‘उठो सोने वालो सवेरा हुआ है, वतन के फकीरों का फेरा हुआ है, उठो सोने वालो वतन को जगा दो, यह गांधी का संदेश घर-घर सुना दो।’ आज से करीब बीस-पच्चीस साल पहले यही काव्य पंक्तियां अलस्सुबह हमारे कानों से टकराती थीं तो हमें याद आ जाता था कि आज अमुक राष्ट्रीय पर्व है और हम थोड़ा और सो लेने वाली आदत के विपरीत तुरंत बिस्तर छोड़ देते थे। वक्त बीतने के साथ हमारी तमाम परंपराओं की तरह प्रभातफेरी भी लुप्त हो गई। देश के विभिन्न हिस्सों, खासकर हिंदीभाषी प्रदेशों के शहरों, जिलों, कस्बों में सप्ताह भर पहले से तैयारियां होने लगती थीं प्रभातफेरी निकालने के लिए। विभिन्न राजनीतिक दल अपने और दूसरे दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं, इलाके की प्रतिष्ठित हस्तियों के साथ-साथ आम नागरिकों से प्रभातफेरी में शामिल होने की अपील करते थे। दरअसल, राष्ट्रीय पर्व मनाने की शुरुआत ही प्रभातफेरियों से होती थी। इसके बाद सामूहिक रूप से झंडारोहण, मिठाई वितरण और फिर खेलकूद या अन्य सांस्कृतिक गतिविधियां। राजधानी के राजपथ आज भले ही सज-धज कर इठलाएं कि वे पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी यानी स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस का जश्न मना रहे हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि जनसाधारण की दिलचस्पी इनमें अब सिर्फ इतनी होती है कि घर का बच्चा तिरंगा झंडा लेकर स्कूल जाएगा और वापसी में उसके हाथ में मिठाई का एक पैकेट होगा। सवाल है कि राष्ट्रीय पर्वों के प्रति हमारी सहभागिता इतनी सीमित क्यों रह गई है? क्या हम इतने आत्मकेंद्रित हो गए हैं? राष्ट्रीय महत्त्व के आयोजन हमारे लिए महज रस्म-अदायगी का विषय आखिर क्यों बनते जा रहे हैं?
करीब तीस साल पहले कानपुर में तब मैं इंटरमीडियट की परीक्षा की तैयारी कर रहा था। आजादी की लड़ाई में जेल में रह चुके कांग्रेस के एक बुजुर्ग कार्यकर्ता पंडित कन्हैया लाल ने मुझसे कहा था कि तुम नहीं जानते, कितनी मुश्किलों से हमने यह पावन दिन देखा है। हम तो तुम्हारे सामने हैं, लेकिन न जाने कितने लोग उस दौरान अपने घर लौट कर नहीं आए। आज जब लोगों से कहा जाता है कि स्वाधीनता दिवस या गणतंत्र दिवस पर प्रभातफेरी निकालनी है और उन्हें उसमें हिस्सा लेना है तो वे ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे हमने उनसे कोई बड़ी मदद मांग ली हो। तब कन्हैयालालजी की उम्र चौहत्तर साल रही होगी। लेकिन जज्बा, हिम्मत और देशभक्ति के मामले में वे किसी नौजवान से कम नहीं थे। कन्हैयालालजी अपने संगी-साथियों के साथ सुबह चार बजे घर का दरवाजा खटखटाते तो मां तुरंत मुझे जगातीं और पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी के जुलूस में उनके साथ भेजतीं। आज वे लोग नहीं हैं, लेकिन उन दिनों का महत्त्व समझ में आता है।
परिस्थितियां शायद जरूरत से ज्यादा बदल गई हैं। कहीं-कहीं स्कूली बच्चे दोपहर में जुलूस की शक्ल में जिंदाबाद के नारे लगाते जरूर दिख जाते हैं। आम आदमी की भागीदारी तो लगभग खत्म-सी हो चुकी है। मैं पिछले बारह सालों से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हूं। स्कूली बच्चों को छोड़ दें तो किसी राजनीतिक दल विशेष की या कोई संयुक्त प्रभात फेरी मैंने कभी नहीं देखी। देश के हर शहर-जनपद में राजनीतिक दल खुद को सक्रिय दिखाने की गरज से अक्सर विभिन्न मुद्दों पर धरना-प्रदर्शन करते हैं। जरूरत पड़ने पर ऐसे राजनीतिक नाटकों के लिए भाड़े के कलाकार भी जुटा लिए जाते हैं। लेकिन राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं को प्रभात फेरी का आयोजन करना या उनमें जाना अब नहीं सुहाता।
राष्ट्रीय पर्वों के हर्षोल्लास के साथ मनाने की विज्ञप्तियां सैकड़ों की संख्या में जारी की जाती हैं। प्रेस विज्ञप्ति जारी करने वाले लोग या समूह क्या वास्तव में इन्हें उतने ही हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं? क्या किसी ने सोचा था कि इन राष्ट्रीय पर्वों का महत्त्व इतनी जल्दी कम हो जाएगा? आज जबकि समाज विघटन की कगार पर है। जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र और भाषा जैसे सवालों ने अपने जहरीले डैने पसार रखे हैं। ऐसे में हमारे राष्ट्रीय पर्वों की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। ये हमें न केवल एकता के सूत्र में बांधते हैं, बल्कि सवालों-वादों के खतरों के प्रति सचेत भी करते हैं।राष्ट्रीय पर्व हमें सिर्फ इस बात का अहसास नहीं कराते कि अमुक दिन हमने ब्रितानी हुकूमत से आजादी हासिल की थी या अमुक दिन हमारा अपना बनाया संविधान लागू हुआ था, बल्कि ये हमारी उन सफलताओं की ओर इशारा करते हैं जो इतनी लंबी अवधि के दौरान जी-तोड़ प्रयासों के फलस्वरूप मिलीं। ये हमारी विफलताओं पर भी रोशनी डालते हैं कि हम नाकाम रहे तो आखिर क्यों! विडंबना यह है कि अनगिनत कुर्बानियों के बाद हमने आजादी तो हासिल कर ली, शासन चलाने के लिए अपनी जरूरत के हिसाब से संविधान भी बना लिया, लेकिन अपने राष्ट्रीय पर्वों को उतना महत्त्व नहीं दे सके। पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी कोई होली-दिवाली जैसे त्योहार नहीं हैं, बल्कि ये आत्मविश्लेषण के पर्व हैं।
दुनिया मेरे आगे