पारिवारिक मूल्यों के छीजते जाने का रोना हर तरफ सुनाई देता है, पर इसकी तह में जाने की जरूरत है। क्या विकास की हमारी मौजूदा सोच से इसका कोई नाता नहीं है। विकास की वर्तमान अवधारणा अधिक से अधिक उपभोग या व्यय पर जोर देती है। इससे उपभोक्तावाद पनपा है। जहां चीजों को इतनी अहमियत मिले और उपभोग तथा खपत इंसान की कामयाबी के पर्याय हो जाएं, वहां मानवीय मूल्यों की कौन परवाह करेगा? इन मूल्यों की बात करने वाले अब पुराने जमाने के और फिसड््डी समझे जाते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि नई पीढ़ी की निगाह में उन्हें राह के रोड़े भी माना जाता है। लेकिन उपभोक्तावाद ने कैसा इंसान बनाया है?
महानगरों में पड़ोसी एक दूसरे को जानते नहीं। लोग अजनबी की तरह रहते हैं। किसी के पास किसी के लिए फुरसत नहीं। कोई अनहोनी हो जाए तो किसी का साथ या सहयोग मिल पाएगा इसका भरोसा नहीं। सब कुछ पा लेने पर भी आदमी अपने को अकेला पाता है। कहीं भी वास्तविक यानी टिकाऊ खुशी नहीं देखती। हर कोई असंतुष्ट दिखता है, व्यवस्था से, समाज से, मित्रों-परिचितों से, अपने आप से।
जहां इतना अजनबीपन हो वहां अपराध का घटित होना आसान हो जाता है। महानगरों में महिलाओं के लिए सुरक्षा की समस्या दिनोंदिन बढ़ती गई है। जब भी उनके प्रति अपराध की कोई बड़ी घटना हो जाती है, तो सारा ठीकरा पुलिस के सिर फोड़ा जाता है। बेशक पुलिस की जवाबदेही का मसला उठना चाहिए, पर हमें यह भी सोचना होगा कि अपराधों में बढ़ोतरी के पीछे समाज में बढ़ रही अजनबियत प्रमुख वजह है। आखिर पुलिस चप्पे-चप्पे पर मौजूद नहीं रह सकती। बुजुर्गों की उपेक्षा और उनके बढ़ते जाते अकेलेपन के लिए क्या सरकार को दोषी ठहराया जा सकता है यह तो हमारे पारिवारिक मूल्यों के तिरोहित होने का ही नतीजा है।
आज सामाजिक संबंधों के साथ-साथ परिवार के आत्मीय रिश्तों से जुडेÞ सरोकार भी बहुत कमजोर पड़ रहे हैं। सही बात यह है कि इस वैश्विक दौर में रक्त संबंधों के साथ में अब नातेदारी तथा रिश्ते भी स्वार्थ की आग में झुलसने को मजबूर हैं। परिवार के आत्मीय संबंधों पर चोट करने वाली तमाम घटनाएं आज देखने में आ रही हैं। मसलन, ‘न्यूज एक्स’ के मुखिया पीटर मुखर्जी की पत्नी इंद्राणी मुखर्जी पर सबसे घिनौना आरोप पुत्री की हत्या का लगा और अब मुंबई की कलाकार हेमा उपाध्याय की हत्या कराने की साजिश का आरोप उनके पति चिंतन उपाध्याय पर लगा है। ये तो केवल हालिया घटनाएं हैं। इसके अलावा भी देश में ऐसी कोई न कोई घटना रोज सुनने को मिल ही जाती है। आखिर पति-पत्नी के बीच या परिवार व समाज के आत्मीय संबंधों से जुड़ी ये सभी घटनाएं सीधे-सीधे सामाजिक ढांचे की दीवारों के दरकने के ही संकेत तो हैं।
समाज वैज्ञानिकों के लिए ये घटनाएं आज संयुक्त परिवार की टूटन, रक्त संबंधों में बिखराव तथा रातोंरात सफलता के उच्च शिखर पर पहुंचने की लालसा जैसे कारणों के चलते सामाजिक संबंधों में बदलाव की तेज चाल को भी महसूस करा रही हैं। वैसे तोे हमारे सामाजिक संबंधों और सगे रिश्तों में खूनी जंग का एक लंबा इतिहास रहा है। पर पहले इस प्रकार की घटनाएं राजघरानों के आपसी स्वार्थों के टकराने तक सीमित रहती थीं। लेकिन अब यह मुद््दा और भी गंभीर हो गया है, क्योंकि अब छोटे-छोटे निजी स्वार्थों को लेकर रक्त संबंधों अथवा नातेदारी संबंधों की बलि चढ़ाने में आमजन भी शामिल हो गए हैं। वर्तमान की इस सच्चाई को प्रस्तुत करने में कोई हिचक नहीं कि तकनीकी मूल्य, पूंजी के जमाव, आक्रामक बाजार, सूचना तकनीकी के साथ में सोशल मीडिया से बढ़ती घनिष्ठता जैसे कारकों के फैलाव के सामने परिवार, समुदाय तथा इनमें समाहित सामाजिक रिश्ते बौने नजर आ रहे हैं। इसलिए सामाजिक रिश्तों में टूटन की तीव्रता वास्तव में हमारी चिंता का विषय है।
वर्तमान की इस तेजी से भागती जिंदगी के मद्देनजर अब यह बहस चल पड़ी है कि क्या सामाजिक रिश्तों में अभी और कड़वाहट बढेÞगी? क्या भविष्य में विवाह और परिवार का सामाजिक-वैधानिक ढांचा बच पाएगा? क्या बच्चों को परिवार का वात्सल्य, संवेदनाओं का अहसास, मूल्यों तथा संस्कारों की सीख मिल पाएगी? क्या आने वाले समाजों में एकल परिवार के साथ में लिव-इन जैसे संबंध ही जीवन की सच्चाई बन कर उभरेंगे? क्या इन रिश्तों की टूटन को बदलाव की स्वाभाविक प्रक्रिया माना जाए या इसे वैश्विक समाज के बदलाव की बयार समझा जाए? ये आज के कुछ ऐसे ज्वलंत प्रश्न हैं, जिनका जवाब खोजना समय की मांग है।
आजादी के आंदोलन के बाद पुरानी पीढ़ी ने जिन मूल्यों और आदर्शों के साथ रिश्तों को परिवार के संयुक्त सांचे में ढाला, पूंजी के विस्तार, बाजार की आक्रामकता और व्यक्ति के रातोंरात सफल होने की महत्त्वाकांक्षाओं ने उसे एक ही पल में बिखेर कर रख दिया। इन रिश्तों के दरकने के दृश्य आज समाज में चहुंओर दिख रहे हैं। गौरतलब है कि जिस तरह वैश्विक संस्कृति फैल रही है उससे ऐसा लगता है जैसे औद्योगिक-व्यापारिक व्यवस्था के फैलाव में परिवार और समुदाय के भावनात्मक रिश्ते और उनकी वफादारियां बाधक सिद्ध हो रही हैं। अवलोकन बताते हैं कि आज हर रिश्ता एक तनाव के दौर से गुजर रहा है। वह चाहे माता-पिता का हो या पति-पत्नी का, भाई-बहन, दोस्त या अधिकारी व कर्मचारी का। इन सभी रिश्तों के बीच एक शीत-भाव पनप रहा है।
सामाजिक रिश्ते निरंतर संवाद की मांग करते हैं। संवाद का अभाव इन सामाजिक रिश्तों की गर्माहट को कम करता है। सामुदायिक रिश्तों की मिसाल माने जाने वाले गांवों में भी अब परिवार की संयुक्तता विभाजित हो रही है। संपत्ति से जुडेÞ रिश्ते भी अब बहुत कमजोर हो चले हैं। कहीं-कहीं संपत्ति से जुड़े ये रिश्ते इंच-प्रति-इंच जमीन को लेकर खून की होली खेल रहे हैं। अदालतों में अधिकतर मुकदमे जमीन-जायदाद के झगड़ों को लेकर ही दर्ज हैं। परिवार की संयुक्तता कमजोर होने के पीछे सबसे बड़ी भूमिका संपत्ति के बंटवारे और उससे जुड़े विवादों की रहती है। यही कारण है कि संयुक्त परिवारों का बाहरी ढांचा अब एकल परिवारों में बंट चुका है। आज एक नूतन ‘ग्लोकल कल्चर’ (ग्लोबल+लोकल संस्कृति) अर्थात दोमुंही संस्कृति जन्म ले रही है। इसके एक ओर बाहरी आवरण पर जहां हम ग्लोबल होने का दावा ठोक रहे हैं, वहीं दूसरी ओर यह पीढ़ी सोच, आचार-विचार, प्रथाओं और परंपराओं में अभी लोकल होने की पीड़ा से जूझ रही है। कहना न होगा कि नए वैश्विक परिवेश में यह सैंडविच कल्चर आज नई सोच के दबाव में है।
गौरतलब है कि आज का मानव-मशीन, सूचना और बाजार की जबर्दस्त होड़ के सामने स्वदेशी जमीन पर ठहर नहीं पा रहा है। यह खुलेआम आदमी और मशीन का संघर्ष है जहां व्यक्तिगत संबधों की संवेदनाएं शून्यता के क्षितिज में तैर रही हैं। चारों ओर पूंजी, संपत्ति, धन, बाजार और पेशेवरवाद के सामने मानव, मानवीयता, सहिष्णुता, चरित्र, संस्कार व मूल्यों आदि की चर्चा पृष्ठभूमि में चली गई है। आधुनिक समाजशास्त्री पूंजी और बाजार के फैलने के लिए भावनात्मक लगाव की जगह भावनात्मक तटस्थता तथा मानवीय रिश्तों के निजी (पर्सनल) होने के स्थान पर कामकाजी (फंक्शनल) होना जरूरी मानते हैं। कार्ल मार्क्स ने डेढ़ सौ साल पहले ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ में साफ लिखा था कि पूंजीवादी व्यवस्था के विस्तार में कैश-नेक्सस यानी मुद्रा के लेन-देन के संबंध बाकी सारे मानव संबंधों पर भारी पड़ेंगे।
यह ग्लोबल व्यवस्था इस सच्चाई से अच्छी तरह वाकिफ है जब तक आदमी के परिवार और समुदाय के भावनात्मक रिश्तों को खत्म नहीं कर दिया जाता, तब तक इस व्यवस्था को व्यावसायिक रूप से बेहतर नहीं किया जा सकता। इसी के फलस्वरूप आज के ये किशोर अपने परिवारों के बंधन से मुक्त होकर अपनी अलग दुनिया बसाने को मजबूर हैं। जब खून के रिश्ते भी इन्हें अर्थहीन और अनुपयोगी लगने लगे हैं, तो बाकी रिश्तों को वे क्या अहमियत देंगे! पीढ़ियों के बीच यह रिक्तता तमाम विसंगतियों को जन्म दे रही है, जिनमें संवादहीनता, युवाओं में मूल्यों का ह्रास, संस्कारों की कमी तथा पारिवारिक रिश्तों में आ रहा ठंडापन प्रमुख है। परिवार और समाज के अंदरूनी ढांचे के दरकने से सामाजिक परिवर्तन के योजनाबद्ध होने का स्वप्न धूमिल पड़ता नजर आ रहा है।
इस विश्लेषण से साफ है कि आज के वैश्विक दौर में सामाजिक रिश्ते असहिष्णुता और संवेदनशून्यता को प्रतिबिंबित कर रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि आज देशज संस्कृति तरह-तरह के वैश्विक संपर्कों से गुजर रही है। ऐसी अवस्था में सामाजिक रिश्तों का स्वरूप बदलना स्वाभाविक ही है। ध्यान रहे परिवार और उनकी निरंतरता भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। समाज में चाहे जितनी विभिन्नताएं दिखाई दें, परिवार, रिश्तों व उनके अहसास से मुंह मोड़ कर हम ज्यादा समय तक सामाजिक वजूद बनाए नहीं रख सकते। वैश्विक स्तर पर चाहे जितना आधुनिकीकरण हो रहा हो, पर यह निश्चित है कि नव-सांस्कृतिक जागरण की उभरती शक्तियों के विकास का मार्ग भारतीय संस्कृति से ही होकर गुजरेगा। अपनी देशज संस्कृति से जुडेÞ सामाजिक रिश्तों के अहसास को निजी स्वार्थों से बचा कर रखने की आवश्यकता है। परिवार व उसके तमाम आंतरिक अवयवों के बीच का तालमेल ही देश और समाज की संस्कृति का प्रतिबिंब है और यही संदेश वैश्विक स्तर पर जाकर देश की छवि को बनाने-बिगाड़ने में अपनी महती भूमिका अदा करता है।