जयंतीलाल भंडारी
दक्षिण एशिया के लिए यूनिसेफ के क्षेत्रीय निदेशक जार्ज लारिया अदजेई ने बच्चों पर निवेश को जरूरी बताया और कहा कि उनके लिए अलग से बजट में प्रावधान होना चाहिए। गौरतलब है कि इस सम्मेलन के पहले कोलकाता में जी-20 के सदस्य देशों की समूह बैठक में यह बात उभर कर आई कि प्रत्येक देश में सरकार द्वारा विकास को मानवीय चेहरा दिया जाना जरूरी है। समाज के सबसे कमजोर वर्ग के लोगों के मानव विकास तथा डिजिटल और वित्तीय समावेश को बढ़ावा दिए जाने से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि होती और रोजगार बढ़ता है।
भारत में पिछले वर्ष दुनिया की सबसे अधिक विकास दर रही। इस वर्ष भी विकास दर करीब 6.5 से सात फीसद रहने की संभावना है। मगर विकास दर के साथ देश के मानवीय चेहरे को चमकाने पर भी ध्यान देना होगा। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा प्रकाशित मानव विकास रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड-19 के कारण बत्तीस वर्षों में पहली बार दुनिया भर में मानव विकास ठहर-सा गया है।
रिपोर्ट के मुताबिक जीवन प्रत्याशा, स्वास्थ्य और शिक्षा की बड़ी चुनौतियों के बीच भारत द्वारा कोरोना संकट का बेहतर तरीके से सामना किए जाने से भारत एचडीआइ रैंकिंग में केवल एक पायदान पीछे हुआ है। रिपोर्ट से यह भी मालूम होता है कि मानव विकास सूचकांक 2021 में जहां बांग्लादेश और चीन जैसे देश भारत से बेहतर स्थिति में हैं, वहीं मलेशिया और थाईलैंड जैसे एशियाई पड़ोसी देश भी उच्च श्रेणी में दिखाई दे रहे हैं।
निस्संदेह देश की तेजी से बढ़ती और दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का तमगा हासिल करने वाले भारत में मानव विकास सूचकांक में कमी आना विचारणीय प्रश्न है। पिछले दशक में देश में जिस तेजी से गरीबी और भूख की चुनौती में कमी आ रही थी, उसे कोरोना संकट ने बुरी तरह प्रभावित किया है। महामारी का आर्थिक प्रकोप विशेष रूप से मध्यवर्ग और वंचित परिवारों के लिए बहुत अधिक रहा है, जिसके चलते कई परिवार स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर के मामले में पीछे हुए हैं।
मगर इसमें भी कोई दो मत नहीं कि सरकार गरीबी, भुखमरी, परिवार कल्याण और स्वास्थ्य चुनौतियों के समाधान के लिए प्रभावी कदम उठा रही है। कोविड-19 के बाद इन सभी क्षेत्रों में सरकार ने प्रभावी पहल की और अभियान चलाए। अगर कोरोना काल में सरकार के ऐसे विशिष्ट सफल अभियान नहीं होते, तो देश में गरीबी भूख, स्वास्थ्य, जीवन प्रत्याशा और शिक्षा के क्षेत्र की चुनौतियों और दिखाई देतीं।
गौरतलब है कि कोरोना काल में प्रचुर खाद्यान्न उत्पादन के कारण मुफ्त खाद्यान्न की आपूर्ति से गरीबों को राहत मिली है और करोड़ों लोगों को गरीबी के नए दलदल में फंसने से बचाया गया है।
अब चीन और अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों में कोहराम मचा रहे कोरोना के नए बहुरूप के कारण वैश्विक आपूर्ति में बाधा से गरीबों के कल्याण की चुनौती और बढ़ गई है। इसी बात को अनुभव करते हुए विगत 6 दिसंबर, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से यह सुनिश्चित करने को कहा था कि देश में कोई व्यक्ति भूखा न सोए तथा केंद्र सरकार ने कोरोना महामारी के दौरान लोगों तक जिस तरह मुफ्त अनाज पहुंचाया है, वह व्यवस्था जारी रहनी चाहिए।
इसी परिप्रेक्ष्य में इस वर्ष से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत आने वाली देश की दो तिहाई आबादी यानी करीब 81.35 करोड़ लोगों को मुफ्त में अनाज देने की नई पहल की गई है। गौरतलब है कि देश में एनएफएसए के तहत प्रत्येक सामान्य उपभोक्ता को हर महीने पांच किलो की दर से अनाज वितरित किया जाता है, जबकि अंत्योदय वर्ग के उपभोक्ताओं को अनाज की यह मात्रा सात किलो प्रति व्यक्ति होती है।
31 दिसंबर, 2022 तक जहां तीन रुपए प्रति किलो की दर से चावल, दो रुपए प्रति किलो की दर से गेहूं और एक रुपए प्रति किलो की दर से मोटा अनाज दिया जाता रहा है, वहीं अब राशन कार्डधारक उपभोक्ताओं को सस्ती दर की राशन दुकानों पर कोई भुगतान नहीं करना होगा। इस नई व्यवस्था से जहां गरीबों की खाद्य सुरक्षा निश्चित होगी, वहीं खाद्य सुरक्षा और गरीब कल्याण योजना को एक किए जाने से सबसिडी में बचत होगी। साथ ही खाद्यान्न भंडार में अतिरिक्त अनाज की मौजूदगी बाजार में खाद्यान्न की कीमतों को नियंत्रित करते हुए दिखाई दे सकेगी।
निस्संदेह कोविड की चुनौतियों के बाद अब देश में लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा, कौशल विकास, रोजगार और सार्वजनिक सेवाओं में सुधार के साथ-साथ उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाने की दिशा में अब लंबा सफर तय करना है। स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि कोविड-19 ने सबसे ज्यादा स्वास्थ्य सुविधाओं की चुनौती खड़ी की है।
ज्ञातव्य है कि 2017 में नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में 2025 तक स्वास्थ्य पर खर्च को सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 प्रतिशत किया जाना निर्धारित किया गया था। फिर पंद्रहवें वित्त आयोग ने पहली बार स्वास्थ्य के लिए उच्च-स्तरीय समिति गठित की थी। इस समिति ने भी स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च को 2.5 प्रतिशत तक बढ़ाने की बात कही है। इस मामले में देश अब भी पीछे है।
यह भी उल्लेखनीय है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बनाए गए ‘कमीशन आन मैक्रो इकोनामिक्स ऐंड हेल्थ’ ने इस बात के पुख्ता सुबूत दिए कि स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च नहीं, बल्कि एक बेहतरीन निवेश है। यूरोपीय देशों ने महामारियों और संचारी रोगों को आर्थिक विकास और मानवीय कल्याण के लिए खतरे के रूप में देखा है। इन देशों ने सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली विकसित करने पर बड़ा निवेश किया है। पिछले दशकों में यूरोप में तेजी से बढ़ी जीवन प्रत्याशा और आर्थिक वृद्धि, दोनों ही मजबूत स्वास्थ्य सेवाएं और स्वस्थ जनमानस के कारण ही परिलक्षित हुई हैं। ऐसे में अब देश में स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च बढ़ाया जाना जरूरी है।
ऐसे दौर में जब अर्थव्यवस्था को अधिक दक्ष और योग्य श्रम बल की जरूरत है, जिसके लिए शिक्षा पर जीडीपी का करीब छह फीसद हिस्सा खर्च किया जाना जरूरी है। उम्मीद है, सरकार इसका ध्यान रखेगी कि जहां अर्थव्यवस्था समाज का अहम हिस्सा है वहीं मानव विकास भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। सरकार सामाजिक अधोसंरचना पर उसी तरह निवेश करेगी, जिस तरह भौतिक अधोसंरचना पर खर्च किया जा रहा है। देश में बहुआयामी गरीबी, भूख और कुपोषण खत्म करने के लिए नई जनकल्याण योजनाओं, सामुदायिक रसोई व्यवस्था तथा पोषण अभियान-2 को पूरी तरह कारगर और सफल बनाया जाएगा।
ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार हाल ही में जी-20 की वित्तीय समावेशन पर समूह बैठक और यूएनपीडी की मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट के मद्देनजर देश में मानव विकास की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली, न्यायसंगत और उच्च गुणवत्ता वाली सार्वजनिक शिक्षा, कौशल विकास, रोजगार, सार्वजनिक सेवाओं में स्वच्छता जैसे मुद्दों पर रणनीतिक रूप से प्रभावी कदमों के साथ आगे बढ़ेगी। निश्चित रूप से ऐसा होने पर आगामी मानव विकास सूचकांक में भारत की मानव विकास रैंकिंग में सुधार आएगा और देश का विकास का मानवीय चेहरा भी बेहतर दिखाई दे सकेगा।