अतुल कनक
गाड़ियों की संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ी, लेकिन सड़कों के इन्फ्रास्ट्रक्चर में उसके अनुरूप सुधार नहीं किया गया और नतीजतनसंकरी सड़कों पर अपने वाहन तेजी से निकालने की होड़ बढ़ती जा रही है। रोडरेज ही बढ़ते वाहनों का एक परिणाम होता तो कानून उससे निबटने का कोई रास्ता निकाल लेता, लेकिन जाम का क्या किया जाए?
जुलाई के अंतिम दिनों में जब राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में तेज बरसात हुई तो सड़कों पर जल भराव के कारण अनेक इलाकों में कार सवारों की गति बाधित हुई। यातायात रेंग-रेंग कर चलने लगा तो जाम की स्थिति भी बनी। हालत यह हो गई कि गुड़गांव जैसे ‘सुव्यवस्थित’ शहर में सोलह घंटों का जाम लग गया। इस जाम का असर राजस्थान की राजधानी जयपुर के आसपास के टैÑफिक तक पर देखने को मिला। इससे कुछ दिन पहले फ्रांस और जर्मनी की सीमावर्ती सड़कों पर लगे लंबे जाम ने जन-जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया था। ईद-उल-फितर के मौके पर इंडोनेशिया की सड़कों पर लगे दो दिन के जाम की खबर तो सारी दुनिया में चर्चा में रही थी। इस जाम में फंसने के कारण कुछ बीमार समय पर अस्पताल नहीं पहुंच सके और उन्होंने रास्ते में ही दम तोड़ दिया।
जाम यानी ऐसी स्थिति जिसमें न आप आगे बढ़ सकते हैं और न ही लौट कर कहीं जा सकते हैं। जाम यानी वह स्थिति जहां साथ चलते वाहनों की गति के अनुसार रेंगना आपकी भी मजबूरी हो जाती है। जाम यानी वह स्थिति जिसमें आप कितने ही जरूरी काम से क्यों न जा रहे हों, अपने आप को परिस्थितियों के हवाले कर देने के अलावा आपके पास कोई अन्य विकल्प नहीं होता। जाम में फंसने के बाद आप व्यवस्था को कोसते हुए भी यही उम्मीद करते हैं कि व्यवस्थापन ही आपको उस स्थिति से मुक्त कराने की व्यवस्था करेगा।
पश्चिम के कई देशों में जब यातायात की गति पर अवांछित अंकुश लग जाता है तो लोग अपने-अपने वाहन को रास्ते के एक ओर पार्क करके स्थिति सामान्य होने की प्रतीक्षा करते हैं, ताकि आपात सेवा वाले वाहनों को पहले निकाला जा सके। एंबुलेंस जैसे वाहनों को हर हाल में रास्ता देना इन देशों के यातायात संस्कार का एक हिस्सा है। इसकी तुलना हमारे देश के मध्यमवर्गीय शहरों के यातायात से करके देखिये। ट्रैफिक लाइट पर खड़ी कारों के बीच से भी कोई बाइक वाला आगे की ओर निकलने के लिए ऐसी छटपटाहट दिखाएगा मानो कुछ मिनट की देरी उसके हाथों से कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि छीन लेगी।
मझोले शहर के चौराहों पर ट्रैफिक पुलिसकर्मियों की उपस्थिति में जब गाड़ियों को जरा-सी जगह में ठंसा देने की होड़ लगी रहती हो, तो गाहे-ब-गाहे लगने वाले जाम के समय की हालत का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। न केवल दुपहिया वाहन चलाने वाले, बल्कि कई कार वाले भी संकरी-सी जगह से अपने वाहन को निकाल लेने का कौशल दिखाने की जिद में अपने वाहन को इस तरह आड़ा-टेढ़ा फंसा देते हैं कि ट्रैफिक सुचारुहोने पर भी वाहनों को क्षति पहुंचने की आशंका हमेशा बनी रहती है।
फ्रांस, जर्मनी या इंडोनेशिया की सड़कों पर लगने वाला जाम छोड़िए, पिछले दिनों गुड़गांव में लगा जाम भी संकेत देता है कि सड़कों पर गाड़ियों की संख्या सीमित रखने की कोशिशें समय पर शुरू नहीं हुर्इं तो सड़कों पर निकलना दूभर हो जाएगा। महानगरों में तो दो-दो, तीन-तीन घंटों का जाम सामान्य बात है, लेकिन मझोले और छोटे कहे जाने वाले शहर भी अब जाम की जद््दोजहद में उतरने को विवश हैं। इस वर्ष के फरवरी माह में राजस्थान में पटवार भर्ती परीक्षा थी। राजस्थान के कोटा शहर से आवेदन करने वाले युवाओं को बूंदी शहर और बूंदी शहर से आवेदन करने वाले युवाओं को कोटा शहर परीक्षा केंद्र के तौर पर आवंटित किया गया था।
आजकल अधिकतर परीक्षाओं में आयोजकों ने यह नीति अपना ली है। उन्हें अपने जांच-तंत्र और नकल रोकने के लिए अपनाए गए उपायों पर इतना भी भरोसा नहीं होता कि स्थानीय परीक्षार्थियों को नकल करने से रोक सकेंगे। इसलिए परीक्षार्थियों को अपने शहर से दूर किसी अन्य शहर में परीक्षा केंद्र आवंटित किया जाता है। अपने सुनहरे भविष्य की तलाश में परीक्षार्थी एक शहर से दूसरे शहर की तरफ दौड़ लगाएगा क्योंकि उसे नौकरी की तलाश है, लेकिन इस आवागमन में देश की कितनी ऊर्जा और कितने संसाधनों का अपव्यय हो रहा है, यह सोचने की फुरसत शायद नीति नियंताओं के पास नहीं है।
खैर, फिलहाल बात उस पटवार भर्ती परीक्षा की। कोटा से बूंदी की दूरी पैंतीस किलोमीटर है। अब मध्यवर्ग इतना संपन्न हो गया है कि पैंतीस किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए युवा अपने-अपने साधनों से जाना ही पसंद करते हैं। हालत यह हो गई कि बूंदी से कोटा की ओर जाने वाली सड़कों पर लंबा जाम लग गया। लोगों को तीन किलोमीटर की दूरी तय करने में दो घंटे से अधिक का समय लग गया। अब परीक्षा केंद्र समय पर पहुंचने की आतुरता के दरम्यान इस देरी ने किस किस तरह की विसंगतियों को जन्म दिया होगा, इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
लेकिन यह आतुरता तो उन युवाओं की थी, जिन्हें परीक्षा देनी थी, जिनके सामने भविष्य का सवाल था, लेकिन यदि ऐसे जाम में कोई गंभीर मरीज फंसा हो तो? उसके परिजनों की व्यग्रता को कोई कैसे माप सकता है? जिन शहरों के निवासियों के लिए जाम दिनचर्या का हिस्सा हो गया है उन्हें तो बच्चों के स्कूल से लौटने में देरी होने पर, दफ्तर समय पर नहीं पहुंच पाने पर, किसी कारोबारी काम से तय बैठक में समय पर नहीं पहुंच पाने पर कैसी अप्रिय परिस्थितियों का सामना करना पड़ता होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
अस्सी के दशक के उत्तरार्ध तक सड़कों पर गाड़ियों की संख्या इतनी नहीं हुई थी। महानगर इसके अपवाद हो सकते हैं। लेकिन उदार आर्थिक नीतियों के कारण मध्यवर्ग की क्रयशक्ति बढ़ी। किस्तों पर खरीद की सुविधा ने मध्यवर्ग को यह अवसर दिया कि वह कार, एअरकंडीशनर, फ्लैट, महंगी बाइक जैसी उन चीजों को भी आसानी से खरीद सके जो उस समय तक स्टेटस सिंबल समझी जाती थीं। स्टेटस सिंबल यानी समाज में रुतबे का प्रतीक। सड़कों पर कारों की संख्या बढ़ने लगी। सरकारी नीतियों ने भी मध्यवर्ग का कार का सपना सच करने की नीति के तहत वाहन उद्योग को भरपूर प्रोत्साहन दिया।
सड़कों पर गाड़ियों की संख्या तो अप्रत्याशित रूप से बढ़ी, लेकिन शहरों के भीतर सड़कों के इन्फ्रास्ट्रक्चर में उसके अनुरूप सुधार नहीं किया गया और नतीजतन संकरी सड़कों पर अपने वाहन तेजी से निकालने की होड़ बढ़ती जा रही है। ‘रोडरेज’ के कारण युवा वर्ग में हिंसा की नई प्रवृत्ति दिखाई देती है। रोडरेज ही सड़कों पर बढ़ते वाहनों का एक परिणाम होता तो कानून उससे निबटने का कोई तर्कसंगत रास्ता निकाल लेता, लेकिन बार-बार लगने वाले जाम का क्या किया जाए?
इधर पश्चिम में कुछ अध्ययन हुए हैं, जो बताते हैं कि सड़कों पर गाड़ियों की बेशुमार तादाद ने लोगों में चिड़चिड़ेपन और हिंसात्मक आक्रोश को भी बढ़ाया है। ये अध्ययन बताते हैं कि हर आदमी को अपने लिए एक स्पेस चाहिए। इस क्षेत्र में किसी भी अपरिचित के आने पर व्यक्ति असहज हो जाता है। कई बार हमने महसूस किया होगा कि कोई व्यक्ति यदि अनचाहे तरीके से हमारे करीब आने की कोशिश करे तो हमें अचानक कुढ़न होने लगती है। कई बार तो हमारा व्यवहार भी कटु हो जाता है। जब हम कार में सवार होते हैं तो हमारे निजी स्पेस का प्रसार हमारी देह तक सीमित न रह कर हमारे वाहन के अनुरूप हो जाता है।
यह संभव नहीं है कि भीड़ भरी सड़क पर गाड़ी चलाते समय उस निजी स्पेस में अजनबियों का प्रवेश न हो। निजी स्पेस में यह अवांछित प्रवेश व्यक्ति के मिजाज को धीरे-धीरे उग्र कर देता है और यही कारण है कि भीड़ में फंसे हुए लोग परस्पर बुरा-भला कहने पर आमादा हो जाते हैं। यह व्यवहार बाद में आदत का हिस्सा हो जाता है। कुछ शोधकर्ताओं का तो यहां तक कहना है कि महानगरों में रक्तचाप, अवसाद, मधुमेह जैसी बीमारियों के रोगियों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी का एक कारण यह भी है। उधर वाहनों से निकलने वाला जहरीला धुआं वातावरण को प्रदूषित कर अनेक बीमारियों को बढ़ावा दे ही रहा है।
ऐसे में सहज ही यह सवाल उठता है कि इस समस्या का समाधान क्या है? समाधान के लिए जन-जन में चेतना जगानी होगी। सार्वजनिक परिवहन के सुविधाजनक और वक्त के पाबंद साधन उपलब्ध कराने होंगे। खासकर दैनिक आवागमन में तो अधिकांश लोग चाहते हैं कि उन्हें लंबी, थका देने वाली और उबाऊ ड्राइविंग की विवशता से मुक्ति मिले। सड़कों पर वाहनों का आधिक्य न केवल पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है, बल्कि यह हमारी अर्थव्यवस्था पर भी दबाव डालता है क्योंकि तेल के आयात पर देश को बड़ी पूंजी का व्यय करना पड़ता है। यातायात के दबाव के अनुसार सड़कों का इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करना भी एक अनिवार्यता है। उधर, जिम्मेदार लोग वैकल्पिक साधन अपना कर या कार पूल करने जैसे उपाय अपना कर भी जनसाधारण में एक सकारात्मक संदेश दे सकते हैं। केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री और बीकानेर के सांसद अर्जुन मेघवाल अपने शपथग्रहण के लिए साइकिल से पहुंचे थे। जिन लोगों को सेलिब्रिटी कहा जाता है या जिन लोगों का रहन-सहन समाज पर थोड़ा-सा भी असर डालता है, वे इस तरह की पहल करें तो समाज के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण संदेश हो सकता है।