केपी सिंह
उच्चतम न्यायालय द्वारा केंद्र सरकार की नियुक्तियों में जाट-आरक्षण से संबंधित अधिसूचना रद्द कर देने के बाद देश के एक हिस्से में सामाजिक हलचल शुरूहो गई है। न्यायालय के इस फैसले के विरुद्ध पुनर्विचार याचिका निश्चित ही दाखिल की जाएगी। वहीं दूसरी ओर एंग्लो-इंडियन समाज ने प्रधानमंत्री से गुहार लगाई है कि उनके समुदाय के दो सदस्यों को संविधान के प्रावधानों के अनुसार लोकसभा में मनोनीत किया जाए। ईसाई और मुसलिम धर्म को मानने वाले अनुसूचित जातियों के लोग हिंदू धर्म की अनुसूचित जातियों के समकक्ष आरक्षण की मांग पहले ही उठा चुके हैं।
कुछ वर्ष पहले राजस्थान में आरक्षण आंदोलन के दौरान हुई हिंसा में सत्तर से अधिक लोगों की जान गई थी। मंडल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को दिए गए आरक्षण के विरोध में हुई व्यापक हिंसा ने तत्कालीन केंद्र सरकार की चूलें हिला दी थीं। आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है जिसे वंचित समाज पाना भी चाहता है और न मिल पाने की सूरत में इसका डट कर विरोध भी करता है। आरक्षण के आधार को संवैधानिक प्रावधानों की कसौटी पर परखना और समझना जरूरी है।
भारत का संविधान नागरिकों को समानता का अधिकार देने के साथ-साथ भेदभाव के विरुद्ध अधिकार की गारंटी भी प्रदान करता है। संविधान निर्माताओं ने भारत की सामाजिक असमानता और भौगोलिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कुछ अपवादों के साथ इन दोनों मौलिक अधिकारों को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया है। अनुच्छेद 14 में प्रदत्त समानता के अधिकार की व्याख्या स्पष्ट कर देती है कि एक समान लोगों के साथ एक समान व्यवहार होना चाहिए और असमान लोगों के साथ एक-समान व्यवहार नहीं करना चाहिए। इसका सीधा-सा मतलब है कि सामाजिक और सांस्कृतिक असमानता के शिकार लोगों के उत्थान के लिए राज्य को कुछ सकारात्मक उपाय करने की छूट है। संविधान में अलग-अलग जगहों पर इन उपायों का उल्लेख किया गया है। इन सकारात्मक उपायों को कहीं आरक्षण, कहीं विशेष उपाय तो कहीं प्रतिनिधित्व देने की दुहाई देकर विशेष प्रावधान संविधान में दिए गए हैं। साधारण नागरिक इन सभी प्रावधानों को आरक्षण ही समझता है।
संविधान में दो अलग-अलग भागों यानी भाग तीन और भाग सोलह में आरक्षण और सकारात्मक विशेष उपायों से संबंधित प्रावधान दिए गए हैं। इन उपायों को दो अलग जगहों पर संविधान में स्थापित करने के पीछे स्पष्ट कारण और मंतव्य रहे हैं। इन दोनों प्रकार के सकारात्मक उपायों की प्रकृति को अलग-अलग समझने की आवश्यकता है।
संविधान का भाग सोलह, जिसमें अनुच्छेद 330 से लेकर अनुच्छेद 342 तक के प्रावधान शामिल हैं, उन विशेष प्रावधानों का उल्लेख करता है, जो राज्य कुछ विशेष वर्गों के हितों की रक्षा के लिए करेंगे। इन विशेष प्रावधानों की खूबी यह है कि राज्य को इन्हें करना ही पड़ेगा। राज्य इनमें आनाकानी नहीं कर सकता। इन प्रावधानों का लाभ उठाने वाले वर्गों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और एंग्लो इंडियन समुदाय के लोग शामिल हैं। इन विशेष प्रावधानों के पीछे मुख्यत: यह सोच था कि इन वर्गों को राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ जोड़ा जाए।
जब संविधान लिखा गया उस समय परिस्थितियां ऐसी थीं कि अनुसूचित जाति के लोग अस्पृश्यता और सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों से समाज और राष्ट्र की मुख्यधारा से कटे हुए थे। भौगोलिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कारणों से जनजातीय क्षेत्रों में रह रहे लोगों की राष्ट्रीय जीवन-धारा में भागीदारी न के बराबर थी।
अंगरेजों के वापस चले जाने के बाद एंग्लो-इंडियन समुदाय के अलग-थलग पड़ जाने का अंदेशा था। राष्ट्रीय जीवन में इन वर्गों के लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से संविधान के भाग सोलह में विशेष प्रावधान किए गए थे। राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए संविधान के भाग सोलह में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में लोकसभा और राज्य विधानमंडलों में सीट आरक्षित करना शामिल है। लोकसभा में दो और राज्य की विधानसभा में एक एंग्लो इंडियन समुदाय के व्यक्ति को मनोनीत करने का भी प्रावधान किया गया है। विधानमंडलों और लोकसभा में इस प्रकार के राजनीतिक आरक्षण की विशेष बात यह थी कि यह स्थायी प्रावधान नहीं है। यह प्रावधान किया गया है कि कुछ वर्षों के बाद जब इन वर्गों की राजनीतिक भागीदारी पर्याप्त हो जाएगी, यह आरक्षण समाप्त कर दिया जाएगा।
पहले यह आरक्षण संविधान लागू होने के दस वर्ष तक जारी रहना था, लेकिन अब लगातार बढ़ते-बढ़ते यह समय-सीमा वर्ष 2020 तक बढ़ा दी गई है। इस समय-सीमा को बढ़ाने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ता है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों और पदोन्नति में आरक्षण का प्रावधान भी संविधान के भाग सोलह में ही किया गया है। एंग्लो-इंडियन समुदाय के लोगों के लिए रेलवे, सीमाकर, डाक और तार विभागों में नौकरियों में आरक्षण का सीमित अधिकार दिया गया था।
संविधान में प्रावधान था कि एंग्लो इंडियन समुदाय के लोगों का आरक्षण प्रत्येक दो वर्ष बाद उनकी इन विभागों में उस संख्या के दस प्रतिशत तक घटता चला जाएगा जो 15 अगस्त, 1947 को थी। इस प्रकार यह आरक्षण अब समाप्त हो चुका है, पर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए नौकरियों में आरक्षण की कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है।
आरक्षण से संबंधित दूसरे प्रकार के प्रावधान संविधान के भाग तीन में किए गए हैं। संविधान के इस भाग में नागरिकों के मौलिक अधिकारों के साथ अनुसूचित जातियों, जनजातियों और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश और नौकरियों में प्रतिनिधित्व देने के उद्देश्य से विशेष प्रावधान करने की बात कही गई है। इन विशेष प्रावधानों की प्रकृति को समझना जरूरी है। इन विशेष प्रावधानों को आरक्षण कहना ठीक नहीं है। आरक्षण और विशेष प्रावधानों में अंतर है। आरक्षण में अधिकार की बू आती है, जबकि विशेष प्रावधान सरकार के सकारात्मक सोच का प्रतिफल होते हैं। अधिकार कानून के माध्यम से हासिल किए जा सकते हैं जबकि विशेष प्रावधान सरकार के विवेकाधीन होते हैं जिन्हें पाने के लिए सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता।
संविधान के भाग तीन में उल्लिखित विशेष प्रावधान समानता और भेदभाव के विरुद्ध नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकारों के अपवादस्वरूप है। इन प्रावधानों का उद्देश्य उन वर्गों को प्रोत्साहन देना है, जो किन्हीं कारणवश प्रगति की दौड़ में पिछड़ गए हैं। इन प्रावधानों में पिछड़ेपन की व्याख्या को लेकर समय-समय पर विवाद उठते रहे हैं। इनमें से कुछ सामाजिक विवादों की पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक है।
अनुच्छेद 15(5) के अनुसार सरकार सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों का सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रावधान कर सकती है। यानी ऐसा करना जरूरी नहीं है, पर अगर सरकार करना चाहे तो इसकी मनाही भी नहीं है। आंकड़ों और सर्वेक्षण के अभाव में जाति को ही सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन का आधार मान लिया गया है। इसलिए पिछड़े वर्ग के लिए किए गए प्रावधानों का लाभ उठाने की होड़ जातियों में लग गई। पिछड़ेपन की कसौटी वोट बैंक की राजनीति का शिकार हो गई।
राजनीतिक वर्चस्व के कारण अनेक ऐसी जातियां भी पिछड़ी जातियों में शामिल हो गर्इं, जो न तो सामाजिक रूप से पिछड़ी थीं और न ही शैक्षणिक रूप से। अब स्थिति यह है कि इस प्रकार घोषित तथाकथित पिछड़ी जातियां ही पिछड़े वर्ग के लिए किए जा रहे विशेष प्रावधानों के सभी लाभों को हड़प करती जा रही हैं, जबकि वास्तविक पिछड़ी जातियां इन लाभों से आज भी वंचित हैं। पिछड़े वर्ग के लोगों के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान करने की अवधारणा यहां मात खा जाती है।
संविधान के अनुच्छेद 16(4) में व्यवस्था है कि सरकार पिछड़े वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व देने के लिए विशेष प्रावधान कर सकती है, अगर इन वर्गों का इन नौकरियों में उचित प्रतिनिधित्व न हो। नौकरियों में इन वर्गों का प्रतिनिधित्व जानने के लिए सर्वेक्षण किया जाना चाहिए था। केवल उन्हीं पिछड़े वर्गों को नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिलना था जिनका उचित प्रतिनिधित्व सरकारी नौकरियों में नहीं था। पर ऐसा नहीं हुआ।
नौकरियों में आरक्षण में लाभ की पात्रता का आधार भी जाति को ही बना दिया गया। फलस्वरूप अनेक ऐसी जातियां इसका लाभ उठा रही हैं जिनका सरकारी नौकरियों में पहले से ही उचित प्रतिनिधित्व था, जबकि इस विशेष प्रावधान के वास्तविक पात्र अब भी इस लाभ से वंचित हैं।
जाट-आरक्षण के मामले में उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी कि पिछड़े वर्गों की सूची में नई जातियों को जोड़ने के साथ-साथ उन जातियों को इस सूची से बाहर किया जाना चाहिए, जो अब पिछड़ी नहीं रही हैं, तर्कसंगत है। अगर पिछले पैंसठ सालों में विशेष प्रावधानों का लाभ उठाने वाली जातियां अब भी पिछड़ी ही हैं तो यह अवधारणा गलत साबित हो जाती है कि इन विशेष प्रावधानों से पिछड़ापन दूर किया जा सकता है। और अगर इन प्रावधानों से पिछड़ापन दूर हो रहा है तो उन जातियों को पिछड़े वर्ग की सूची से बाहर करने का आधार उपलब्ध हो जाता है जिन्होंने पैंसठ वर्षों से इनका लाभ उठाया है अथवा जिनका उचित प्रतिनिधित्व सरकारी नौकरियों में स्थापित हो गया है।
उच्चतम न्यायालय के फैसले में एक संदेश यह भी है कि आरक्षण की निरंतर समीक्षा की जानी चाहिए। विशेष प्रावधान स्थायी प्रावधान नहीं बन सकते। विशेष प्रावधान कुछ समय के लिए कुछ विशेष परिस्थितियों से निपटने के लिए किए जाते हैं। संविधान में भी इसी मंशा के दर्शन होते हैं। एंग्लो-इंडियन समाज के आरक्षण को समयबद्ध रूप से समाप्त करने का फार्मूला संविधान में उपलब्ध करा कर संविधान निर्माताओं ने आरक्षण के प्रति रुख को स्पष्ट कर दिया था। इस मंशा को सभी वर्गों के आरक्षण के प्रावधानों पर लागू करने का समय आ गया है। आरक्षण के प्रावधानों की समूल समीक्षा जरूरी है।
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