स्वामी अग्निवेश

पूरे देश के राष्ट्रीय विकास में पैंसठ प्रतिशत योगदान असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का है। इस पैंतालीस करोड़ से अधिक आबादी की बड़े पैमाने पर उपेक्षा हो रही है। इन्हें न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलती। बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम, 1976 के अनुसार जो व्यक्ति नॉमिनल वेज यानी नाममात्र की मजदूरी पर काम करता है, वह बंधुआ मजदूर है। ‘नॉमिनल वेज’ की परिभाषा में कहा गया है कि जो भी वेतन या न्यूनतम मजदूरी से कम हो वह ‘नॉमिनल वेज’ है। संविधान की धारा 23 के अनुसार किसी भी नागरिक से जबरिया मजदूरी यानी बंधुआ मजदूरी नहीं कराई जा सकती। विसंगति यह है कि न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 यानी संविधान बनने से पहले का है। 26 जनवरी, 1950 में भारत के गणतंत्र बनने के बाद इस विसंगति को दूर करने का प्रयास नहीं हुआ।

उच्चतम न्यायालय और बाद में संसद ने स्पष्ट किया कि जीने के अधिकार का मतलब है सम्मान के साथ जीने का अधिकार। भिखारी भीख मांग कर जीवन यापन करता है, उसके जीने के तरीके को सही जिंदगी नहीं कहा जा सकता। अगर जीना है तो प्रत्येक नागरिक सम्मान के साथ जिए। बाद में शिक्षा का मौलिक अधिकार इसमें जुड़ गया। इतने सारे प्रावधान और नियम केवल जिंदा रहने के लिए जरूरी हैं, जैसे- व्यक्ति का शिक्षित होना जरूरी है, उसका गरिमामय वातावरण में जीना जरूरी है। न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, इन मौलिक अधिकारों की पूर्ति में पूरी तरह विफल है।

संसद, सरकार और सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक सभी संगठनों को मांग करनी चाहिए कि संविधान बनने के बाद संविधान की भावनाओं के अनुरूप न्यूनतम मजदूरी अधिनियम आना चाहिए। भारत के संविधान में किसी भी नागरिक को न्यूनतम मजदूरी का अधिकार नहीं है। गरिमा के साथ जीने का अधिकार है, लेकिन न्यूनतम मजदूरी का मौलिक अधिकार नहीं है। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में ‘लिविंग वेज’ (धारा 44) की बात कही गई है, मनुष्य को जिंदा रहने के लिए निश्चित कैलोरी चाहिए। न्यूनतम मजदूरी के नाम पर कैलोरी की अवधारणा अतार्किक और अवैज्ञानिक है, लेकिन उसी से सरकार न्यूनतम मजदूरी की दर तय करती है।

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो न्यूनतम मजदूरी सरकार द्वारा तय है वह भी गरीब मजदूरों तक नहीं पहुंचती। यह देश की तिरानबे प्रतिशत आबादी के साथ न केवल अन्याय है, बल्कि सोचा-समझा अत्याचार और धोखा है।

पूरे देश में राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी की एक नीति होनी चाहिए। देश में दो प्रकार की नीतियां चल रही हैं। एक, केंद्र सरकार की और दूसरी राज्य सरकार की नीति। इसमें भी हर राज्य की न्यूनतम मजदूरी की दर अलग-अलग है। देश में कई काम ऐसे हैं, जिनमें राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों उलझ कर रह जाती हैं और यह फैसला नहीं कर पातीं कि उक्त प्रायोजित काम केंद्र सरकार के अंतर्गत आएगा या राज्य सरकार के। ऐसी स्थिति में अनेक मामले सालों तक विचाराधीन पड़े रहते हैं, और कोई फैसला नहीं हो पाता।

बंधुआ मजदूरी का मामला संविधान के मौलिक अधिकारों के अंतर्गत आता है। पहले अगर न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलती थी, तो शिकायतकर्ता श्रम आयुक्त के पास जाते थे और अब बंधुआ मजदूरी के मामले में जिलाधिकारी के पास जाते हैं। पूरी मजदूरी दिलाने का काम श्रम आयुक्त कर सकता है, लेकिन वह मालिक को सजा दिलाने का काम नहीं कर सकता। यह अधिकार श्रममंत्री को भी नहीं है।

बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम को लागू करने का अधिकार जिलाधिकारी और उपखंड अधिकारी को है। बंधुआ मजदूरी मौलिक अधिकार का उल्लंघन है, वह चाहे कम मजदूरी की वजह से क्यों न हो। न्यूनतम मजदूरी के उल्लंघन पर कोई शिकायतकर्ता सीधे उच्चतम न्यायालय नहीं जा सकता, जबकि बंधुआ मजदूरी के मामले में संविधान की धारा 32 के तहत सीधे सर्वोच्च न्यायालय में वह खुद या उसकी तरफ से कोई नागरिक जा सकता है।
सरकार ने 1986 में बालश्रम उन्मूलन अधिनियम बनाया, तो दस वर्ष पहले बने बंधुआ मजदूरी अधिनियम, 1976 को ध्यान में नहीं रखा। किसी बालक को ‘बाल मजदूर’ (चाइल्ड लेबर) कहना सबसे बड़ा मजाक है। बालक की परिभाषा में अनेक मतभेद हैं। बालक की उम्र को लेकर अलग-अलग राय हैं। चौदह वर्ष से कम उम्र के बच्चे को बाल मजदूर कहा जाता है।
सरकार कहती है कि बाल मजदूरी को प्रतिबंधित करेंगे। बच्चे को शिक्षा से जोड़ेंगे और कुछ सुविधाएं देंगे। लेकिन कानून का ईमानदारी से क्रियान्वयन नहीं हो रहा है। ऐसा कौन-सा बच्चा है, जो खेलना छोड़ कर स्वेच्छा से आठ से बारह घंटे तक मजदूरी करने को राजी हो जाए। कोई भी बच्चा मजबूरी में मजदूरी करता है। ऐसा बच्चा ‘जबरिया बाल मजदूर’ यानी बंधुआ बाल मजदूर है। किसी कामगार बालक को ‘बाल मजदूर’ कहना बहुत बड़ा मजाक है। क्योंकि बच्चा चौदह वर्ष से कम उम्र का है, इसलिए उसे ‘बाल मजदूर’ कहना असंवैधानिक है।

बंधुआ मजदूर की कोई उम्र निश्चित नहीं है। मजदूर आठ वर्ष का हो या साठ वर्ष का उसे बंधुआ मजदूर ही कहना चाहिए। कामगार बच्चों का बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम, 1976 के तहत पुनर्वास होना चाहिए। सरकार ने हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार दिया है। बच्चों को बालश्रम के कई क्षेत्रों में छूट है और सरकार शिक्षा के अधिकार की बात करती है तो यह मजाक से कम नहीं है। सरकार को अठारह वर्ष तक प्रत्येक बच्चे को निशुल्क शिक्षा का अधिकार देना चाहिए। अगर बालक मजदूरी कर रहा है, तो उसके मौलिक अधिकारों का खुलेआम हनन हो रहा है।

कोई मालिक वयस्क के स्थान पर बालक को काम पर क्यों रखता है? क्योंकि बालक को न्यूनतम मजदूरी नहीं देनी पड़ती। बालक के अतिरिक्त श्रम का मालिक को भुगतान नहीं करना पड़ता यानी ‘ओवर टाइम’ का पारिश्रमिक भी मालिक नहीं देता। इसलिए बाल मजदूरी वयस्क बंधुआ मजदूरी से भी ज्यादा खतरनाक है। बालश्रम उन्मूलन कानून को हटा देना चाहिए। बाल श्रमिकों की मुक्ति और पुनर्वास की प्रक्रिया को बंधुआ मजदूरी अधिनियम, के अंतर्गत लाना चाहिए। न्यूनतम मजदूरी की दर समय-समय पर महंगाई के अनुसार तय होनी चाहिए। कानून के अनुसार असंगठित मजदूर की न्यूनतम मजदूरी पांच साल बाद तय होती है, जो न्यायोचित नहीं है।

राज्यों में अलग-अलग न्यूनतम मजदूरी क्यों है? इसका जवाब अगर सरकार से पूछा जाए तो उत्तर मिलेगा कि प्रत्येक राज्य में जीवन निर्वाह के स्तर के अनुसार अलग-अलग न्यूनतम मजदूरी तय की गई है। केंद्रीय कर्मचारी किसी भी राज्य में काम करे उसे हर राज्य में वही केंद्रीय सरकार वाला वेतन मिलेगा उसमें कोई अंतर नहीं आएगा।

जब सरकारी कर्मचारी के वेतन का मामला आता है तो पूरे भारत में कश्मीर से कन्या कुमारी तक न्यूनतम मजदूरी के समान होने की बात कही जाती है, लेकिन जब वेतन के संबंध में असंगठित तबके का मुद्दा उठता है तो सरकार अलग-अलग प्रांत के जीवन निर्वाह के स्तर की आड़ लेती है।

सरकारी कर्मचारी और अधिकारियों का वेतन छठे वेतन आयोग ने तय किया है। सरकारी कर्मचारियों के वेतन का पैमाना क्या है? उनका वेतन तय करने का तार्किक आधार क्या है? सरकारी कर्मचारियों का वेतन तय करने के लिए बड़ी-बड़ी बैठकें होती हैं। बारीक से बारीक बात पर विचार-विमर्श होता है। हर प्रकार की सुविधा, नौकरी की सुरक्षा, पेंशन आदि उन्हें मिलती है, मगर असंगठित मजदूर के वेतन पर कोई तार्किकता और वैज्ञानिक आधार मान्य नहीं होता। बदलते मौसम में कठोर जी-तोड़ मेहनत सिर्फ असंगठित क्षेत्र के मजदूर, किसान करते हैं। सरकारी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों का परिश्रम असंगठित मजदूरों के कठोर परिश्रम के सामने नगण्य है।

सरकार ने पूरे देश में केवल एक समान न्यूनतम मजदूरी लागू करने की बात तो कही, लेकिन लागू की जाने वाली न्यूनतम मजदूरी की दर निर्धारित नहीं की। तय की गई न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी देना आखिर कहां तक न्यायसंगत है? न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी देना बंधुआ मजदूरी है और व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन है। सरकार अपने कानून की अवहेलना स्वयं कर रही है।

गरीब मजदूर किसान के साथ सरकार का एक और मजाक है मनरेगा। ग्रामीण गरीब मजदूरों-किसानों को रोजगार दिलाने के लिए सरकार ने बहुत बड़ी योजना शुरू की, जिसे मनरेगा के नाम से जाना जाता है। इस योजना के अंतर्गत ग्रामीण मजदूरों को सौ रुपए प्रतिदिन के हिसाब से सौ दिन के काम का प्रावधान है। लेकिन सरकार ने जानबूझ कर इस कानून में एक कमी रख दी कि इस योजना में न्यूनतम मजदूरी अधिनियम लागू नहीं होगा। मनमोहन सिंह सरकार दावा करती थी कि दुनिया में कोई भी सरकार इतनी बड़ी योजना नहीं चला रही है। लेकिन इस कानून को बनाते समय सरकार ने यह छूट ली कि इस योजना के अंतर्गत यह जरूरी नहीं होगा कि राज्य द्वारा निर्धारित की गई न्यूनतम मजदूरी मनरेगा में दी जाए।

छठे वेतन आयोग के अनुसार केंद्र और राज्यों के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को पंद्रह हजार रुपए मासिक यानी पांच सौ रुपए प्रतिदिन मिलता है। इसलिए असंगठित मजदूरों को संगठित करके पांच सौ रुपए प्रतिदिन या पंद्रह हजार रुपए मासिक न्यूनतम मजदूरी देने की मांग करनी चाहिए। यह देश के पैंतालीस करोड़ गरीब, पिछड़े, असंगठित मजदूरों से जुड़ा मामला है।

1991 में नरसिंह राव सरकार ने मुक्त बाजार व्यवस्था लागू करने की नीति अपनाई ताकि बाजार अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करे और सरकार इस मामले में निष्क्रिय रहे। बाजार पर सरकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए। जब अधिक उत्पादन होगा, तो बाजार माल से भर जाएगा, पर उसे खरीदेगा कौन? तब राष्ट्रीय आय बहुत कम थी। जनता की क्रय-शक्ति कम थी। खरीदार के अभाव में बाजार धड़ाम से नीचे गिरता। इस कमी को दूर करने के लिए कृत्रिम उपायों से मध्यवर्ग का अभूतपूर्व विकास किया गया। सरकारी कर्मचारियों के वेतन में भारी वृद्धि की गई। मध्यवर्ग को प्रोत्साहन दिया गया, ताकि उसकी खरीदने की क्षमता बढ़े। पहले जहां साधारण संख्या में मध्यवर्ग था, वह अब बढ़ कर तीस-पैंतीस करोड़ हो गया। बाजार पर मध्यवर्ग छा गया और कीमतें आकाश छूने लगीं।

मगर पैंतालीस करोड़ लोग आज भी गरीब हैं। उनका उत्थान नहीं हुआ। उनके पास क्रय-शक्ति नहीं है। बाजार का तर्क है कि उन्हें भी सशक्त बनाया जाए। मध्यवर्ग की तरह उनकी भी आय बढ़ेगी तो बाजार और भी फले-फूलेगा। अगर ऐसा नहीं होगा तो बाजार खतरे में पड़ जाएगा। अगर शेष पैंतालीस करोड़ लोग भी क्रय-शक्ति से लैस हो जाएंगे तो बाजार को अप्रत्याशित ताकत मिलेगी। इसलिए असंगठित क्षेत्र के मजदूर की आय बढ़ाना जरूरी है। बाजार को और अधिक ऊंचाई पर ले जाने के लिए यह जरूरी है कि इस ओर शीघ्र कदम उठाए जाएं।

 

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