सुशील कुमार सिंह

सेवा का कोई भी क्षेत्र हो, अधिक विविध होने से संभावनाएं बड़ी होती हैं। न्यायपालिका में भी महिलाओं की संख्या अपेक्षानुरूप होना बदलाव को न केवल दृष्टिगोचर करेगा, बल्कि लैंगिक रूढ़िवादिता को भी दूर करने में यह मददगार सिद्ध होगा।

अपने जीवनकाल में महिलाओं के अधिकारों, मतदान के अधिकारों और सभी के लिए समान अधिकारों के लिए लड़ाई में संलग्न अमेरिकी उच्चतम न्यायालय की महिला न्यायाधीश रहीं रूथ वेदर गिन्सबर्ग से जब एक बार पूछा गया था कि अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय में कितनी महिला न्यायाधीश पर्याप्त होंगी, तब उन्होंने कहा कि मुझे तब संतोष होगा कि जब अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में सभी नौ न्यायाधीश महिलाएं होंगी।

गौरतलब है कि साल 2020 में अपनी मृत्यु तक उन्होंने सत्ताईस वर्ष अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय में अपनी सेवाएं दी। विदित हो कि अमेरिका की शीर्ष अदालत में एक मुख्य न्यायाधीश समेत नौ न्यायाधीश होते हैं, जबकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में यही संख्या चौंतीस है। भारत स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के दौर में है। पचहत्तर साल की आजादी के इस दरमियान महिला सशक्तिकरण को लेकर विविध क्षेत्रों में कार्य किए गए।

सिविल सेवा, पुलिस सेवा, इंजीनियर, डाक्टर, सेना और न्यायिक सेवा समेत विविध क्षेत्रों में महिलाओं की उपस्थिति बाकायदा देखी जा सकती है। मगर इस कसक के साथ कि उच्च और उच्चत्तम न्यायालय में महिलाओं के लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व का प्रयास बड़ा आकार नहीं ले पाया।

सर्वोच्च न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश के पद पर अभी तक किसी महिला न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं हुई है। हालांकि न्यायाधीश के रूप में कई महिलाएं नियुक्त हो चुकी हैं और इस बार कालेजियम ने तीन महिला न्यायाधीशों को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त करके एक बड़ी पहल की है। संभव है कि 2027 तक देश को पहली महिला प्रधान न्यायाधीश मिले।

गौरतलब है कि वर्ष 1989 में न्यायमूर्ति एम फातिमा बीबी सर्वोच्च न्यायालय की पहली न्यायाधीश बनी थीं। वे केरल न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुई थीं। यह सही है कि विविधता सकारात्मक परिवर्तन को बढ़ावा देती है। सेवा का कोई भी क्षेत्र हो, अधिक विविध होने से संभावनाएं बड़ी होती हैं। न्यायपालिका में भी महिलाओं की संख्या अपेक्षानुरूप होना बदलाव को न केवल दृष्टिगोचर करेगा, बल्कि लैंगिक रूढ़िवादिता को भी दूर करने में यह मददगार सिद्ध होगा।

न्यायपालिका के सभी स्तरों पर महिलाओं के लिए पचास फीसद आरक्षण के लिए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना का आह्वान सराहनीय है, मगर वस्तुस्थिति यह है कि सर्वोच्च न्यायालय में अब तक ग्यारह महिला न्यायाधीश की नियुक्ति हुई है, जबकि उच्च न्यायालयों में यह अनुपात लगभग 11.5 फीसद है। अधीनस्थ न्यायालयों में यही आंकड़ा 30 फीसद है।

इसी तर्ज पर देश में कुल अधिवक्ताओं में से महज पंद्रह फीसद महिला अधिवक्ता हैं। जाहिर है, अभी इस क्षेत्र में कई बड़े कदम की आवश्यकता है। गौरतलब है कि देश में बढ़ते विधि विश्वविद्यालयों और कालेजों की संख्या और उनमें कानून की पढ़ाई में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। विधि स्कूल की कक्षाओं में महिलाएं पुरुषों से आगे भी निकल रही हैं। मगर एक रास्ता तेजी से कारपोरेट क्षेत्र की ओर भी जाता है।

महिला प्रतिनिधित्व बढ़ने से न्यायपालिका को कहीं अधिक सकारात्मक और अधिक समावेशी चेहरे की ओर ले जाया जा सकता है और न्याय के क्षेत्र में इनकी प्रतिभा का बाकायदा उपयोग भी संभव होगा। समाज में एक शक्तिशाली संदेश यह भी है कि महिलाओं की उपस्थिति से जनता का विश्वास और वैधता के साथ अनुशासन को बड़ा किया जा सकता है। यह नैतिक रूप से समाज को इस बात के लिए सशक्त बना देगा कि यहां पितृसत्तात्मक ढांचे जैसी कई बात नहीं है। इससे आर्थिक न्याय के साथ-साथ व्यापक सामाजिक न्याय भी सुनिश्चित करने में सहायता मिलेगी।

गौरतलब है कि महिला सशक्तिकरण दशकों से किया जा रहा ऐसा प्रयास है जिसमें सरकारें हमेशा चिंतित रही हैं। सुशासन की परिपाटी में भी महिला सशक्तिकरण एक ऐसी आहट रही, जिन्हें सामाजिक-आर्थिक न्याय देकर मुख्यधारा में लाना रहा है। लोक केंद्रित अवधारणा के अंतर्गत अवसर की उपादेयता और उन्हें हाशिये से समतामूलक दृष्टिकोण के तहत पूरा मौका देना भी सशक्तिकरण का आयाम है। वर्तमान दौर तो सभी दिशाओं में महिलाओं के होने का सूचक है। ऐसे में न्यायपालिका के भीतर उनके प्रवेश को प्रोत्साहित करना इसी दिशा में उठाया गया एक मजबूत कदम कहा जाएगा।

संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत देखें तो अनुच्छेद 15, 15(3), 16, 39(क) के अंतर्गत समाज में लैंगिक न्याय प्राप्त करने का प्रयास किया गया है। जाहिर है, न्यायपालिका में महिलाओं को बड़ी भागीदारी देकर इस मामले में पथ और समतल किया जा सकता है। एक बड़ा सच यह है कि न्यायपालिका में महिलाओं की उपस्थिति को लेकर बातें बड़ी शिद्दत से समझी और कही जा रही हैं, मगर हैरत इस बात पर भी है कि बीते पचहत्तर सालों में संसद और राज्य की विधानसभाओं में महिलाओं को तैंतीस फीसद आरक्षण देने की हिम्मत भी अब तक की सरकारें नहीं जुटा पाई हैं। जबकि सभी राजनीतिक दल मंचों पर खड़े होकर इसका समर्थन जरूर करते हैं।

हालांकि बदलते दौर के अनुपात में महिला शिक्षा और विधि क्षेत्र में उनका दखल तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में न्यायिक क्षेत्र में उनका अधिक होना देर-सवेर संभव है। इसके अलावा, महिलाओं को दिए गए आरक्षण की परिपाटी ने भी न्यायिक सेवा में उनकी पहुंच को बढ़ाया है। असम, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओड़ीशा और राजस्थान जैसे राज्यों में आरक्षण से लाभ हुआ है। यहां चालीस से पचास फीसद महिला अधिकारी देखी जा सकती हैं।

इस बात को भी शिद्दत से समझने की आवश्यकता है कि यह समय की मांग और अपरिहार्यता भी है कि महिलाओं को न्यायपालिका में व्यापक प्रवेश देकर उनके साथ भी न्याय किया जाए। यों देखा जाए तो अमेरिका की न्यायपालिका में भी महिलाओं को लेकर बहुत सकारात्मक आंकड़े नहीं दिखाई देते। हालांकि प्रत्येक देश की अपनी सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति के साथ शासकीय और न्यायिक दृष्टिकोण होते हैं।

दरअसल, न्यायपालिका मुकदमों के बोझ के तले दबी है और निचली अदालतों में चार करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं। प्रधानमंत्री और कई मुख्य मंत्रियों की उपस्थिति में साल 2022 में एक सम्मेलन में बोलते हुए तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि अदालतें जजों की कमी से जूझ रही हैं और दस लाख लोगों पर बीस न्यायाधीश हैं, जो बढ़ती मुकदमेबाजी को संभालने के लिए नाकाफी हैं। उधर चौबीस हजार पद खाली हैं।

इसमें निहित परिप्रेक्ष्य यह भी है कि पदों की भरपाई के चलते न केवल न्यायिक प्रक्रिया में शीघ्रता आएगी, बल्कि न्यायपालिका में महिलाओं की उपस्थिति भी तुलनात्मक बढ़त लेगी। कानून के शासन की अभिव्यक्ति इस मुहावरे से होती है कि कोई भी व्यक्ति कानून से बड़ा नहीं, मगर जब इसी कानून से समय से न्याय मिलने की अपेक्षा हो और उसमें मामला लंबित हो जाए तो इसकी कीमत वे विचाराधीन कैदी चुकाते हैं जो न्याय की बाट जोह रहे हैं। यह तब अधिक समस्या बन जाता है, जब न्यायपालिका में पद रिक्त हों और मुकदमों का अंबार लगा हो।

फिलहाल न्यायिक क्षेत्र में बढ़ती लोगों की आवश्यकता, मुकदमों और विचाराधीन लाखों कैदी जो न्याय की ओर मुंह ताक रहे हैं, उन सभी के लिए एक ही सुगम रास्ता है कि न्यायपालिका हर लिहाज से दुरुस्त हों। पद खाली न रहे, प्रक्रिया सरल हो, न्याय और सुलभ हो साथ ही कम खर्चीला हो। इसके अलावा महिलाओं की उपस्थिति को और बेहतर बनाकर उनकी प्रतिभा का उपयोग कर मुकदमे की बाढ़ को थामने का प्रयास किया जा सकता है।

देश के विकास में सभी का योगदान है और सकल घरेलू उत्पाद अगर घाटे में रहेगा तो किसी भी संस्था के लिए सही नहीं है। सुशासन की दृष्टि और लोकतांत्रिक मूल्यों के अंतर्गत और आखिर महिला सशक्तिकरण के पैमाने पर देखा जाए तो न्यायपालिका में महिलाओं की संतुलित पहुंच हर लिहाज से बेहतर ही साबित होगा।