात, इंडोनेशिया, श्रीलंका, ईरान, एशिया और अफ्रीका सहित कई छोटे-छोटे देशों के साथ भारत का विदेश व्यापार तेजी से बढ़ेगा, भारतीय रुपया भी मजबूत होगा, भारत का व्यापार घाटा कम होगा और विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ेगा।
जिस तरह चीन और रूस जैसे देशों ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डालर के वर्चस्व को तोड़ने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं, उसी तरह अब आरबीआइ के निर्णय से भारत की बढ़ती वैश्विक स्वीकार्यता के कारण रुपए को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में स्थापित करने में भी मदद मिल सकती है। इस समय जब दुनिया रूस और अमेरिकी-यूरोपीय खेमों में बंटती हुई दिखाई दे रही है, तब भारत को अपनी वैश्विक स्वीकार्यता के मद्देनजर दोनों ही खेमों के विभिन्न देशों में विदेश व्यापार बढ़ाने की संभावनाएं तलाशनी चाहिए। व्यापार में प्रवासी भारतीयों की भूमिका भी बढ़ानी होगी। उत्पाद और सेवा निर्यात बढ़ने से भी विदेशी मुद्रा की आवक बढ़ेगी और देश की आर्थिक मुश्किलें कम होंगी।