विनोद कुमार
पिछले तीन दशकों से, खासकर मंडलवादी राजनीति के उभार के बाद चुनावी विश्लेषणों-आकलनों का एक आसान तरीका हमने बना लिया था कि जिस क्षेत्र-विशेष को हम समझना चाहते हैं, उसके जातीय समीकरणों पर बारीकी से गौर कर लिया, थोड़ा-बहुत आगे-पीछे हुई घटनाओं को ध्यान में रखा और भविष्यवाणी कर दी, जो बहुधा सटीक भी बैठती थी। मंडलवादी राजनीति के उफान के बाद लालू प्रसाद यादव और शिबू सोरेन के बीच चुनावी तालमेल हुआ। पिछड़ा, अल्पसंख्यक और आदिवासी गठजोड़ बना और झामुमो ने चौदह संसदीय सीटों वाले झारखंड, तत्कालीन दक्षिण बिहार, कीं छह सीटें जीत लीं। कुछ सीटें राजद और कांग्रेस ने। सिमट गई भाजपा। कांग्रेस लगातार कई चुनावों में तीसरे-चौथे स्थान पर रही। लेकिन ‘झारखंड मेरी लाश पर बनेगा’ वाले बयान के बाद यह समीकरण टूटा तो दक्षिण बिहार की अधिकतर सीटें भाजपा जीतने लगी।
झारखंड में मिली चुनावी सफलता के इस दौर में ही भाजपा ने 2000 में झारखंड राज्य का गठन कर दिया। बावजूद इसके बिहार से सटे उत्तरी छोटानागपुर के चतरा, पलामू, हजारीबाग आदि जिलों में, जो दलित-पिछड़ा-अल्पसंख्यक बहुल इलाके हैं, राजद को कुछ सीटें मिल जाया करती थीं। 2004 के संसदीय चुनाव में तो कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, झारखंड मुक्ति मोर्चा और वामदलों के मुकम्मल चुनावी गठजोड़ में भारतीय जनता पार्टी बड़ी मुश्किल से एक सीट बचा पाई थी, उस समय तक भाजपा में रहे बाबूलाल की कोडरमा सीट। लेकिन पिछले संसदीय चुनाव में सिर्फ दो सीट पर झामुमो चुनाव जीत सका। राजद, कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली। इस बार के विधानसभा चुनाव में भी राजद का खाता नहीं खुला। अन्नपूर्णा देवी तक हार गर्इं। कांग्रेस की भी सीटें लगभग आधी, यानी छह रह गर्इं।
कहा जा सकता है कि चूंकि झामुमो से कांग्रेस का चुनावी तालमेल नहीं हुआ, इसलिए मोदी को झारखंड में बढ़त मिल गई। लेकिन गौर करने की बात है कि उत्तरी छोटानागपुर के जिन इलाकों की बात हम कर रहे हैं, वहां आदिवासी आबादी नाम मात्र को रह गई है। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के करीब आने से उपचुनावों में जिस तरह की सफलता बिहार में इस जोड़ी को मिली, उसे देखते हुए उम्मीद की गई थी कि बिहार से सटे झारखंडी जिलों में लालू, नीतीश और कांग्रेस के गठजोड़ को सफलता मिलेगी। लेकिन पहली बार उन इलाकों में भी राजद, जद (एकी) और कांग्रेस का गठजोड़ भाजपा से पिछड़ गया।
इस चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा को पहले से एक ज्यादा, यानी उन्नीस सीटें मिली हैं। इस आधार पर हेमंत सोरेन की वाहवाही भी हो रही है। उससे ज्यादा क्षेत्रीय दलों के उभार की बात कही जा रही है। लेकिन गौरतलब यह है कि अपने ही गढ़ में, यानी संथाल परगना में झामुमो का आधार सिमटता जा रहा है। इस बार झामुमो को संथाल परगना की अठारह में से मात्र छह सीटें मिलीं। यहां तक कि दुमका सीट से हेमंत सोरेन चुनाव हार गए, जो उनके पिता का कार्यक्षेत्र और संसदीय क्षेत्र रहा है। वहां भाजपा जीत गई। आरक्षित सीटों पर आदिवासी या दलित ही खड़ा होगा, लेकिन जो जीते वे भाजपा के टिकट पर।
झामुमो को कई सीटें तो महज इसलिए मिल गर्इं कि कुछ पुराने नेता चुनाव के पहले पार्टी में शामिल हो गए। मसलन, स्टीफन मरांडी लौट आए और जीत गए। चमड़ा लिंडा दूसरी पार्टी के विधायक थे। चुनाव के पहले झामुमो में शामिल हो गए और जीत गए। यह स्थिति तब है जब हेमंत सोरेन की सरकार पिछले डेढ़ साल से चल रही थी और उन्होंने चुनाव प्रचार में अपनी सारी ताकत झोंक दी थी। साफ है कि आदिवासी और दलित समुदाय का भी थोड़ा खाता-पीता तबका, बदलाव का आकांक्षी युवा, भाजपा की तरफ देखने लगा है।
यह गौरतलब है कि इस चुनाव में झारखंडी जनता ने तमाम मुख्यमंत्रियों को, उन तमाम नेताओं को उनकी औकात बता दी जो झारखंड को अपनी जागीर और झारखंडी मतदाता को अपना बंधुआ समझते थे। चाहे वे बाबूलाल मरांडी हों, अर्जुन मुंडा हो, मधु कोड़ा हों या हेमंत सोरेन। वैसे, हेमंत दो सीट पर चुनाव लड़ रहे थे, लेकिन जिस दुमका सीट को अपनी बपौती समझते थे, वहां हार गए। सबसे मजेदार तो हुआ आजसू नेता सुदेश महतो के साथ, जो भाजपा की कथित लहर पर सवार होने के बावजूद सिल्ली सीट से हार गए, जहां उन्होंने पैसा पानी की तरह बहाया था। जहां वे मुलायम सिंह के सैफई की तरह हर वर्ष सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर मुंबई से तारिकाओं को बुला कर अपने विधानसभा क्षेत्र की जनता को दीदार करवाया करते थे। वैसे, उनकी पार्टी पांच सीटों पर चुनाव जीत गई है और भाजपा को सत्ता में लाने का औजार बनी है।
भाजपा से अलग होने के बाद बाबूलाल मरांडी इस राज्य के लिए एक उम्मीद बने थे, पिछले चुनाव में उन्हें ग्यारह सीटें भी मिलीं, जबकि भाजपा तीस से घट कर सोलह हो गई थी। लगता था कि मरांडी झारखंड की राजनीति में कोई बड़ा उलटफेर कर सकेंगे। लेकिन इस चुनाव में बड़ी कठिनाई से छह सीटें जीत सके, जबकि भाजपा सोलह से अड़तीस सीटों पर पहुंच गई।
दरअसल, मोदी ने अपने विवादित लेकिन बहुप्रचारित गुजरात मॉडल के द्वारा यह उम्मीद जनता के बीच, खासकर युवाओं के बीच जगा दी है कि वर्तमान पूंजीवादी-अ़र्द्धसामंती व्यवस्था में ही सुधार की संभावनाएं हैं। लोगों की बेरोजगारी दूर हो सकती है। उनके ‘अच्छे दिन’ आ सकते हैं। उनके जीवन में खुशहाली आ सकती है। वे देशी-विदेशी पूंजी और कॉरपोरेट घरानों की मदद से उद्योग का जाल फैलाएंगे और बेरोजगारी छूमंतर हो जाएगी। विदेशों में जमा काला धन वापस आएगा और हर भारतीय के बैंक खाते में लाखों रुपए पहुंच जाएंगे। अब जो निराश मानस जमीन में गड़े धन की खबर से खुदाई के स्थल पर जमा होने लगता है, मेला लगाने लगता है, वह कैसे इस पर यकीन न करे? और इसके साथ हिंदुत्व का घालमेल, जो दंगे, ‘लव जिहाद’, धारा 370, पाकिस्तान के खिलाफ थोड़े कड़े तेवर मात्र से स्पंदित होने लगता है। इस समाज को मोदी की हर अदा प्यारी लगती है। वह इस बात से मुग्ध हो उठता है कि मोदी की अपील पर एक महिला ने अपना मंगलसूत्र बेच कर अपने घर में शौचालय बनवा लिया। उन्हें इस तथ्य से कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश की एक विशाल आबादी के पास बेचने के लिए मंगलसूत्र तो क्या, कुछ भी मूल्यवान नहीं। अपने श्रम के सिवा।
सवाल यह उठता है कि भाजपा या मोदी सत्ता में रहें तो हर्ज क्या है? हर्ज इसलिए है कि है कि भाजपा और मोदी उग्र पूंजीवाद के जिस रास्ते पर चल रहे हैं, उससे बहुसंख्यक आबादी की समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला। अब तक झारखंड में किसी भी दल की मजबूत सरकार नहीं थी। इसलिए बाबूलाल, अर्जुन मुंडा से लेकर अब तक के मुख्यमंत्रियों के जमाने में जो निजी कंपनियों से करार हुए, वे जमीन पर नहीं उतर सके। सत्ता में आने और उसमें बने रहने के लिए नेताओं में आपाधापी मची रही। इसलिए कॉरपोरेट जगत के लिए जमीन का अधिग्रहण नहीं हो सका। लौह अयस्क और कोयला खदानों का आबंटन भी कुछ तो विवादों की वजह से और कुछ अस्थिर सरकारों की वजह से अधर में लटका रहा।
मगर अब राज्य में कॉरपोरेट पोषित और कॉरपोरेट की हितैषी एक स्थिर सरकार आ गई है। जाहिर है, अब तथाकथित विकास का काम तेज गति से होगा। मोदी श्रम-कानूनों को ढीला कर चुके हैं। देशी-विदेशी पूंजीपतियों के लिए पलक पांवड़े बिछाने की घोषणा कर चुके हैं। पर्यावरण-कानूनों को लचीला बनाया जा रहा है। यानी आदिवासी जनता के लिए विस्थापन का एक नया दौर शुरू होने जा रहा है। विडंबना यह कि न सिर्फ गैर-आदिवासी युवा, बल्कि आदिवासी समाज में भी उभरता अभिजात और उसका युवा तबका औद्योगिक विकास में ही रोजी-रोटी और अपना भविष्य देख रहा है।
इस स्थिति का मुकाबला कौन करेगा? तमाम प्रमुख राजनीतिक शक्तियां उसी अर्थनीति पर चल रही हैं जिस पर पहले कांग्रेस और अब भाजपा चल रही है। कांग्रेस ने नई औद्योगिक नीति और उदारीकरण का दौर शुरू किया। स्वदेशी का नारा जपने वाली भाजपा अब उन्हीं नीतियों पर और भी ज्यादा भरोसा कर चल रही है। बाबूलाल मरांडी हों या शिबू सोरेन, उसी रास्ते के राही हैं। बाबूलाल मरांडी ने ही ग्रेटर रांची की कल्पना की और झारखंड के विशेष भू-कानूनों में संशोधन की आवश्यकता पर बहस शुरू की। शिबू सोरेन के मुख्यमंत्रित्व-काल में ही कोयला पट््टों का दनादन आबंटन हुआ। हेमंत सोरेन ने सत्ता संभालते ही बालू-घाटों की नीलामी की प्रक्रिया शुरू की और आलोचना के पात्र बने। सभी उसी रास्ते के राही हैं। यानी बाहरी पूंजीनिवेश और खनिज संपदा की बंदरबांट। लिहाजा, उनकी राजनीति भी मिलती-जुलती है और इसीलिए राज्य में वे भाजपा का विकल्प बनने की स्थिति में भी नहीं।
वैकल्पिक राजनीति के लिए एक वैकल्पिक अर्थनीति भी चाहिए और एक नई राजनैतिक शैली भी। अरविंद केजरीवाल के पास वैकल्पिक अर्थनीति है, यह तो फिलहाल स्पष्ट नहीं, लेकिन राजनीति की एक नई शैली उन्होंने जरूर विकसित की है। जनसाधारण के मुद््दों को उठाना। उसके लिए जनता के साथ मिल कर संघर्ष करना। उनका बिजली के खंभों पर चढ़ना, बिना कमांडो जनसाधारण के बीच घूमना, मामूली गाड़ी में चलना भले ही कुछ लोगों को नौटंकी लगे, लेकिन जनता को अब ऐसी बातें आकर्षित करने लगी हैं। सामाजिक न्याय की बात करना और महलों जैसे भवनों में रहना अब जनता की आंखों में चुभने लगा है।
पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता, लेकिन इस व्यवस्था में मजा करने वाले और इस व्यवस्था के वंचित जमात के बीच आने वाले दिनों में निर्णायक संघर्ष शुरू होने वाला है। इस संघर्ष में जो वंचित जमातों को एकजुट कर उनके साथ संघर्ष करेगा, वही विकल्प की राजनीति भी दे सकेगा। जातीय समीकरणों की राजनीति, धर्मनिरपेक्षता की छद्म लड़ाई का दौर खत्म हो चुका।
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