मोदी सरकार ने ‘भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता का अधिकार विधेयक 2013’ कानून के विवादास्पद संशोधनों को वापस लेने का मन बना लिया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते रविवार को आकाशवाणी से प्रसारित ‘मन की बात’ कार्यक्रम में देशवासियों को संबोधित करते हुए कहा कि सरकार ने भूमि संशोधन विधेयक से पहले जो अध्यादेश जारी किया था, उसे अब वह फिर से जारी नहीं करेगी।

सरकार ने यह फैसला उस वक्त लिया है, जब इकतीस अगस्त को अध्यादेश की अवधि समाप्त हो रही थी। सरकार के इस फैसले के बाद भूमि अधिग्रहण के लिए साल 2013 में बना कानून फिर से अमल में आ जाएगा।

इससे पहले सरकार ने अध्यादेश की राह छोड़ते हुए एक आदेश जारी किया, जिसमें तेरह केंद्रीय कानूनों के तहत होने वाले अधिग्रहण, भूमि अधिग्रहण कानून के ही दायरे में होंगे। सरकार के इस आदेश से राष्ट्रीय राजमार्ग, रेलवे, मेट्रो, परमाणु ऊर्जा जैसे तेरह अलग-अलग केंद्रीय कानूनों के जरिए होने वाले भूमि अधिग्रहण में भी इसी कानून की तर्ज पर किसानों को मुआवजा और पुनर्वास के साथ दीगर फायदे मिलेंगे।
अब जबकि यह तय हो गया है कि भूमि अधिग्रहण पर पहले वाला कानून ही लागू रहेगा, तो विपक्ष इसे अपनी जीत बताने में जुट गया है। वहीं प्रधानमंत्री ने एक बार फिर दोहराया है कि अध्यादेश को लेकर विपक्ष ने काफी भ्रम फैलाए और किसानों को नाहक भयभीत किया। शुरुआत में राजग सरकार ने इस अध्यादेश पर किस तरह से अड़ियल रवैया अख्तियार किया था, सब जानते हैं।

राज्यसभा में विधेयक पारित न होने की स्थिति में सरकार, तीन-तीन बार अध्यादेश लेकर आई। मोदी सरकार के मंत्रियों और भाजपा नेताओं ने पूरे देश में घूम-घूम कर किसानों को अध्यादेश के फायदे गिनवाए। बंगलुरु में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अध्यादेश के हक में बाकायदा यह घोषित किया गया कि यूपीए सरकार के दौरान बने कानून में किए गए संशोधन किसानों के हित में हैं।

यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने पहले के रेडियो प्रसारण ‘मन की बात’ में विधेयक का भरपूर बचाव करते हुए, इसे पहले के कानून से बेहतर बताया था। ऊपरी तौर पर भले ही इसमें साफ दिखाई दे रहा है कि इस मामले में सरकार की हार हुई है, फिर भी वह ऐसा जाहिर कर रही है कि मानो उसी की बदौलत पुराना कानून वापस आ रहा है।
भूमि अधिग्रहण कानून पर सरकार झुक सकती है, इसका इशारा उस वक्त ही मिल गया था जब विधेयक पर विचार-विमर्श के लिए बनी संयुक्त संसदीय समिति की बैठक में प्रमुख छह संशोधनों को लंबी बहस के बाद वापस ले लिया गया था। बैठक में विपक्ष के अलावा खुद भाजपा के ग्यारह सांसदों ने इन विषयों पर संशोधन प्रस्ताव पेश किए थे।

समिति ने सर्वसम्मति से सिफारिश की थी कि वह रजामंदी उपबंध और सामाजिक प्रभाव आकलन वाले प्रावधान हटाने के हक में नहीं है। ये दोनों ऐसे संशोधन थे, जिन पर सबसे ज्यादा विरोध था।
गौरतलब है कि राजग सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन कर प्राइवेट कंपनियों के लिए अस्सी फीसद और पीपीपी यानी सरकार और निजी क्षेत्र की संयुक्त भागीदारी वाली परियोजनाओं में भूमि अधिग्रहण करने पर सत्तर फीसद लोगों की सहमति के प्रावधान को खत्म कर दिया था। यही नहीं, एक दीगर संशोधन में सामाजिक प्रभाव आकलन के प्रावधान को भी खत्म कर दिया था।

लेकिन संसदीय समिति ने सदस्यों और तमाम सामाजिक संगठनों की राय जानने के बाद, अपनी सिफारिश में पुराने कानून के प्रावधानों को ही बहाल करने की वकालत की। समिति में इस बात पर भी राय बन गई है कि पांच साल तक अधिग्रहीत जमीन का इस्तेमाल न होने पर उसे किसानों को लौटा दिया जाए। बहुफसली जमीन का अधिग्रहण न हो और कानून का पालन न करने वाले अफसरों पर उचित कार्रवाई हो।

पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा पारित भूमि अधिग्रहण कानून में पिछले वर्ष दिसंबर में मोदी सरकार ने पंद्रह संशोधनों के साथ व्यापक बदलाव किए थे। ये बदलाव पहले-पहल अध्यादेश के जरिए किए गए। पर अध्यादेश की व्यवस्था टिकाऊ नहीं हो सकती, अधिकतम छह महीने तक वह प्रभावी रह सकती है।

फिर उसकी जगह सरकार को विधेयक लाना पड़ता है। लेकिन संसद में संशोधन विधेयक पर सर्वसम्मति बनता न देख, सरकार ने फिर से अध्यादेश के जरिए संशोधित कानून देश में लागू करने की कोशिश की। अपनी जिद के चलते तब से लेकर अब तक सरकार इस संबंध में तीन बार अध्यादेश जारी कर चुकी थी। विपक्षी पार्टियों में कोई भी पार्टी ऐसी नहीं है, जोे सरकार के इस फैसले के समर्थन में हो।

अलोकतांत्रिक तरीके से उठाए गए सरकार के इस कदम का संसद के भीतर भी विरोध हुआ और संसद के बाहर भी। यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े आनुषंगिक संगठनों भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच भी इस अध्यादेश की कई बातों का विरोध कर रहे थे। राजग के घटक दलों में भी आम राय नहीं थी। अकाली दल और शिवसेना जैसे घटक दलों ने तो सार्वजनिक तौर पर संशोधनों के खिलाफ अपनी आवाज उठानी शुरू कर दी थी। इसके चलते संसद के बजट सत्र और मानसून सत्र में कामकाज बुरी तरह प्रभावित रहा।

जब सरकार अध्यादेश पर विपक्ष को मनाने में नाकाम रही, तो उसने इस विधेयक पर विचार करने के लिए संसद के दोनों सदनों के सदस्यों की एक संयुक्त संसदीय समिति गठित कर दी।
संसदीय समिति ने जब अपना काम शुरू किया, तो उसके सामने अध्यादेश के खिलाफ कड़ी राय आई। किसान संगठनों समेत अनेक जन संगठनों ने समिति को ज्ञापन देकर किसानों की सहमति और सामाजिक प्रभाव आकलन वाले प्रावधानों को खत्म करने का सख्त विरोध किया और संशोधन-विधेयक को वापस लेने की मांग की। कानून में जो भी संशोधन किए गए थे, वे जबरन अधिग्रहण, अत्यधिक अधिग्रहण और किसानों के स्वामित्व वाली जमीन को दूसरे काम में लगाने के रास्ते खोलने वाले थे। लिहाजा, इनका विरोध होना ही था।

भूमि अधिग्रहण कानून में लाए गए संशोधनों को मोदी सरकार यह कह कर जायज ठहरा रही थी कि पिछली सरकार के समय बने कानून ने भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को काफी जटिल और मुश्किल बना दिया है। अधिग्रहण संबंधी नियमों में जटिलता की वजह से एक लाख करोड़ रुपए से अधिक की परियोजनाएं अटकी पड़ी हैं।

जबकि ये सब बातें गलतबयानी के सिवा कुछ नहीं। हकीकत यह है कि विकास का हवाला देकर सरकार ताबड़तोड़ अधिग्रहण का रास्ता साफ करना चाह रही थी। संशोधित कानून के लिए कॉरपोरेट लॉबी का दबाव था। कॉरपोरेट जगत की मांग थी कि भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया आसान बनाई जाए और सरकार इस मांग को पूरा करना चाहती थी।

लेकिन किसानों पर सरकार के तर्कों और सरकारी प्रचार का कोई असर नहीं हुआ। किसान अध्यादेश के खिलाफ सड़कों पर आ गए। दिल्ली के जंतर मंतर से लेकर तमाम राज्यों में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में धरने-प्रदर्शन हुए। किसानों के नाराजगी भरे तेवर देख कर ही सत्ताधारी पार्टी ने अब अपने रुख में बदलाव किया है। वरना वह अध्यादेश पर लगातार हठधर्मिता का रुख अख्तियार किए हुए थी।
यह सच है कि आर्थिक विकास के लिए तेज औद्योगीकरण और शहरीकरण जरूरी है। लेकिन यह सब संतुलन बना कर किया जाए, तभी तक ठीक है। भारत में कृषि से एक बड़ी आबादी की आजीविका जुड़ी हुई है। हमारे देश में खेती पर सीधे निर्भर लोगों की आबादी आज भी पचास फीसद से कम नहीं है।

जबकि उद्योग स्थापित होने पर कुछ लोगों को ही रोजगार मिलता है। जिस रफ्तार से सरकार और पूंजीपति विकास के नाम पर जमीन लेते जा रहे हैं, उससे महानगरों की सीमा के लगभग पचास किलोमीटर के दायरे में आने वाली सारी कृषियोग्य जमीन अनियोजित शहरी विस्तार का शिकार हो गई है।

देश में खेती का रकबा लगातार कम होता जा रहा है। जमीन अधिग्रहण से संबंधित देश में कोई सुविचारित नीति न होने की वजह से किसान अपनी जमीन से बेदखल होते जा रहे हैं। तिस पर जमीन का उचित मुआवजा न मिलने से किसानों और किसान परिवारों पर आजीविका का संकट भी गहराता जा रहा है।

‘भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार विधेयक-2013’ कानून में अनिवार्य भू-अधिग्रहण की स्थिति में उठने वाले मुश्किल आर्थिक, सामाजिक सवालों के सुसंगत नीतिगत समाधान देने की कोशिश की गई थी।

लेकिन अफसोस, कानून को अमली जामा पहनाया जाता, उससे पहले ही मोदी सरकार ने इस ऐतिहासिक कानून में संशोधन कर इसे कमजोर करने की कोशिश की। लेकिन जनता की मांगों के आगे आखिरकार उन्हें झुकना ही पड़ा।

बहरहाल, अध्यादेश फिर से जारी न करने के मोदी सरकार के निर्णय से यूपीए के समय बना कानून बहाल हो गया है। यह साफ नहीं है कि संसद के अगले सत्र में सरकार इस कानून में संशोधन की खातिर विधेयक पेश करेगी, या नहीं। अगर सरकार संशोधन विधेयक लाएगी भी, तो यह कहा जा सकता है कि उसके कई प्रावधान अध्यादेश जैसे नहीं होंगे।