योगेश कुमार गोयल

यह बेहद चिंताजनक स्थिति है कि भारत उन देशों में है, जहां एक आम नागरिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अपनी जेब से सर्वाधिक पैसा खर्च करता है और इसमें सबसे ज्यादा पैसा दवाएं खरीदने पर खर्च होता है। नागरिकों को मिलने वाली स्वास्थ्य सेवाओं का अठहत्तर फीसद हिस्सा निजी अस्पतालों और डाक्टरों के माध्यम से ही मिल रहा है। देश के करीब अस्सी फीसद नागरिकों के पास कोई भी स्वास्थ्य बीमा नहीं है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्लूएचओ दुनिया के सभी देशों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर आपसी सहयोग और मानक विकसित करने वाली वैश्विक संस्था है, जिसका प्रमुख काम दुनिया भर में स्वास्थ्य समस्याओं पर नजर रखना और उन्हें सुलझाने में सहयोग करना है। इस संस्था ने ‘स्माल पाक्स’ जैसी बीमारी को जड़ से खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और टीबी, एड्स, पोलियो, रक्ताल्पता, नेत्रहीनता, मलेरिया, सार्स, मर्स, इबोला जैसी खतरनाक बीमारियों के बाद कोरोना की रोकथाम में जुटी रही है।

इस संस्था के माध्यम से प्रयास किया जाता है कि दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से पूर्ण स्वस्थ रहे। इसका पहला लक्ष्य वैश्विक स्वास्थ्य सुधार रहा है, लेकिन इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह सुनिश्चित किया जाना बेहद जरूरी है कि समुदाय में सभी लोगों को अपेक्षित स्वास्थ्य सुविधाएं मिलें।

मगर कोरोना विषाणु के सामने जब अमेरिका जैसे विकसित देश को भी बेबस देखा गया और वहां स्वास्थ्य कर्मियों के लिए जरूरी सामान की भारी कमी नजर आई, तब पूरी दुनिया को अहसास हुआ कि अब भी जन-जन तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन खुद मानता है कि दुनिया की कम से कम आधी आबादी को आज भी आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं।

हालांकि बीते दशकों में नवीनतम तकनीकों की बदौलत स्वास्थ्य क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आया है, लेकिन एड्स, कैंसर जैसी घातक बीमारियों के अलावा जिस प्रकार लोगों में हृदय रोग, मधुमेह, तपेदिक, मोटापा, तनाव जैसी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं, उसमें स्वास्थ्य क्षेत्र की चुनौतियां निरंतर बढ़ रही हैं। जहां तक भारत की बात है, विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार यहां प्रतिवर्ष 58 लाख लोगों की मृत्यु कैंसर, मधुमेह, पक्षाघात, हृदय रोग और फेफड़ों की बीमारियों के कारण होती है, जो विश्व में सर्वाधिक है।

हालांकि सरकार का दावा है कि आने वाले वर्षों में आधुनिक चिकित्सा पद्धति और तकनीक की मदद से टीबी, कैंसर तथा एड्स जैसी जानलेवा बीमारियों से बचाव के कारगर रास्ते तलाश लिए जाएंगे और लोग स्वस्थ जीवन जीने लगेंगे। मगर विशेषज्ञों के मुताबिक आने वाले समय में कुछ बीमारियां बड़ी परेशानी बन कर उभरेंगी।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आइएमए) के अनुसार देश में सिरोसिस के मरीजों की संख्या बढ़ रही है, इसके अलावा टायफाइड जैसी जलजनित और संक्रामक बीमारियों पर काबू पाने की बड़ी चुनौती है। वर्तमान में देश में बुजुर्गों की आबादी करीब चार फीसद है, जिसके 2050 तक चौदह फीसद तक बढ़ने की उम्मीद है। ऐसे में डिमेंशिया यानी स्मृतिभ्रंश जैसी बीमारी बड़े पैमाने पर उभर सकती है।

माना जा रहा है कि डिमेंशिया के मरीजों की संख्या इस दौरान 197 फीसद तक बढ़ सकती है। इन परिस्थितियों में वृद्धों को घरेलू देखभाल के लिए विशेष सेवाओं की बड़े पैमाने पर जरूरत पड़ेगी। 2050 तक देश में उन्नीस करोड़ से भी ज्यादा हृदय रोगी होने का अनुमान लगाया जा रहा है। इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में मधुमेह रोगियों की संख्या 2030 तक 10.1 करोड़ और 2045 तक 13.42 करोड़ हो सकती है। इसी प्रकार करीब 29.3 फीसद लोग उच्च रक्तचाप की समस्या से पीड़ित हैं, जिनकी संख्या बढ़कर 69.3 फीसद तक हो सकती है।

आक्सफैम इंटरनेशनल के असमानता को लेकर जारी सूचकांक के अनुसार भारत जीडीपी के हिसाब से अपने नागरिकों के स्वास्थ्य पर खर्च करने के मामले में 161 देशों के मुकाबले 157वें स्थान पर है। स्वास्थ्य पर किए जाने वाले खर्च के मामले में भारत ब्रिक्स देशों और अपने पड़ोसी देशों पाकिस्तान (4.3 फीसद), बांग्लादेश (5.19 फीसद), श्रीलंका (5.88 फीसद), नेपाल (7.8 फीसद) आदि से बहुत पीछे है।

अमेरिका अपनी जीडीपी का 16.9, जर्मनी 11.2, जापान 10.9, कनाडा 10.7, यूके 9.8 और आस्ट्रेलिया 9.3 फीसद स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करते हैं। भारत में बच्चों में वेस्टिंग (ऊंचाई के अनुसार कम वजन) की वर्तमान स्थिति 19.3 फीसद पर है, जो वर्ष 2000 के 17.15 फीसद से भी खराब अवस्था में है। देश के एक चौथाई बच्चे आज भी टीकाकरण कार्यक्रम से वंचित हैं।

इस साल केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य के लिए कुल वित्तीय आबंटन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 2.1 प्रतिशत रखा गया है, जबकि नीति आयोग, ग्रामीण सांख्यिकी, नेशनल मेडिकल काउंसिल के आंकड़ों के मुताबिक जीडीपी का 2.5 फीसद से ज्यादा स्वास्थ्य पर खर्च करने की जरूरत है। विभिन्न आंकड़ों के मुताबिक देश में 543 मेडिकल कालेज हैं, जबकि कम से कम 600 मेडिकल कालेज, 50 एम्स तथा 200 सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों की आवश्यकता है। कुल 810 जिला अस्पताल (डीएच) तथा 1193 उपमंडल अस्पताल (एसडीएच) हैं।

2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार साठ फीसद प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में केवल एक डाक्टर उपलब्ध है, जबकि पांच फीसद में एक भी डाक्टर नहीं है। करीब बत्तीस फीसद ग्रामीणों को नजदीक के किसी अस्पताल तक जाने के लिए आज भी कम से कम पांच किलोमीटर चलना पड़ता है।

केंद्र की गत वर्ष ग्रामीण स्वास्थ्य रिपोर्ट में बताया गया था कि ग्रामीण क्षेत्रों के पांच हजार से भी ज्यादा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में बाईस हजार विशेषज्ञ डाक्टरों की जरूरत है, जबकि स्वीकृत पद 13637 ही हैं और इनमें अब भी 9268 पदों पर नियुक्ति नहीं है। रिक्त पदों को लेकर कई राज्यों में तो स्थिति बेहद दयनीय है। जहां 2005 में विशेषज्ञ डाक्टरों की 46 फीसद कमी थी, वह अब 68 फीसद हो चुकी है।

ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशिक्षित डाक्टरों के अलावा नर्सिंग स्टाफ, रेडियोग्राफर, लैब टेक्नीशियन आदि सहयोगी मेडिकल स्टाफ की भी काफी कमी है। ग्रामीण भारत में प्रति सत्तर हजार आबादी पर सरकारी अस्पतालों में डब्लूएचओ के अनुशंसित स्तर से बेहद कम, मात्र 3.2 बिस्तर हैं। ग्रामीण स्वास्थ्य देखभाल को लेकर ऐसी सरकारी उदासीनता अत्यधिक चिंताजनक है और चिंता की बात है कि डब्लूएचओ तथा यूनिसेफ जैसी संस्थाओं द्वारा भी इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास होता नहीं दिख रहा। हालांकि, सार्वभौमिक, सस्ती और गुणवत्तायुक्त स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सरकार द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, आयुष्मान भारत जैसे कुछ कार्यक्रमों के माध्यम से सकारात्मक पहल की जा रही है।

2018 में लांसेट जर्नल में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में करीब चौबीस लाख लोग हर साल केवल इसीलिए मर जाते हैं, क्योंकि उन्हें खराब स्वास्थ्य सेवाएं मिलती हैं। आठ लाख से ज्यादा लोगों की मौत स्वास्थ्य सेवाओं की अपर्याप्तता के कारण हो जाती है। यह बेहद चिंताजनक स्थिति है कि भारत उन देशों में है, जहां एक आम नागरिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अपनी जेब से सर्वाधिक पैसा खर्च करता है और इसमें सबसे ज्यादा पैसा दवाएं खरीदने पर खर्च होता है।

नागरिकों को मिलने वाली स्वास्थ्य सेवाओं का अठहत्तर फीसद हिस्सा निजी अस्पतालों और डाक्टरों के माध्यम से ही मिल रहा है। देश के करीब अस्सी फीसद नागरिकों के पास कोई भी स्वास्थ्य बीमा नहीं है। ऐसे में समझा जा सकता है कि सामान्य आम नागरिक के लिए सस्ते और कारगर इलाज की सुविधा मिलना कितना मुश्किल है।

हाल ही में सरकार ने माना है कि स्वास्थ्य सेवाओं की असमानता दूर करने और स्वास्थ्य देखभाल संबंधी नब्बे फीसद जरूरतों को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के माध्यम से दूर किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि इन स्वास्थ्य केंद्रों की कमी को दूर करने के गंभीर प्रयास करते हुए डाक्टरों की भारी कमी को भी दूर किया जाए।