ब्रह्मदीप अलूने
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को सोवियत संघ के बिखराव का दर्द सालता रहा है। इस बिखराव को तीन दशक बीत चुके हैं। लेकिन अलग हुए देशों की स्वतंत्र नीतियों को लेकर पुतिन अक्सर असहज हो जाते हैं। यूक्रेन को लेकर रूस की आक्रामक नीतियों में पुतिन की अधिकनायकवादी विचारधारा हावी रही है, जिसके अनुसार रूस के पड़ोसियों की नीतियां रूस के हितों से अलग नहीं हो सकतीं और जब भी कोई देश ऐसा करने की मंशा दर्शाता है तो पुतिन आक्रामक हो उठते हैं। इस समय रूस यूरोप से लगे अपने पड़ोसी यूक्रेन की सीमा पर अपनी फौज का जमावड़ा बढ़ा रहा है। पुतिन ने साफ कहा है कि यदि यूक्रेन ने अपने यहां रह रहे रूस समर्थित नागरिकों को निशाना बनाने की कोशिश की तो इसके गंभीर परिणाम होंगे।

सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस के नेतृत्व में सामूहिक सुरक्षा और हितों के प्रति एक दूसरे पर निर्भरता बढ़ाने के लिए एक स्वतंत्र राष्ट्र संगठन (कॉमनवेल्थ आॅफ इंडिपेंडेंट स्टेट्स- सीआइएस) का गठन आठ दिसंबर 1991 को किया गया था। इसे मिंस्क समझौता कहा जाता है। सोवियत संघ के विघटन के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आए राज्यों की सीआइएस के अंतर्गत सामूहिक नीतियां बनाई गईं। यह संगठन मुख्य रूप से व्यापार, वित्त, कानून निर्माण, सुरक्षा और सदस्यों के मध्य तालमेल बनाने जैसे काम करता है। इस संगठन की स्थापना में यूक्रेन का भी अहम योगदान रहा। यूक्रेन सोवियत संघ से अलग हुआ एक बड़ा देश है, जो यूरोप में आता है और इसे सामरिक रूप से काफी शक्तिशाली माना जाता है। इसका कारण यह भी है कि अविभाजित सोवियत संघ के अधिकांश परमाणु केंद्र्र यूक्रेन में थे, इसलिए यह न केवल रूस के लिए अहम बना रहा, बल्कि यूरोपीय देशों की नजर भी इस पर बनी रही।

रूस बनने के बाद देश के पहले राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने सीआइएस से संबद्ध देशों से आपसी सहमति के आधार पर संबंधों को बढ़ाने की नीति पर काम किया। लेकिन पुतिन युग प्रारंभ होते ही स्थितियां बदलने लगीं। पुतिन ने रूसी प्रथम (रशियन फर्स्ट) की भावना पर काम करते हुए पड़ोसी देशों पर दबाव बढ़ाने की नीति अपनाई। उनके मन में सोवियत संघ के बिखराव को लेकर दर्द तो था ही, अत: यूक्रेन जैसे शक्तिशाली देशों से उनके संबंध बिगड़ने लगे। इसका असर जल्द सामने आया और यूक्रेन की यूरोप समर्थित नीति खुल कर सामने आ गई।

इसमें यूक्रेन की यूरोप के महत्त्वपूर्ण सहयोगी बनने के साथ ही नाटो का सदस्य बनने की इच्छा शामिल थी। 1949 में स्थापित नाटो यूरोप और उत्तरी अमेरिका के देशों के मध्य एक सैन्य गठबंधन है, जिसका उद्देश्य साम्यवाद और रूस का प्रभाव कम करना रहा है। नाटो सामूहिक रक्षा के सिद्धांत पर काम करता है, जिसका तात्पर्य एक या अधिक सदस्यों पर आक्रमण सभी सदस्य देशों पर आक्रमण माना जाता है। नाटो की अपनी सेना है, जिसमें सभी सदस्य देशों की सेना की भागीदारी होती है। जब किसी मुद्दे पर राजनीतिक तरीके से समाधान नहीं निकलता है तो फिर उसके लिए सैन्य आॅपरेशन का विकल्प आजमाया जाता है। अफगानिस्तान, इराक, सीरिया और आइएसआइएस सहित दुनिया के कई भागों में विभिन्न सैन्य अभियानों में नाटो की भागीदारी देखी गई है।

जाहिर है, यूक्रेन का नाटो के साथ खड़े होने का संकल्प रूस के लिए संदेह बढ़ाने वाला साबित हुआ। इसी कारण क्रीमिया संकट खड़ा हुआ था। क्रीमिया पूर्वी यूरोप में यूक्रेन का एक स्वशासित हिस्सा था। 2014 में हथियारबंद रूस समर्थकों ने क्रीमिया प्रायद्वीप में संसद और सरकारी इमारतों पर कब्जा कर लिया था। यह सब बेहद सुनियोजित तरीके से किया गया था। इसका मकसद यूक्रेन को सबक सिखाना था। क्रीमिया के आंतरिक हालात का फायदा उठाते हुए पुतिन ने वहां अपनी सेना भेजने में देर नहीं की। रूस का कहना था कि यूक्रेन वहां रहने वाले रूसी मूल के लोगों पर अत्याचार कर रहा है, ऐसे में रूसी मूल के लोगों के हितों की रक्षा करना रूस की जिम्मेदारी है। रूस ने इसके बाद राजनीतिक स्तर पर कदम उठाते हुए अन्य प्रयास करने से भी गुरेज नहीं किया और क्रीमिया की संसद ने रूसी संघ का हिस्सा बनने के पक्ष में मतदान किया। इसी जनमत संग्रह के परिणामों को आधार बना कर रूस ने यह घोषणा कर दी की अब क्रीमिया रूसी महासंघ का हिस्सा बन गया है। इस घटना से यूक्रेन और रूस के बीच तनाव गहरा गया जो बदस्तूर जारी है।

यूक्रेन के समर्थन में अमेरिका भी आक्रामक कूटनीति अपनाता रहा है। क्रीमिया के रूस में विलय को लेकर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने रूस की कड़ी आलोचना करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए खतरा बताया था। यूक्रेन का आरोप है कि रूसी खुफिया एजेंसी केजीबी यूक्रेन को तोड़ने के लिए वहां रह रहे रूसी मूल के लोगों को भड़काने की योजना पर लगातार काम कर रही है। अमेरिका ने इसकी पुष्टि भी की है। इस समय जब यूक्रेन की सीमा पर भारी तनाव है। इसका असर अमेरिका और रूस के रिश्तों पर भी पड़ रहा है। हालांकि पुतिन युग में वैश्विक स्तर पर रूस की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं को देख कर लगता है कि यूक्रेन के संकट पर उसका रुख महज क्षेत्रीय प्रभुत्व कायम करने नीति से कहीं आगे बढ़ कर है।

रूस के राष्ट्रपति के तौर पर ताकतवर बन कर उभरे पुतिन की अधिकनायकवादी नीतियों को उनके देश में व्यापक समर्थन हासिल है। इससे उत्साहित पुतिन अमेरिका और नाटो को वैश्विक स्तर पर चुनौती देते नजर आ रहे हैं। इसके साथ ही वे चीन से मिल कर अमेरिका के खिलाफ आर्थिक और सामरिक दबाव बनाने की नीति पर भी लगातार काम कर रहे हैं। यह समर्थन म्यांमा से लेकर ईरान और उत्तर कोरिया तक दिखाई देता है। अमेरिका और यूरोप से विभिन्न कारणों से प्रतिबंधित देश रूस के लिए सामरिक रूप से बड़े बाजार बन कर उभरे हैं। ईरान रूस से व्यापक हथियार खरीद रहा है और ऐसा माना जाता है कि उसके हथियारों को उन्नत करने और परमाणु केंद्रों को अत्याधुनिक बनाने में भी रूस गोपनीय तरीके से मदद कर रहा है।

अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडेन ने रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ एक शिखर बैठक करने का प्रस्ताव रखा है। बैठकों की तारीख और एजेंडा अभी तय नहीं हुआ है। लेकिन दोनों महाशक्तियों के बीच होने वाली यह बैठक बेहद महत्त्वपूर्ण हो सकती है। इसमें यूक्रेन को लेकर क्या सहमति बनती है, यह देखना भी बड़ा दिलचस्प होगा।

रूस आने वाले समय में यूक्रेन में राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ावा देकर यूरोप के इस देश को अशांत कर सकता है। यही महाशक्तियों की नीतियां भी रही हैं। इस समूचे घटनाक्रम में यह भी साफ हो जाता है कि यूक्रेन की शुरुआती नीतियां नियंत्रण और संतुलन पर आधारित नहीं रहीं। इस नव राष्ट्र को भू राजनीतिक स्थिति को परखते हुए अपनी वैश्विक स्थिति को धीरे-धीरे मजबूत करना था। लेकिन रूस से अलग होते ही उसके सामने खड़े होने की जल्दबाजी में वह नाटो और रूस के बीच प्रतिद्वंदिता का मैदान बन गया। यह स्थिति जहां यूक्रेन के लिए घातक साबित हो रही है, वहीं पुतिन के लिए मुफीद है। वे यूक्रेन को तोड़ कर उसके क्षेत्रों को रूस में मिलाने की नीति पर काम कर रहे हैं। इससे रूस में पुतिन की लोकप्रियता अभूतपूर्व तरीके से बढ़ सकती है, जिसे हाल में एलेक्?सी नवेलनी प्रकरण से धक्का पहुंचा है। जाहिर है पुतिन यूक्रेन संकट को बनाए रखना चाहते हैं और इसका अपने देश में राजनीतिक और वैश्विक स्तर पर कूटनीतिक फायदा लेना चाहते हैं।