एकीकरण के बाद भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पूंजी की कमी का सामना करना पड़ेगा। परिचालन व दूसरे खर्चों में कटौती को सुनिश्चित करना भी आसान नहीं होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था को बैंकों के एकीकरण से तभी फायदा हो सकता है, जब बैंक-कर्ज दर सस्ती हो और कर्ज देने की गति में तेजी आए।
भारतीय स्टेट बैंक के पांच सहयोगी बैंकों- स्टेट बैंक आॅफ मैसूर, स्टेट बैंक आॅफ त्रावणकोर, स्टेट बैंक आॅफ बीकानेर एवं जयपुर, स्टेट बैंक आॅफ पटियाला, स्टेट बैंक आॅफ हैदराबाद और देश की एकमात्र महिला बैंक- के भारतीय स्टेट बैंक के साथ विलय की मंजूरी अठारह अगस्त को भारतीय स्टेट बैंक के प्रबंधन ने दे दी। इन छह बैंकों के विलय के बाद भारतीय स्टेट बैंक की कुल परिसंपत्ति जो 31 मार्च 2016 को लगभग इक्कीस लाख करोड़ थी, बढ़ कर उनतीस लाख करोड़ से भी अधिक हो जाएगी। भारतीय स्टेट बैंक के पांच सहयोगी बैंकों की दिसंबर 2015 में 6700 शाखाएं और लगभग 37000 कर्मचारी थे, वहीं भारतीय स्टेट बैंक के 31 मार्च, 2016 तक 2,93,459 कर्मचारी और 49,577 एटीएम थे, जबकि दिसंबर 2015 तक 16,700 से भी अधिक शाखाएं थीं। विलय के बाद भारतीय स्टेट बैंक के पचास करोड़ से अधिक ग्राहक, तेईस हजार से अधिक शाखाएं और अट्ठावन हजार से अधिक एटीएम हो जाएंगे।
चूंकि पहले भारतीय स्टेट बैंक के साथ स्टेट बैंक आॅफ सौराष्ट्र और स्टेट बैंक आॅफ इंदौर का विलय किया जा चुका है, इसलिए इस संबंध में किसी नए फार्मूले की जरूरत नहीं है। हां, ग्लोबल रेटिंग एजेंसी ‘मूडीज’ ने इस विलय में 1660 करोड़ रुपए खर्च आने की संभावना जताई है, जो पूंजी की कमी से जूझ रहे भारतीय स्टेट बैंक के लिए जरूर चिंता की बात है। इसके अलावा विलय को लेकर पांच सहयोगी बैंकों की यूनियनों के विरोध का सामना भी भारतीय स्टेट बैंक को करना पड़ सकता है।
माना जा रहा है कि भारतीय स्टेट बैंक के साथ उसके पांच सहयोगी बैंकों और देश के एकमात्र महिला बैंक के विलय के बाद सार्वजनिक क्षेत्र के दूसरे बैंकों के विलय की प्रक्रिया में और भी तेजी आएगी। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को आपस में मिलाकर बड़े बैंक में तब्दील करने की एक लंबी प्रक्रिया है, क्योंकि भारतीय स्टेट बैंक और उसके सहयोगी बैंकों में तकनीक, उत्पाद, पॉलिसी सहित लगभग पूरी कार्यप्रणाली में समानता व एकरूपता है। जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के दूसरे बैंकों के संदर्भ में ऐसा नहीं है। वर्ष 2003 के बाद से इस मुद््दे पर कई बार विचार किया गया, लेकिन अभी तक कोई ठोस रणनीति तैयार नहीं की जा सकी है।
वैसे तो सरकार के पास सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय के संबंध में अनेक सुझाव हैं, जिनमें सबसे व्यावहारिक सुझाव आरएस गुजराल की अध्यक्षता में बनी समिति की रिपोर्ट है। समिति ने सरकार को अपनी रिपोर्ट जनवरी, 2012 में दी थी, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को आपस में मिलाकर सात बड़े बैंक बनाने का सुझाव दिया गया था। भारत में फिलहाल सात बड़े आकार तथा पूंजी वाले बैंक जैसे भारतीय स्टेट बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, यूनियन बैंक आॅफ इंडिया, बैंक आॅफ इंडिया, सेंट्रल बैंक आॅफ इंडिया, केनरा बैंक और बैंक आॅफ बड़ौदा हैं, लेकिन सरकार का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए देश में इनसे बड़े बैंकों की जरूरत है, जिनकी पहचान विश्वस्तरीय हो।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय का रोडमैप बैंक बोर्ड ब्यूरो तैयार कर रहा है। विलय के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को छह समूहों में बांटा गया है। बैंकों के समूहों का निर्णय मानव संसाधन, ई-गवर्नेंस, आंतरिक लेखा-परीक्षा, धोखाधड़ी, सीबीएस (कोर बैंकिंग साल्यूशन) तथा वसूली को आधार बना कर लिया गया है। समूह-एक में भारतीय स्टेट बैंक, उसके पांच सहयोगी बैंक और महिला बैंक- मसलन, स्टेट बैंक आॅफ बीकानेर एंड जयपुर, स्टेट बैंक आॅफ त्रावणकोर, स्टेट बैंक आॅफ पटियाला, स्टेट बैंक आॅफ मैसूर, स्टेट बैंक आॅफ हैदराबाद व महिला बैंक हैं। समूह-दो में पंजाब नेशनल बैंक, इलाहाबाद बैंक, कारपोरेशन बैंक, ओरियंटल बैंक आॅफ कॉमर्स एवं इंडियन बैंक हैं। समूह-तीन में केनरा बैंक, सिंडीकेट बैंक, इंडियन ओवरसीज बैंक तथा यूको बैंक हैं। समूह-चार में यूनियन बैंक, आइडीबीआइ बैंक, सेंट्रल बैंक आॅफ इंडिया और देना बैंक हैं। समूह-पांच में बैंक आॅफ इंडिया, आंध्रा बैंक, बैंक आॅफ महाराष्ट्र एवं विजया बैंक हैं। समूह-छह में बैंक आॅफ बड़ौदा, यूनाइटेड बैंक आॅफ इंडिया और पंजाब एवं सिंध बैंक हैं।
संपत्ति की गुणवत्ता में गिरावट के चलते पिछले कुछ सालों से सरकारी क्षेत्र के बैंकों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। गैर-निष्पादित आस्तियों (एनपीए) ने सरकारी बैंकों के मुनाफे को जबर्दस्त नुकसान पहुंचाया है और बैंक पूंजी के अभाव में ऋण वितरण का कार्य नहीं कर पा रहे हैं। एनपीए और पुनर्गठित कर्ज दस लाख करोड़ से भी अधिक हो गए हैं। संक्रमण के ऐसे दौर में नए जोखिम मानकों के मुताबिक, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को दस साल में सात लाख करोड़ रुपए से अधिक राशि जुटानी होगी। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर सुब्बाराव के मुताबिक सरकारी बैंकों को आने वाले सालों में तकरीबन पांच खरब रुपए की जरूरत होगी।
इधर, सरकारी बैंकों को बासेल तृतीय के मानकों को भी पूरा करने के लिए लगभग 2.4 लाख करोड़ रुपए की जरूरत होगी। हालांकि पूंजी की कमी को दूर करने का विकल्प सरकारी बैंकों का एकीकरण कुछ हद तक हो सकता है, लेकिन इसे यूटोपिया कदापि नहीं माना जा सकता, क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को जितनी पूंजी की जरूरत है उसकी पूर्ति एकीकरण के बाद भी संभव नहीं प्रतीत होती है, क्योंकि इतनी बड़ी रकम का इंतजाम करना बैकों तथा सरकार दोनों के लिए आसान नहीं होगा। इसलिए ‘एसबीआइ कैपिटल मार्केट्स’ को बैंकों के विलय व पुनर्पूंजीकरण की संभावना तलाशने के लिए अधिकृत किया गया है।
स्टेट बैंक आॅफ सौराष्ट्र और स्टेट बैंक आॅफ इंदौर का विलय क्रमश: 2008 व 2010 में भारतीय स्टेट बैंक के साथ किया जा चुका है। सरकार उन्नीस क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों (आरआरबी) का विलय भी बीते सालों में कर चुकी है। पूर्व में हैदराबाद स्थित निजी क्षेत्र के ग्लोबल ट्रस्ट बैंक (जीटीबी) और यूनाइटेड वेस्टर्न बैंक (यूडब्लूबी) का भी क्रमश: ओरियंटल बैंक आॅफ कामर्स एवं आइडीबीआइ बैंक में विलय किया गया था। विलय के समर्थन में कहा गया था कि शाखाओं की संख्या कम होने के कारण छोटे बैंकों की परिचालन लागत अधिक है और वित्तीय संसाधनों की कमी की वजह से ऐसे बैंक, बड़े बैंकों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहे थे।
विलय के बाद मानव संसाधन स्तर पर भारी असंतोष पनपने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। स्टेट बैंक आॅफ सौराष्ट्र और स्टेट बैंक आॅफ इंदौर छोटे स्तर के बैंक थे। मानव संसाधन के योग्य और कुशल होने के बावजूद इन दोनों बैंकों के अधिकारियों के पदानुसार उनकी वरीयता में एक साल से तीन साल तक की कमी की गई। रोजगार संकट के दौर में इस तरह की विसंगति मायने नहीं रखती, पर जो अधिकारी करियर में आसमान को छूना चाहते हैं उनके सपनों का क्या होगा?
मानव संसाधन, सूचना व प्रौद्योगिकी, वेतन व भत्ते, प्रणाली आदि का एकीकरण भी आसान नहीं है। इसके अलावा यूनियन को विलय के लिए राजी करना, मानव संसाधन का फिटमेंट, विसंगति की स्थिति में क्षतिपूर्ति की व्यवस्था आदि ऐसे मुद््दे हैं जिनका समाधान ढूंढ़ना सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिए चुनौतीपूर्ण होगा। पूर्व में दो सरकारी उपक्रमों एअर इंडिया और इंडियन एअरलाइंस के विलय में सबसे बड़ा रोड़ा मानव संसाधन का एकीकरण ही रहा था। वर्तमान एअर इंडिया की बदहाली का कारण एकीकरण को ही बताया जा रहा है।
रिजर्व बैंक का मानना है कि देश में छह बड़े बैंक होने चाहिए, ताकि उनके फेल होने की संभावना न रहे। लेकिन एकीकरण के बाद भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का फलक विदेशी बैंकों से बहुत छोटा होगा, जैसे अमेरिका के आठ बैंकों की समग्र पूंजी वहां के जीडीपी का साठ प्रतिशत है, वहीं इंग्लैंड और फ्रांस के चार बैंकों की समग्र पूंजी उनके देशों के जीडीपी का तीन सौ प्रतिशत है, जबकि भारत में प्रस्तावित छह बैंकों की समग्र पूंजी देश के जीडीपी की महज एक तिहाई होगी। अमेरिका के सबसे बड़े बैंक जेपी मार्गन की पूंजी 2415 अरब डॉलर है, जो भारत के सबसे बड़े बैंक (भारतीय स्टेट बैंक) से आठ गुना ज्यादा है। साफ है, एकीकरण के बाद भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़े बैंक नहीं बन पाएंगे।
भारत जैसे देश में बड़े बैंक सफलता की गारंटी नहीं हैं। भारत के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्वरूप का ताना-बाना चीन, अमेरिका या यूरोपीय देशों से मेल नहीं खाता है। इस आलोक में बेहतर पूंजी प्रबंधन, ऋण प्रस्तावों के मूल्यांकन में गुणवत्ता का समावेश, फंसे कर्ज की वसूली के लिए ईमानदारीपूर्वक प्रयास, वसूली के मामले में बैंक अधिकारियों को प्रभावी अधिकार, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण, कुशल मानव संसाधन की ज्यादा से ज्यादा भर्ती, राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्तिआदि की मदद से कम पूंजी के बलबूते छोटे बैंक भी शानदार प्रदर्शन कर सकते हैं।
यह कहा जा सकता है कि एकीकरण के बाद भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पूंजी की कमी का सामना करना पड़ेगा। परिचालन व दूसरे खर्चों में कटौती को सुनिश्चित करना भी आसान नहीं होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था को बैंकों के एकीकरण से तभी फायदा हो सकता है, जब बैंक-कर्ज दर सस्ती हो और कर्ज देने की गति में तेजी आए। पूंजी की किल्लत बने रहने से एकीकरण के बाद भी इस दिशा में सुस्ती रहने की संभावना है। ऐसे में बैंकों के एकीकरण से अर्थव्यवस्था में गुलाबीपन आने की कोई खास संभावना नहीं दिखती।