नवनीत शर्मा
शांति की इच्छा मात्र से वैश्विक शांति संभव नहीं है। वैश्विक शांति के लिए भी वैसी ही ‘रणनीति’ की आवश्यकता है, जैसी युद्ध के लिए चाहिए। 6 अगस्त, 1945 को पहले परमाणु बम का आक्रमण हिरोशिमा पर हुआ और तीन दिन बाद नागासाकी पर। इसी दौर में एशिया महाद्वीप के देश औपनिवेशिक शासन से आजादी के लिए संघर्षरत थे, जब गांधी ने बड़े पैमाने पर अहिंसक आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन की उद्घोषणा आठ अगस्त को करो या मरो के नारे के साथ की। दूसरे विश्व-युद्ध के रक्त रंजित पाठ और अधिकतर देशों के स्वतंत्रता पश्चात ‘शांति’ के लिए प्रयास किए जाने की अपेक्षा ‘शीत युद्ध’ ने दुनिया के देशों को तीन समूहों में बांट दिया। सोवियत संघ के विघटन के बाद हालांकि ‘नाटो’ और ‘गुट निरपेक्ष’ जैसे संगठन अपनी प्रासंगिक भूमि गंवा बैठे। इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में जिस वैज्ञानिक प्रगति के सहारे हम ईश्वरीय सत्ता को विस्थापित करना चाहते थे, उसी धर्म दर्शन ने गगनचुंबी अट््टालिकाओं में वायुमान घुसा देने की प्रेरणा दी।

जो समाज युद्ध चाहता है वह अपने बच्चों को ‘युद्ध’ के लिए तैयार करता है, पर जो समाज ‘शांति’ चाहता है वह कोई भी ऐसा प्रयास नहीं करता। ताजा आंकड़ों के मुताबिक हर वर्ष दुनिया भर में करीब दो हजार अरब डॉलर ‘रक्षा’ मद में व्यय किए जाते हैं। हर साल अस्सी लाख ‘हल्के अस्त्रों’ का उत्पादन किया जाता है और पृथ्वी पर प्रत्येक नागरिक के लिए दो गोलियां बनाई जाती हैं। सशस्त्र युद्ध में मारे जाने वाले तीन में से प्रत्येक दो ‘शांत’ देशों के नागरिक हैं। प्रत्येक मृत व्यक्ति के अनुपात में दस और लोग बुरी तरह घायल होते हैं। परमाणु शस्त्रों के जखीरे में दुनिया भर में चौदह हजार बम हैं। ये बम, हिरोशिमा-नागासाकी में गिराए गए बमों की अपेक्षा सौ गुना अधिक घातक हैं। हिरोशिमा-नागासाकी आक्रमण में दो दिन में ही चार लाख से अधिक लोग मरे और कितने गर्भस्थ बच्चे युद्ध का हिस्सा बन गए।

आधुनिकता ने न केवल मनुष्यों के यातायात और संस्कृति के आदान-प्रदान की गति तेज की है, बल्कि युद्ध और हिंसा के तौर-तरीकों को भी बदल दिया है। जैविक, आर्थिक, सांस्कृतिक, सूचना और साइबर युद्ध भी हिंसा के नवीन संस्करण हैं। मनुष्य को दूसरे मनुष्य से जितना खतरा है, उतना तो उसे अन्य जानवरों या प्राकृतिक आपदाओं से भी नहीं है। सशस्त्र-सैन्य हिंसा को तो राज्य से वैधता प्राप्त है, पर इससे अलग दुनिया भर में औसतन एक साल में पांच लाख लोग मारे जाते हैं जो, वैध हिंसा के मुकाबले पांच गुना अधिक है। भारतीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के नए आंकड़ों के अनुसार प्रतिदिन सात सौ गंभीर अपराध के मामले दर्ज होते हैं या प्रत्येक घंटे तीस अपराध और गंभीर हिंसक घटनाएं होती हैं। सवाल है कि क्या मनुष्य जन्मजात या स्वाभाविक रूप से हिंसक और बर्बर प्राणी है और उसे सामाजिकता, शांति, सहिष्णुता और पारस्परिक सद्भाव ‘जबरन’ सिखाए जाने की आवश्यकता है।

हिंसा उन तमाम विभाजनकारी श्रेणियों की आपसी प्रतियोगिता से पनपती है, जिसमें धर्म, जाति, लिंग, क्षेत्रीयता, भाषा, यौनिकता आदि को चुनौती मान कर वर्चस्व की लड़ाई को मान्यता देते और उसका मंडन करते हैं। संसाधनों के बंटवारे में विषमता, संपन्न-साधनहीन के बीच बढ़ती खाई और इसे ‘मेरिट’ और जन्मना पुण्य-पाप के आधार पर वैध बताने की कोशिश, इसे एक संस्थागत हिंसा का स्वरूप देती है। गरीबी, अस्पृश्यता की तरह ही एक सांस्थानिक हिंसा का स्वरूप है।
हिंसा मूलत: सत्ता और वर्चस्व द्वारा प्रत्येक मानवीय रिश्ते को परिभाषित करने और उसके सीमांकन करने की क्षमता के अनुरूप ही होती है।

मनुष्य स्वभावत: हिंसक भले न हो, पर वह एक हिंसक समाज और सभ्यता में जन्म लेता है। जिस समाज में भिन्न होने और स्वतंत्र सोचने को ही अनुशासनहीनता का पर्याय माना जाता हो और उसे ‘सुधारने’ के क्रम में शारीरिक-वाचिक दंड को ‘खोट’ निकालने के दर्शन से मंडित किया जाता हो, तो मनुष्य बचपन से ही हिंसा को कारगर और वांछनीय परिणाम मानने लगता है। पितृसत्तात्मक समाज में भिन्न और स्वतंत्र रूप से सोचने वाली स्त्री दंडनीय है, तो स्त्रियों के प्रति तमाम हिंसा उनकी स्वतंत्रता, चाहे वह कपड़ों के चयन को लेकर हो या रात को सार्वजनिक स्थानों पर जाने की इच्छा, इन सबको उद्दंडता और चरित्रहीनता माना जाता है। ऐसे समाज में स्त्रियों के प्रति हिंसा को परंपरागत तरीके से वैध माना जाता है। इसी तरह धर्म, वर्ण और जाति से परे जाकर प्रेम करने को भी दंड योग्य मानना स्वाभाविक है। इन तमाम विरोधाभासों और विवादों को संवाद के जरिए सुलझाने की अपेक्षा बंदूक की नली से समाधान खोजा जाता है।

शांति और संवाद से किसी तरह के वाणिज्यिक लाभ की अपेक्षा नहीं है, जबकि हिंसा एक वाणिज्य है। विकसित देशों के विकास और आर्थिक प्रगति का एक बड़ा कारण उनके हथियार निर्यात के लाभ का प्रतिफलन है। अफ्रीका, सीरिया, यमन या कश्मीर जैसे विवाद अगर सुलट जाएं तो दुनिया भर में शस्त्रों का वाणिज्य ठप पड़ जाए और अमेरिका जैसी पूंजीवादी व्यवस्थाएं, जो दुनिया के चौंतीस प्रतिशत हथियार निर्माण और व्यापार पर वर्चस्व रखती हैं, दिवालिया हो जाएं। शांति की अपेक्षा बहुत से देश हथियारों के बाजार में अपना वर्चस्व कायम करने की होड़ में लग गए हैं।

यह वाणिज्य फले-फूले और लाभकारी रहे, इसके लिए नित नए विवादों को हवा दी जाती है और अन्य व्यसनों की तरह पहले मुफ्त में देकर जन समूह आकर्षित किए जाते हैं और जब ये सभी भस्मासुर बन जाते हैं, तो इन्हें भिन्न जातिगत हिंसा, धार्मिक हिंसा के रूप में चिह्नित कर प्रतिहिंसा की जाती है। हिंसा के सहारे ‘शांति’ की इच्छा रखने वालों को यह समझना होगा कि हिंसा से प्रतिहिंसा ही पनपती है। गांधी के दर्शन और जापान के परमाणु बम न बनाने के निर्णय को इसी आलोक में समझने की आवश्यकता है। आंख के बदले आंख पूरी दुनिया को अंधा कर देगी।

अनुकंपायमान ईश्वर को प्रबल ईश्वर से विस्थापित कर हम भिन्न ईश्वरों में वर्चस्व की प्रतियोगिता को ही जन्म देंगे। यह भिन्न ईश्वर धर्मनिरपेक्षता और इससे जनित अहिंसा और सद्भाव के दर्शन से मेल नहीं खाएंगे। इसी ईश्वर के नाम पर जातिगत, लैंगिक, यौनिक और अन्य हिंसा को वैधता प्रदान की जाती है। बाएं हाथ में पकड़े अस्त्र अक्सर दाएं हाथ के फूल वाली छवि पर हावी हो जाते हैं। इस हिंसा का विरोध तब और जटिल हो जाता है, जब बहुसंख्यक इस हिंसा को आवश्यक मानने लगते हैं और यथास्थिति या अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए अल्पसंख्यकों, हाशिए की जातियों और स्त्री के प्रति हिंसा को जायज समझने लगते हैं। हिंसा से ही वर्तमान, भविष्य और यहां तक कि अतीत की रूपरेखा भी गढ़ी जा सकती है- ऐसा दर्शन ही हिंसा से राजनीतिक सत्ता, कृत्रिम बुद्धि से भविष्य और इतिहास के पुनर्लेखन का समर्थन करता है।

इसी दर्शन की प्रतिछवि उन तमाम फिल्मों में देखी जा सकती है, जिनमें नायक द्वारा की गई हिंसा को वैध दिखाने के लिए उस पर हिंसक अत्याचार किए जाते हैं। नायक और खलनायक द्वारा की गई हिंसा के मध्य हम नैतिक अंतर करते हुए अंतत: एक निश्चित तरह की हिंसा के पक्ष में खड़े होने का चयन करते हैं। जिस समाज में हिंसक फिल्मों, वेब शृंखला और खबरों को जन सामान्य में संस्कृति के नाम पर परोसा जाएगा वहां बुद्ध, महावीर, गांधी और मंडेला केवल जयंती पर ही याद किए जाएंगे या परमाणु परीक्षण की सफलता पर ‘बुद्ध मुस्कराए’ की तरह नामित होंगे। शांति को वांछनीय की जगह मानवीय सभ्यता की आवश्यक योग्यता बनाना होगा।