राकेश दीवान

दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत केबाद जिस मसले पर आंसू बहाए जा रहे हैं वह है विधानसभा में लगभग शून्य हो चुका विपक्ष। कवि-नेता कुमार विश्वास ने तो पहले दिन ही अपनी उदारता उजागर करते हुए मंच पर केजरीवाल की मौजूदगी में कुलजमा तीन में से एक भाजपाई विधायक को विपक्ष का नेता बनाने की घोषणा तक कर दी थी। लेकिन क्या यह टोटका विपक्ष की भरपाई कर देगा?

मौजूदा कांग्रेस समेत समूची भाजपा भी, दिल्ली के नतीजों के अनुमानों के मुताबिक, सम्मानजनक हैसियत पा जाती, तो भी क्या उनमें विपक्ष कहलाने की काबिलियत मानी जा सकती थी? पिछले कई दशकों से जारी हमारी मुख्यधारा की देसी राजनीति में पक्ष-विपक्ष लगभग एकाकार हो गए हैं। आम लोगों के जीने-मरने के किसी भी सवाल पर दोनों तकरीबन एक-सी उड़नछू राय रखते और अक्सर जाहिर करते रहते हैं। इनका मुद््दा-आधारित सामूहिक विरोध करने वाले जनांदोलनकारियों में से अधिकतर अब ‘आप’ की सम्मानित जमात के सदस्य बन गए हैं। ऐसे में फिलहाल दिल्ली की सत्ता पर सवार ‘आप’ के लिए खांटी विपक्ष कहां से आएगा?

प्रेसनोट में भले ही कहा जाता हो कि ‘आप’ सड़कों पर रोजमर्रा आमदरफ्त करते आम आदमी का प्रतिनिधित्व करती है, लेकिन उनकी गर्भनाल बताती है कि उनका जैविक जोड़ सत्ता की राजनीति में रमी कथित मुख्यधारा की पार्टियों से अलहदा, गैर-सरकारी संगठनों, जनांदोलनों से है। आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल और देश भर में फैले उनके संगी-साथी बरसों से उन मुद््दों पर संघर्ष की मशाल थामे हैं, जो चुनाव लड़ती और हारती-जीतती पार्टियों की कथनी और करनी से सिरे से गायब हैं। उनके संघर्षों ने सूचना के अधिकार, रोजगार गारंटी और वनाधिकार कानून समेत विस्थापितों के पुनर्वास, परमाणु ऊर्जा के दुष्प्रभाव, बदहाल होती खेती-किसानी, गरीबों की खाद्य-सुरक्षा, जहरीले जीएम खाद्य, जल-जंगल-जमीन से बेदखली, रोजगार, शिक्षा और इलाज जैसे बुनियादी मसलों पर राजनीतिक पार्टियों को, भले ही बड़े बेमन से, विचार और कार्रवाई करने के लिए मजबूर किया है। पिछले कुछ सालों में रोजगार गारंटी, वनाधिकार, सूचना का अधिकार, विस्थापन-पुनर्वास, महिला सुरक्षा जैसे अनेक मुद््दों पर बने कानून इन एनजीओ या जनसंगठन कहे जाने वाले समूहों की तीखी लड़ाइयों का नतीजा हैं।

‘आप’ की इस विरासत का नमूना साफतौर पर ‘दीवाल पर लिखा’ दिखाई देता है। मौजूदा राजनीतिक फलक के बरक्स नामालूम-सी ही कही जाने वाली इन बातों के अर्थों को अब मुख्यधारा राजनीति को समझना शुरू कर देना चाहिए। इन मामूली, लेकिन नीयत उजागर करने वाली बातों में वोट डलने के ठीक चौबीस घंटे पहले समर्थन के इमाम बुखारी के प्रस्ताव को खारिज कर देना या ईस्ट पटेल नगर के अपने दफ्तर के पड़ोसियों से जीत के जश्न के लिए अग्रिम माफी मांग लेना या अपनी पत्नी का सार्वजनिक परिचय करवाना या रोज चंदे का हिसाब अपलोड करना आदि शामिल की जा सकती हैं। ‘आप’ ने अपने पूरे चुनावी अभियान में किसी राजनेता की, यहां तक कि उन्हें नक्सली, अराजक आदि कहने वाले नरेंद्र मोदी तक की, कोई निजी छीछालेदर नहीं की।

ऐसे राजनीतिक व्यवहार करने वाली ‘आप’ का विरोध कैसे और किन मुद््दों पर किया जा सकेगा? खासकर तब, जब पिछली बार के ऐसे ही अभिनव व्यवहार ने उन्हें सकारात्मक नतीजे भी दिए थे। आज जीतनराम मांझी को नीतीश कुमार की गोद से उतार कर कुल जमा साढ़े दस महीने का सत्ता-सुख भोगने की खुल्लमखुल्ला जुगत जमाने में लगी भाजपा क्या पिछले साल दिल्ली में अपनी सरकार नहीं बनवा सकती थी? उसके लिए दो-चार विधायक खरीद कर हर्षवर्धन को मुख्यमंत्री की गद््दी पर विराजमान करवा देना कोई ऐसा दुरूह काम तो नहीं था? अलबत्ता, पिछले साल दिल्ली में भाजपा यह नहीं कर पाई, क्योंकि उसके सामने अपने ऊंचे नैतिक मापदंडों की कसमें खाती अज्ञात कुलशील वाली ‘आप’ थी।

लगभग विचित्र और नई राजनीतिक संस्कृति लेकर खड़ी इस ‘आप’ का विपक्ष कौन और कैसा होगा? मौजूदा राजनीतिक जमातों में तो गद््दी की उठापटक के अलावा विरोध का कोई लक्षण बचा नहीं है और संसद, विधानसभाओं के बाहर जो गैर-दलीय राजनीतिक समूह विपक्ष की भूमिका निभा रहे थे वे अब खुद सत्ताधारी हो गए हैं। नर्मदा जैसी नदियों पर खड़े किए जा रहे विशालकाय बांधों, परमाणु ऊर्जा, लगातार बढ़ती किसान आत्महत्याओं, जीएम खाद्य, भूमि अधिग्रहण, विस्थापन, सांप्रदायिकता, भुखमरी, खेती की बदहाली आदि को मुद््दा बना कर देश भर में जगह-जगह संघर्षरत जनसंगठन अब ऐसे मुकाम पर पहुंच गए हैं, जहां उन्हें भी एक राष्ट्रव्यापी राजनीतिक मंच की जरूरत महसूस होने लगी है।

जाहिर है, यह मंच या पार्टी ‘उसकी कमीज से मेरी कमीज मैली क्यों’ -नुमा मौजूदा राजनीतिक जमातों से भिन्न होगी। राजनीति में प्रवेश से लगा कर उसमें बने रहने और शिखर तक पहुंचने के उनके तौर-तरीके, सामान्य राजनीतिक कर्मकांडों से भिन्न होंगे। ऐसे गैर-दलीय राजनीतिक समूहों को ‘आप’ फिलहाल राज्यस्तरों पर ऐसा मंच मुहैया करवाने का दावा कर रही है। अलबत्ता, इस प्रक्रिया ने ‘आप’, और इस लिहाज से अन्य राजनीतिक दलों के लिए एक कारगर विपक्ष की संभावनाओं को खारिज कर दिया है।

ऐसे में ‘आप’ के सामने निरंकुश होने के अलावा कोई और विकल्प बचेगा? ‘मुंसीपाल्टी’ से थोड़े ही ऊंचे दर्जे की दिल्ली सरकार चलाने के लिए बात-बात पर उसे केंद्र का सहारा लेना होगा और मौजूदा केंद्र की राजनीतिक शालीनता को कौन नहीं जानता? क्या वह अपनी चौतरफा मिट््टीपलीद करने वाली ‘दुश्मन’ जमात को सेंत-मेंत में सरकार बनाए रखने देगी? जाहिर है, ‘आप’ का अधिकांश समय केंद्र के खिलाफ लगातार आंदोलनरत रहने में ही जाएगा। यह स्थिति ‘आप’ को लेकर ताने गए अनेकानेक मंसूबों के लिए निराशाजनक होगी।

विपक्ष-रहित दिल्ली की इस सरकार को अब उन लोगों की बात सुननी होगी, जो वैचारिक, निजी या ऐसे ही किन्हीं कारणों से ‘आप’ की थोक भर्ती में शामिल नहीं हो पाए थे। ये लोग ‘आप’ के जन्म से खासे उत्साहित थे और मानते थे कि अब बुनियादी मुद््दों को व्यापक राजनीतिक फलक पर उठाना प्रासंगिक ही नहीं, जरूरी भी होता जा रहा है। गैर-दलीय राजनीतिक जनसंगठनों में सक्रिय और उनके समर्थक ऐसे अनेक लोग ‘आप’ की तमाम बालसुलभ राजनीतिक कारगुजारियों के बावजूद उसे आशा की एक किरण का दर्जा देते हैं। अलबत्ता ऐसे लोगों में दिल्ली की चमकदार जीत भर से ‘आप’ का टीआरपी नहीं बढ़ने वाला। उनके कई सवाल अब भी अनुत्तरित हैं। मसलन ‘आप’ ने कॉरपोरेट घरानों पर कोई स्पष्ट नीति क्यों नहीं बनाई? यह कहने भर से काम नहीं चलेगा कि गरीबों, अमीरों ने उसे समान रूप से पसंद किया है। पिछली ‘आप’ सरकार और उसके ‘पूर्वजों’ पर भी ये आरोप लगे थे कि उन्होंने देश के तमाम संसाधनों पर कब्जा जमाने में जुटे कॉरपोरेट घरानों पर कोई सवाल नहीं उठाया है।

इसी तरह जनहित के अनेक मुद््दों पर अब तक अपनी स्पष्ट नीतियां नहीं बनाने का भी ‘आप’ पर सवाल है। सामान्य बातचीत में पार्टी के कार्यकर्ताओं का मानना है कि पहले आम आदमी को नीति निर्माता बन जाने दीजिए, फिर वही हर तरह की नीति को तैयार कर लेगा। लेकिन तब तक आखिर किस आधार पर ‘आप’ की सरकार के शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, विस्थापन, कृषि, खनन आदि कार्यक्रमों की समीक्षा की जाए? भ्रष्टाचार-मुक्त भारत बनाने के लोकप्रिय मंसूबे के साथ-साथ उन्हें कई नीतियां भी उजागर करनी होंगी। आज तक के अपने करतबों की मार्फत भले ही जमाने भर को सपने दिखाए जाते रहे हों, लेकिन किसी भी मामले की अपनी नीति को उन्होंने सभी से छिपाए रखा है।

नीति-विहीन पार्टी एक तरफ तो शेर और बकरी को एक ही घाट पर मरने-मारने का मौका देती है और दूसरी तरफ किसी ठोस नतीजे पर पहुंचने के पुख्ता आधार को छिपाए रखती है। दोनों ही स्थितियों में पार्टी को कुछ भी, कैसे भी करने की स्वनिर्मित सुविधा उपलब्ध रहती है। ऐसे में ‘आप’ को अपनी नीतियों का निर्माण करना चाहिए या फिर, जैसा कि पार्टी के कुछ उत्साहीलाल कहते हैं कि वे मौजूद हैं, तो उन्हें आम लोगों के सामने लाना चाहिए। नीतियां जनता को समझाने और फिर लागू करने के लिए होती हैं, न कि सात समंदर पार, पिंजरे में बंद तोते के दिल में छिपा कर रखने के लिए।

सामान्य शहरी समाज की बिजली, पानी, र्इंधन, परिवहन जैसी जरूरतों पर अंगुली रख कर दिल्ली राज्य की सत्ता पर विराजी ‘आप’ को इन छोटी-मोटी जरूरतों की राजनीति समझनी होगी। आखिर आम जनता महंगी बिजली, पानी, परिवहन, रहन-सहन और खान-पान का असहनीय बोझ किसी दफ्तर के बाबू या पुलिस के सिपाही की ऊपरी कमाई के चलते नहीं भुगत रही है। इसके लिए वह राजनीति और बुनियादी नीतियां जिम्मेवार हैं जिनके जरिए यूपीए और राजग की सरकारों ने उद्योगों और उद्योगपतियों का सतत हितसंवर्धन किया है। पिछले साल की अपनी सरकार में टाटा और अंबानी पर निशाना साध कर ‘आप’ ने इसे ठीक समझ भी लिया है।

इराक पर अमेरिकी हमले के विरोध के बाद उठी, आम लोगों की परंपरागत राजनीतिक चौहद्दियों के बाहर की असहमति को दुनिया भर में गैरदलीय उभार की शुरुआत भी माना जाता है। अमेरिका, यूरोप और अरब देशों में मौजूदा विकास नीतियों की तीखी मुखालफत हुई है और नतीजे में ‘ऑकुपाइ वॉल स्ट्रीट’ जैसे स्वत:स्फूर्त आंदोलनों ने सरकारों के सामने चुनौती खड़ी की है। ये आंदोलन किसी सर्वमान्य पारंपरिक राजनीतिक विचारधारा के बाहर आम लोगों ने खड़े किए हैं जिनका वर्गीय या नस्ली विभाजन नहीं किया जा सकता। देश की राजधानी में पिछले सालों में हुए अण्णा हजारे की अगुआई वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और ‘निर्भया’ को लेकर प्रभावी ढंग से जुटे आम लोगों ने भारत में भी परंपरागत राजनीतिक खांचों को सामूहिक रूप से लगभग खारिज करते हुए असरदार आवाज उठाई थी।

आम आदमी पार्टी हमारे लोकतंत्र के मौजूदा ताने-बाने से खिन्न इसी तरह के स्वत:स्फूर्त लोगों और कुछेक एनजीओ की मिलीजुली कोशिश है। इसमें व्यवस्थित राजनीतिक समझ के साथ भागीदारी निभाने वालों में अधिक से अधिक देश भर में फैले जनांदोलनों, जनसंगठनों को शामिल किया जा सकता है। इस सब के बावजूद ‘आप’ का उद्भव एक नई राजनीति के उभार का संकेत जरूर है। दिल्ली के चुनाव जीतने की बल्ले-बल्ले के अलावा ‘आप’ अपनी इस ऐतिहासिक भूमिका को भी देखे, समझे और अगुआई करे तो शायद आम लोगों का थोड़ा भला होगा।

 

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