राष्ट्रीय आम सहमति के आधार पर बनी आरक्षण की राह पर भारतीय राजनीति लंबे समय से चलना सीख गई है। उसने तमाम सामाजिक असहमतियों और असंतोष के बावजूद इस मार्ग पर चलने और इसी पर तेज दौड़ने का एक कौशल विकसित किया है। इसके बावजूद यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि आरक्षण के विरोध और समर्थन की गुजराती राह सबसे खतरनाक फिसलन वाली है। जिस तरह अमदाबाद में पटेलों की आरक्षण-रैली के बाद गुजरात के कुछ शहरों में हिंसा हुई है और कर्फ्यू लगाना पड़ा है और ओबीसी आरक्षण में पहले से शामिल राबड़ा, भारवाड़ और ठाकोर समुदाय के लोगों से पटेलों का टकराव भी हुआ है उससे अस्सी और नब्बे के दशक के हिंसक गुजरात की याद ताजा होने लगी है। आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल के गुजरात बंद के आह्वान से राज्य सरकार की नींद और हराम होने लगी है और नए किस्म के टकराव की आशंकाएं पैदा होने लगी हैं।
बाईस वर्ष के हार्दिक पटेल का तब जन्म ही नहीं हुआ था जब 1981 और 1985 में पटेल बिरादरी ने अन्य सवर्ण जातियों के साथ मिल कर कांग्रेस के आरक्षण-प्रस्तावों का जबर्दस्त विरोध किया था। तब यही आरक्षण विरोधी आंदोलन दलितों, आदिवासियों, क्षत्रियों जैसी अन्य पिछड़ी जातियों पर हमले के रूप में हिंसक हुआ और बाद में उसकी परिणति मुसलमानों पर हमले के रूप में हुई। वही गुजरात के हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनने की आधुनिक शुरुआत थी और उसी के बाद उसने महात्मा गांधी और पटेल के रास्ते से तकरीबन मुंह फेर लिया।
आज पटेलों के सबसे ताकतवर समूह से निकाले जाने और राज्य की भाजपा सरकार की तरफ से एफआइआर झेल रहे बीकाम पास सबमर्सिबल पंप के छोटे व्यवसायी और युवा नेता हार्दिक पटेल का गुस्सा उन्हें कहां तक ले जाएगा, कहना मुश्किल है। लेकिन जिस बड़ी तादाद में अमदाबाद में पटेल समुदाय इकट्ठा हुआ उससे साफ जाहिर है कि वह महज आर्थिक और राजनीतिक ताकत से संतुष्ट नहीं है और उसे शिक्षा और सरकारी नौकरियों पर काबिज होने की उत्कट इच्छा है। यह एक प्रकार की अस्मिता की भी लड़ाई है, जिसे आंकड़ों से समझा पाना कठिन है।
यह कह देना आसान है कि पटेल समुदाय भारत से लेकर अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका तक में तमाम व्यवसायों पर काबिज है और उसके असंतुष्ट होने का कोई कारण समझ में नहीं आता। आंकड़े कहते हैं कि राजकोट और उसके आसपास की बारह हजार औद्योगिक इकाइयों में से चालीस फीसद इकाइयों, सूरत के हीरा उद्योग की सत्तर फीसद इकाइयों पर और मोरबी के आसपास के सिरामिक्स उद्योग के निन्यानबे प्रतिशत हिस्से और अमेरिका के राजमार्गों के मोटल व्यवसाय के सत्तर प्रतिशत हिस्से पर पटेलों का कब्जा है। अमेरिका के दो करोड़ बीस लाख एनआरआइ में पैंतीस प्रतिशत पटेल हैं। लंदन और न्यूयार्क की टेलीफोन डायरेक्टरी में पटेलों के नाम भरे रहते थे। गुजरात में ही मुख्यमंत्री, सात वरिष्ठ मंत्री, राज्य भाजपा अध्यक्ष, छह सांसद और चौवालीस विधायक पटेल समुदाय के ही हैं।
फिर इतना असंतोष क्यों है? जाहिर है इसकी व्याख्या वर्ग संघर्ष के सिद्धांत से नहीं हो सकती। निश्चित तौर पर इस असंतोष के पीछे कोई राजनीति तो है ही, चाहे वह कांग्रेस की हो या भाजपा के भीतर ही एक खास गुट की दबाव की राजनीति हो। लेकिन मामला इतना ही नहीं है। इस असंतोष के पीछे चमकते गुजरात की कड़वी हकीकत है जो कि लेउवा और अंजना पटेल की आपसी खींचतान के बावजूद उन्हें किसी न किसी रूप में जोड़ रही है।
हार्दिक पटेल तो अपने को देश के अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों जैसे कि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू और अपनी जैसी अन्य जातियों जैसे कि कुर्मियों से जोड़ कर समर्थकों का बड़ा दायरा भी तैयार कर रहे हैं। संयोग से नीतीश कुमार ने उन्हें समर्थन भी दे दिया है। इस बीच उन्हें ‘आप’ का समर्थक भी बताया जा रहा है जिससे लगता है कि यह भाजपा के जनाधार को उसी तरह से चुनौती देने की कोशिश है जिस तरह कभी भाजपा ने कांग्रेस के जनाधार को चुनौती दी थी। लेकिन इस असंतोष की अपनी आर्थिक हकीकत भी है।
इस असंतोष के पीछे गुजरात मॉडल का वह अंधेरा पक्ष है जिसे पहले मोदी की राज्य सरकार वाइब्रेंट गुजरात के नारे के भीतर और अब केंद्र सरकार अच्छे दिन के नारे के भीतर छिपा लेती है। गुजरात में पंजीकृत 2.61 लाख छोटी और लघु औद्योगिक इकाइयों में अड़तालीस हजार बीमार हैं। जाहिर है, इनमें काम करने वाले इक्कीस लाख कर्मचारियों में पटेलों का अपना हिस्सा है। इसी तरह हीरा तराशने वाली सूरत की पटेलों की औद्योगिक इकाइयों में से डेढ़ सौ बंद हो गई हैं।
इससे पंद्रह हजार लोगों की छंटनी हुई है। आज पटेलों के असंतोष के पीछे यह औद्योगिक चुनौती भी एक कारण है। जाहिर है सिर्फ यही कारण नहीं है और उनका मुख्य लक्ष्य मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में अपने युवाओं को दाखिला दिलवाना है ताकि वे विदेशों में फैले पटेलों के व्यापार में अच्छी जगह संभाल सकें। आर्थिक स्थितियों से असंतुष्ट पटेलों की सुरक्षा ढूंढ़ने की राजनीति और अपने समाज के लिए शिक्षा और श्रेष्ठ नौकरियों में जगह ढूंढ़ने की कोशिश को गलत तो नहीं कहा जा सकता। लेकिन वह कोशिश जिस रास्ते से हो रही है वह भरोसेमंद नहीं है।
वह रास्ता संवैधानिक व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था में बेचैनी पैदा करने वाला है और साथ ही आरक्षण के सर्वसम्मति वाले रास्ते की फिसलन की तरफ संकेत भी करता है। जो लोग यह मानते हैं कि आरक्षण की राजनीति अपनी तार्किक परिणति तक आ चुकी है, वे या तो पिछले इतिहास को भूल जाते हैं या उन सुलगते मुद््दों की तरफ ध्यान नहीं देते जो भारत की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में उथल-पुथल कर सकते हैं।
एक तरफ अन्य पिछड़ी जातियां जनसंख्या के जातिगत आंकड़े जारी होने का इंतजार कर रही हैं ताकि सरकारी नौकरियों और संसाधनों में उनकी अपनी भागीदारी को नए सिरे से परिभाषित किया जा सके। इसी के तहत कुछ सामाजिक समूह डायवर्सिटी का सिद्धांत भी प्रचारित कर रहे हैं ताकि समाज की हर जाति और बिरादरी को उसकी आबादी के हिसाब से सरकारी सेवाओं और संसाधनों में हिस्सा मिल सके। लेकिन इस बात की गारंटी नहीं है कि यही सर्वमान्य रास्ता होगा। क्योंकि यह मांग निजी क्षेत्र में भी भागीदारी तक जाती है जो कि मान्य हो पाना कठिन है।
अगर सुप्रीम कोर्ट की तरफ से आरक्षण पर लगाई गई पचास प्रतिशत की हदबंदी टूटेगी तो नए किस्म के असंतोष पैदा होंगे और वे क्या रूप लेंगे यह कहा नहीं जा सकता। आरक्षण की मांग जाटों में भी सुगबुगा रही है और गुर्जर समुदाय तो अनुसूचित जनजाति होने के लिए संघर्ष कर ही रहा है।
दूसरी तरफ विडंबना यह है कि आज का सवर्ण समाज जो कि सकारात्मक भेदभाव (अफर्मेटिव एक्शन) या समाज के गरीब तबकों के लिए खाद बनने वाले किसी समाजवादी सिद्धांत में आस्था नहीं रखता, वह किस प्रकार की प्रतिक्रिया करेगा यह कहा नहीं जा सकता। यह भी निश्चित नहीं है कि वह प्रतिक्रिया भाजपा के हिंदुत्व में ही जाकर समाप्त हो जाएगी।
बहुत संभव है कि गुजरात भाजपा को इस बात का विश्वास हो कि वह सरदार पटेल ग्रुप (एसपीजी) से निकाले गए हार्दिक पटेल के खिलाफ काम करने वाले समुदाय के अन्य लोगों के माध्यम से इस आंदोलन को विभाजित करके इसकी हवा निकाल दे। लेकिन जिस तरह से इस आंदोलन का समर्थन बढ़ा है और इसके साथ ही दलितों और अन्य जातियों के खिलाफ नारेबाजी हुई है उससे गुजरात में नए किस्म का जातिगत तनाव बनता हुआ दिखाई पड़ रहा है। दूसरी तरफ पटेल समुदाय न तो यह समझने को तैयार है और न ही हमारे राजनीतिक दल यह समझाने को तैयार हैं कि जिस समुदाय की भूख बाजार से शांत नहीं हुई, सरकार में चंद नौकरियों से कैसे शांत होगी।