ध्रुव शुक्ल

भारत के धर्म विमर्श में घर वापसी का रास्ता धर्मों के त्याग में बताया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी यही निष्कर्ष निकाला गया है कि सारे धर्मों के त्याग से ही सच्ची घर वापसी संभव है। महात्मा कबीर भी कह गए कि- वा घर सबसे न्यार जहां पूरन पुरुष हमार। यह पूरन पुरुष हमारी लोक संस्कृति में बाबुल कह कर पुकारा गया और दुनिया को ससुराल कहा गया। ससुराल तो एक सराय जैसी है, जिसमें हम थोड़ी-सी आयु व्यतीत करके फिर बाबुल के घर लौट जाने की राह देखते रहते हैं। इस आधी-अधूरी दुनिया में हमें हमेशा लगता रहता है कि बाबुल के घर लौट जाना ही सच्ची घर वापसी है। घर वापसी की अनेक दृष्टियां हैं, पर हम सब अनुभव करते आए हैं कि सच्ची घर वापसी इस दुनिया के घेरों में संभव नहीं है। हमारा घर तो अनंत की गोद में है, जहां एक दिन हम सब धर्मोंे को त्याग कर ही जा पाते हैं।

भारतीय मनीषा मनुष्य जाति की इसी सच्ची घर वापसी के लिए दर्शन और साधना प्रणालियां रचती रही है। ये प्रणालियां सदियों से उस आत्म-भाव की समता में मानव मन के रमने का मार्ग दिखाती आई हैं, जो सब धर्मों से परे ऐसे परम सुख से भरा-पूरा घर है, जिसमें प्रत्येक मनुष्य अपने सच्चे आवास की आकांक्षा कर सके। इस घर में लौटते हुए सारे छाप-तिलक झरते चले जाते हैं। महाकवि तुलसीदास इस घर की याद दिलाते हुए कहते हैं कि इस घर में लौट आने से सब अपने-अपने स्वराज्य में बस जाते हैं। फिर कोई किसी से बैर नहीं पालता। अपने मन को जीतने के अलावा कोई शत्रु ही नहीं रह जाता। सारी लड़ाई अपने आपसे होती है, किसी दूसरे से नहीं।

श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश भी सारी मानव जाति के लिए यही है कि अपने-अपने स्वधर्म में सब जिएं और कोई भी किसी को उसके स्वधर्म से विचलित न करे, बल्कि उस परिवेश का निर्माण करे, जिसमें अनेक स्वभावों वाले मनुष्य अपने स्वधर्म के अनुरूप जीवनयापन कर सकें। स्वामी विवेकानंद बार-बार याद दिलाते रहे कि संसार के अरबों मनुष्यों के लिए चार-पांच धर्म ही हैं। इतने कम धर्मों से मनुष्यजाति का काम नहीं चल सकता, इसीलिए प्रत्येक मानव का अपना धर्म होना चाहिए।

धर्मों के संगठनों और उनमें व्याप्त पाखंडों ने दुनिया को बहुत क्षति पहुंचाई है। राजनीतिक ताकतों ने भी इनका सहारा पाकर लोकतंत्र की प्रणाली को लगातार विकृत किया है। भारत में ही हम प्रत्येक राजनीतिक दल को इन धर्म-संगठनों के आगे नत होता देख रहे हैं। आजादी के पहले और उसके बाद भी आज तक इस कुटिल चक्रव्यूह को हम भारत के लोग पूरी तरह छिन्न-भिन्न नहीं कर पाए हैं। हम हर आम चुनाव में उन्मादी ताकतों को बेदखल करने की भरपूर कोशिश करते हैं, पर सत्ता बदलते ही ये ताकतें चोर दरवाजों से घुस कर अपने कुटिल और कपटी इरादे जाहिर करने लगती हैं।

ये ताकतें जिम्मेदार नागरिकता की रचना करने के मार्ग में बाधाएं खड़ी करती हैं और विकसित होते देश को मंदिर-मस्जिद की आग में झुलसाती हैं। वे अनेक सहयोगी संगठन बना कर और एक-दूसरे की ओट में छिप कर अपने अपराधों को छिपाए रखती हैं। इनके संगठित गिरोह व्यक्ति को उसके स्वधर्म के मार्ग से भटका कर ही फल-फूल रहे हैं और देश का जीवन मुरझा रहा है।

अभी हाल में हम भारत के लोगों से शिक्षा, समृद्धि, सुरक्षा और सुशासन के जो वादे और इरादे जाहिर किए गए हैं, उन्हें पूरा करने के लिए विमल मन वाला देश चाहिए। वे मंगलमूर्ति नागरिक चाहिए, जो इन संकल्पों को पूरा करने में सहयोगी हो सकें। इसके लिए यह कितना जरूरी लगता है कि हम मतांधता के धुएं से घिरी लपटों को अब और हवा न दें। हम यह भी देख पा रहे हैं कि जो नई सत्ता भारत में स्थापित हुई है वह भले सार्वजनिक रूप से स्वीकार न करे, पर अक्सर उसके चेहरे पर पहले की भूल-गलतियों को लेकर पछतावा भी झलक उठता है, जिसे भारतीय राजनीति में एक अच्छा संकेत माना जाना चाहिए। हमारे ज्यादातर राजनीतिक दल तो न जाने कब-से अपनी भूल-गलतियों पर पछताना ही भूल गए हैं। अपनी भूलों पर पछताने से बड़ी घर वापसी कोई नहीं।

दुनिया में धर्म, राजनीति, बाजार का कुटिल गठबंधन ही सारी मानवजाति को बेघर होने पर विवश कर रहा है। धर्म और बाजार तराजू के दो पलड़ों जैसे हैं। हमारी राजनीति इन दोनों पलड़ों की खींचतान में कभी भी बहुरंगे जीवन के पक्ष में सफल न हो सकेगी। फिर बाजार का पलड़ा इतना भारी है कि राजनीति का कांटा तो पूरा बाजार की ओर ही झुका जा रहा है और धर्म का पलड़ा खाली होकर ऊपर झूल रहा है। धर्म का ऊपर झूलता पलड़ा धर्म के जागीरदारों को इस भ्रम से भरता रहता है कि जैसे धर्म की ध्वजा फहरा रही हो, पर वह इतना खाली है कि लोगों के बहु-विश्वासों की रक्षा के लिए उसके पास देने को कुछ नहीं है। सांप्रदायिक अंधापन और पाखंड फैलाने के अलावा उसे अब कुछ सूझता ही नहीं। धर्म से फिलहाल कोई आशा नहीं की जा सकती, उसकी नौका के पाल फट गए हैं, उधड़ गए हैं। उससे पार पाना मुश्किल है।

लोकतंत्र के सफल होने की आशा एक सच्ची और जिम्मेदार नागरिकता के विकास से ही पूरी हो सकती है। स्वयंसेवा का दावा करने वाले हजारों संगठन भारत में मौजूद हैं, पर वे इस दिशा में कोई सार्थक उपाय करते हुए नहीं देखे जाते। देश में एक अनुदानखोर समाजसेवक पैदा हो गया है, जो अपने और अपने कार्यकर्ताओं के स्वार्थ-लाभ में ही डूबा दिखाई देता है। वह तो जन की परवाह किए बिना सड़क से संसद तक सत्ता हथियाने में लगा हुआ दीखता है। जब कभी सत्ता उसे बेदखल करने की सोचती है तो वह सत्ता को ही बेदखल करने की कुटिल रणनीतियां बनाने में जुट जाता है।

हमारे देश के स्वयंसेवी संगठन यह भ्रम भी पाले हुए हैं कि जनता उनके कहने में आकर ही राजनीतिक सत्ता का निर्माण करती है। पर अभी जो आम चुनाव हुए हैं उनके अप्रत्याशित परिणाम देख कर उनका यह भ्रम दूर होना ही चाहिए कि हम भारत के लोग मंदिर-मस्जिद और जातिगत भेदभावों से थोड़ा ऊपर उठ कर भी सोचने लगे हैं। सत्ता से अब हमारी चाहत समृद्धि, सुरक्षा और सद्भाव की है। अब हम सांप्रदायिक किस्म का अभावग्रस्त समतावाद नहीं चाहते। मतांध कट््टरता से भरा भारत नहीं चाहते। अब हम वाम-दक्षिण अतियों से ऊब कर जीवन की वह मध्यलय साधने के आकांक्षी हैं, जिसका उपदेश गौतम बुद्ध ने मानवजाति के लिए किया।

गौतम बुद्ध ने वीणा के माध्यम से हमें समझाया कि किसी भी प्रकार की अतियां जीवन का भला नहीं करतीं- उन्होंने कहा कि जीवन की वीणा के तार अगर बहुत खिंचे हुए हों तो उससे स्वर नहीं फूटेंगे। स्वर तब भी नहीं फूटेंगे जब वीणा के तार एकदम ढीले हों। वीणा तो तब बजेगी जब उसे मध्य में साध लिया गया हो और वीणा कब मध्य में है इसे तो स्वयं साध कर बजाने वाला ही जानता है। बुद्ध हमसे यही कह रहे हैं कि प्रत्येक मनुष्य का स्वधर्म मध्यलय में ही सधता है और अतियां तो जीवन को बेसुरा बना देती हैं।

अतियों के बेसुरेपना से ऊबे हुए भारत को बाहर निकाल ले आने का युगानुरूप कर्तव्य अब आवश्यक हो चला है। सत्ता परिवर्तन का यह मतलब कदापि नहीं होता कि जो अतियां पहले अपनाई जाती रही हैं और जिनसे भारत का जनजीवन त्रस्त होकर ऊब गया है फिर उन्हें ही दुहराया जाए। उनसे तो नई सत्ता को मुक्ति दिलाने का प्रयत्न करना चाहिए। जबकि संकेत मिल रहे हैं कि हम उन्हीं गड्ढों को और गहरा कर रहे हैं, जिनमें हम पहले ही कई बार गिर चुके हैं।

यह प्रश्न राजनीति तक सीमित नहीं है। धर्म के क्षेत्र में सदियों पुराने पाखंड के गड््ढे हम अब तक पूर नहीं पाए हैं, बल्कि उन्हें भी लगातार गहरा होते देखा जाता है। भ्रष्ट मठाधीशों की करतूतें देख कर मन घबराता है, और याद आती है हमारे उपनिषदों को रचने वाली मनीषा की, जिसने सदियों पहले सच्चे आत्मभाव का बोध हमें प्रदान किया। अगर इस आत्मबोध को महात्मा गांधी की तरह फिर जगाने का पुरुषार्थ किया जा सके तो स्वावलंबी नागरिकता के सृजन की ओर कदम बढ़ाए जा सकते हैं।

विश्व में फैलता नया बाजार कमाई के जो प्रतियोगी साधन विकसित कर रहा है उनको अपना कर लोग अपने स्थानीय परिवेश से कहीं दूर भागे चले जा रहे हैं। कोई भी देश अपने स्थानीय रोजगार के साधनों को खोकर देश की तरह नहीं पहचाना जा सकता। कहीं हम विश्व-बाजार की दगाबाज ताकतों को जांचे-परखे बिना उनके हाथों में अपने साधन और भारत जनों का मूल्यवान श्रम सौंप कर कोई भयानक भूल तो नहीं करने जा रहे हैं!

आधुनिक बाजार में खड़ा मनुष्य जिन्स और माल में बदलता जा रहा है। उसे भी खरीदा और बेचा जाने लगा है। बाजार मनुष्य की चेतना की गहराई में इतना उतरता जा रहा है कि उसे अपने सांस्कृतिक क्षय की परवाह ही नहीं रही। बाजार की भाषा ही उसके सिर चढ़ कर बोल रही है। धर्म, राजनीति और हमारे सांस्कृतिक संगठन भी बाजार के रंग में रंगते जा रहे हैं। इस प्रश्न का सामना हमें करना ही होगा कि कहीं विदेशी पूंजी का रास्ता आसान बनाने की फिक्र में हम देश को तो नहीं खो देंगे।

पहले के जमानों में धर्म, राजनीति के लिए और राजनीति, बाजार के लिए मार्गदर्शक हुआ करती थी। अब मार्गदर्शन तो दूर, दोनों एक-दूसरे पर वर्चस्व के लिए बाजार की भाषा बोल रहे हैं। हम परंपरा से जानते हैं कि संसार में ऐसा कोई ईश्वर नहीं, जो किसी को लाटरी और सट््टे में लाभ दिला सकता हो, पर धर्म का व्यर्थ व्यापार करने वाले भ्रष्टजन लोगों को बाजार की तरह लाभ का आश्वासन दिया करते हैं। राजनीति अब जनता को कर्तव्य की याद दिलाने में विफल हो चुकी है।

इस भोथरे होते जाते हथियार से हम कब तक लोकतंत्र को बचा पाएंगे। जब धर्म लालची मनुष्यों, राजनीति लालची नागरिकों और बाजार लालची ग्राहकों की रचना कर रहे हों, तब एक लालची, अकर्मण्य और हिंसक लोकतंत्र के सिवा हमारे भाग्य में और क्या आ सकता है।

 

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