विनय सुल्तान
सारी पार्टियां गजेंद्र सिंह की खुदकुशी पर गमगीन दिखने की होड़ में शामिल हैं। अगर उनके आंसू सच्चे हैं तो वे बाकी किसानों की सुध क्यों नहीं ले रही हैं? महाराष्ट्र में सिर्फ चार महीनों में सैकड़ों किसानों ने अपनी जान ले ली। गजेंद्र सिंह राजस्थान का था। मगर राज्य के किसानों पर छाए संकट का वह अकेला उदाहरण नहीं था।
कोटा, बूंदी, बारां और झालावाड़ में हाल में तीस से ज्यादा किसान या तो सदमे से मर गए या खुद अपनी जान ले ली। पच्चीस मार्च की शाम राजस्थान के आपदा प्रबंधन मंत्री गुलाबचंद कटारिया का विधानसभा में दिया बयान सुर्खी बन चुका था। मंत्रीजी ने किसान-आत्महत्या पर झुंझला कर कहा, ‘अगर कोई खुद को पेड़ से लटका ले तो इसमें सरकार क्या करे।’ दिल्ली से कोटा रवाना होते समय मेरे दिमाग में भी यही सवाल यही था कि आखिर किसान क्यों मर रहे हैं?
पंद्रह मार्च को पश्चिमी विक्षोभ की वजह से हुई ओलावृष्टि ने पूरे प्रदेश की रबी की फसल बर्बाद कर दी। नौ अप्रैल को सरकार द्वारा पेश नुकसान के आकलन की मानें तो प्रदेश के कुल 21083 गांव इस ओलावृष्टि से प्रभावित हुए। इनमें से 1532 गांव सौ फीसद बर्बादी का शिकार हुए। 6227 गांवों में पचास से पचहत्तर फीसद नुकसान देखने को मिला। वहीं 13324 गांव पचास फीसद या इससे कम प्रभावित रहे। सरकार के आकलन के अनुसार कुल 8574.74 करोड़ का नुकसान हुआ। यह आंकड़ा समर्थन मूल्य के हिसाब से तैयार किया गया था इसलिए इसे एक भ्रामक तथ्य की तरह ही लिया जाना चाहिए। अगर यह आकलन बाजार-भाव से किया जाए तो यह साढ़े बाईस हजार करोड़ के लगभग बैठता है।
सरकारी आंकड़ों और वास्तविक नुकसान के फर्क से आप समझ ही गए होंगे कि इस बार फिर से मुआवजे के नाम पर किसानों को जिल्लत का शिकार होना पड़ेगा। वैसे भी हमारी सरकारों का उनसठ रुपए के चेक देने का इतिहास रहा है। इस बार जिल्लत को प्रहसन के रूप में दोहराने की भूमिका बांधी जा चुकी है।
राजस्थान में गंगानगर के बाद सबसे ज्यादा धान उपजाने वाला क्षेत्र है हाड़ौती। चंबल और उसकी सहायक कालीसिंध और पार्वती की नहरी परियोजना के जरिए दो लाख हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई व्यवस्था है। अरावली और मालवा के पठार के बीच बसा उपजाऊ क्षेत्र, जहां किसान-आत्महत्या का कोई इतिहास नहीं रहा है। अब तक कोटा, बूंदी और बारां इन तीन जिलों में तीस से ज्यादा किसानों ने या तो आत्महत्या कर ली या फिर सदमे की वजह से दम तोड़ दिया। यह बता दें कि सरकारी दस्तावेजों में जिन चौंतीस व्यक्तियों के वर्षाजनित हादसों में मरने का जिक्र है वे इस श्रेणी में नहीं हैं। सरकार की नजर में दिल का दौरा पड़ना प्राकृतिक मौत है जबकि जहर पीने वाले और फांसी से लटकने वाले लोग पारिवारिक कलह के शिकार हैं।
रबी की फसल सिंचित क्षेत्र के किसानों के लिए ‘पिता का कंधा’ है। खरीफ की फसल खराब होने पर भी किसान की हिम्मत पस्त नहीं होती। उसे पता होता है कि चंद महीनों बाद ही उसके खेत में गेहूं की सुनहरी बालियां होंगी जो सारा कर्जा पाट देंगी। इस बार पश्चिमी विक्षोभ ने पिता के इस कंधे को तोड़ डाला। एक के बाद एक किसान दिल का दौरा पड़ने से दम तोड़ने लगे। जिनके दिल मजबूत थे उन्होंने जहर खा लिया या पेड़ से लटक गए। तो क्या कहानी इतनी सपाट है?
हरित क्रांति के दौर में पूरे हाड़ौती में नहरी सिंचाई की शुरुआत हुई। पंजाब से किसान यहां बसाए गए ताकि यहां के लोग नहरों और रासायनिक खादों से खेती करना सीख सकें। इसके बाद किसानों को धीरे-धीरे नकदी फसलों की तरफ धकेला गया। रासायनिक खाद का जम कर प्रयोग किया गया।
इस पूरी प्रक्रिया में पारंपरिक फसलों और फसल-चक्र की बुरी तरह से अनदेखी की गई। फास्फोरस जैसे कई हानिकारक रासायनिक तत्त्व मृदा में संतृप्तता के स्तर पर पहुंच गए। नतीजा यह हुआ कि यहां बड़े पैमाने पर बोई जाने वाली सोयाबीन के बीज मिट््टी में मिट््टी बन कर रह गए। यहां लगातार तीन साल से खरीफ की फसल में किसानों को नुकसान झेलना पड़ा। इस बार रबी की फसल भी चौपट होने से किसानों की कमर टूट गई।
भूमि सुधार कानूनों के लागू होने का कोई इतिहास यहां नहीं रहा है। ऐसे में बड़े भूस्वामियों की तादाद यहां काफी है। ये भूस्वामी अपनी जमीन छोटे काश्तकारों को लीज पर देते हैं। इसे यहां मुनाफा या जवारा कहा जाता है। यह व्यवस्था शोषण के मामले में उत्तर भारत की बटाईदारी व्यवस्था का अगला चरण है। इसमें भूस्वामी काश्तकार को निश्चित दर पर साल भर के लिए अपनी जमीन किराए पर देता है। यहां सात से दस हजार प्रति बीघा मुनाफा वसूला जाता है। यह भुगतान साल की शुरुआत में करना होता है। इस तरह खेती में होने वाले जोखिम से भूस्वामी अपने आप को साफ बचा लेता है।
मुनाफे की रकम अदा करने के लिए किसान वित्तीय संस्थाओं से कर्ज लेता है। किसान क्रेडिट कार्ड के जरिए मिलने वाला बैंक-ऋण, सहकारी बैंक और महाजन, कर्ज के तीन प्रमुख स्रोत हैं। कृषि पर सीएसडीएस के हालिया सर्वे से सस्ती दर पर कर्ज देने के सरकारी दावों की पोल खुल जाती है। सर्वे बताता है कि महज पंद्रह फीसद किसानों के पास किसान क्रेडिट कार्ड है। सहकारी बैंकिंग के हालात यह हैं कि प्रदेश के उनतीस में से सत्रह सहकारी बैंक बंद होने के कगार पर हैं, क्योंकि रिजर्व बैंक के मानकों के अनुसार इनके पास सात फीसद का कैपिटल रिजर्व नहीं बचा है। बाकी बारह की भी हालत पस्त है। राज्य सरकार ने इस वित्तीय वर्ष में सहकारी बैंकों के जरिए सत्रह सौ करोड़ का कर्ज किसानों को देने की घोषणा की है।
इसे किस तरह से देखा जाए? किसान क्रेडिट कार्ड के जरिए बैंक-ऋण लेते समय सशर्त पूरी फसल का बीमा करवाना होता है। सहकारी बैंक भी कर्ज देते समय दो हेक्टेयर तक का बीमा करते हैं। सीएसडीएस का सर्वे बताता है कि 67 फीसद किसान फसल बीमा नहीं करवाते हैं। ये 67 फीसद वे हैं जो कर्ज के लिए स्थानीय महाजन पर निर्भर हैं। ये लोग चौबीस से साठ फीसद सालाना की दर से ब्याज देते हैं। यह दर आपके होम लोन और कार लोन से पांच गुना ज्यादा है। किसानी इस दौर का सबसे जोखिम भरा रोजगार है।
अगर राजस्थान की बात करें तो 1981 से 2015 तक प्रदेश के किसानों ने बत्तीस साल अकाल झेला है। इनमें से पंद्रह साल ऐसे हैं जिनमें बत्तीस में से पच्चीस जिले अकाल से प्रभावित रहे हैं। इसके अलावा 2008, 2011, 2013 और 2015 में ओले गिरने से रबी की फसल तबाह हुई। सीएसडीएस के सर्वे के अनुसार दो तिहाई लोग गांव छोड़ कर जाना चाहते हैं अगर उन्हें शहर में कोई रोजगार मिल जाए। अब आप कहेंगे कि सरकार मुआवजा तो देती है ना। तो पहले इस मुआवजे की प्रक्रिया को समझ लिया जाए।
सबसे पहले पटवारी नुकसान की रिपोर्ट तैयार कर तहसीलदार को भेजता है। तहसीलदार इस रिपोर्ट की जांच करके एसडीएम को भेजता है। एसडीएम इस रिपोर्ट को कलेक्टर की मार्फत आपदा प्रबंधन विभाग को भेजता है। विभाग इसे केंद्रीय गृह मंत्रालय और राज्य सरकार को भेज देता है। गृह मंत्रालय रिपोर्ट को वित्त मंत्रालय को भेजता है। वित्त मंत्रालय इसकी जांच कृषि मंत्रालय के जरिए करवाता है। कृषि मंत्रालय की टीम मौके पर जाकर रिपोर्ट को क्रॉसचेक करती है, संशोधित रिपोर्ट वित्त मंत्रालय को भेजती है। वित्त मंत्रालय इस रिपोर्ट के आधार पर मुआवजा तय करता है। यह मुआवजा कलेक्टर की मार्फत किसानों तक पहुंचता है। इस प्रक्रिया के शुरुआती और अंतिम चरण में किसान को घूस देनी पड़ती है। इस पेचीदगी भरी प्रक्रिया में किसान के हाथ क्या लगता है?
सरकार के मापदंडों के अनुसार असिंचित भूमि के लिए 1088 रुपए, सिंचित भूमि के लिए 2160 रु पए और डीजल पंप द्वारा सिंचित भूमि के लिए तीन हजार रुपए अधिकतम मुआवजा प्रति बीघा दिया जा सकता है। अधिकतम का मतलब है जब आपकी फसल सौ फीसद खराब हुई हो। इस मुआवजे के हकदार आप तभी बनते हैं जब पूरी तहसील में पचास फीसद नुकसान हुआ हो। जब प्रीमियम के लिए खेत को इकाई मान कर पैसा वसूला जाता है तो बीमा के भुगतान के लिए तहसील को इकाई मानने का तर्क समझ से परे है।
इसके अलावा किसान क्रेडिट कार्ड पर कर्ज लेने के लिए किसानों को सशर्त बीमा करवाना पड़ता है। इसका प्रीमियम बैंक कर्ज देने से पहले काट लेते हैं। फसल बीमा में निजी क्षेत्र की बीमा कंपनियां काफी सक्रिय हैं। इन कंपनियों के लिए पटवारी द्वारा पेश की गई रिपोर्ट की जगह कूड़ेदान है। ये अपने वेदर स्टेशन के जरिए नुकसान का आकलन करती है। यह प्रक्रिया पूरी तरह से अवैज्ञानिक, भ्रामक और किसानों की आंख में धूल झोंकने के लिए अपनाई गई है।
अक्सर वेदर स्टेशन बंद हालत में पाए जाते हैं। इनका अंदाजा इस बात से लगता है कि पिछले छह साल में अठारह सौ करोड़ रुपए किसानों से वसूले गए हैं जबकि बीमा की अदायगी का औसत महज पचास करोड़ रुपए प्रतिवर्ष है।
अब दस हजार रुपए प्रति बीघा मुनाफे की दर के आंकड़े को मजबूती से दिमाग में बैठा लीजिए। इसके बाद पुलिस की निगरानी और लाठीचार्ज के बीच खाद की एक बोरी के लिए घंटों लाइन में लगने की जिल्लत को भी जोड़ लीजिए। तीन गुनी दर पर खरीदे गए बीज, और चार महीने की मेहनत को भी जोड़ लीजिए। इस पूरे तंत्र को रामनगर के वरुण बैरागी बड़े सपाट लहजे में बयान करते हैं। ‘जब फसल कटने का समय आता है तो भाव अचानक गिर जाते हैं। जो गेहंू हम बारह सौ रुपए में बेचते हैं वह दो महीने बाद ढाई हजार के भाव से बिकता है। जब हमें बीज की जरूरत होती है तो भाव सात हजार पर चले जाते हैं।’
स्वामीनाथन समिति ने 2006 में सिफारिश की थी कि लागत में पचास फीसद लाभांश जोड़ कर समर्थन मूल्य तय किया जाए। स्वामीनाथन समिति की सिफारिश लागू करना भाजपा के चुनावी घोषणापत्र का सबसे चमकीला हिस्सा था। अब केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा पेश कर कहा है कि इस दर पर समर्थन मूल्य नहीं दिया जा सकता। इसके अलावा केंद्र ने सर्कुलर जारी कर राज्य सरकारों को हिदायत दी है कि समर्थन मूल्य पर बोनस देने वाले राज्यों से केंद्र कोई खरीदारी नहीं करेगा।
जो सवाल मैं दिल्ली से लेकर चला था उसका सबसे सटीक जवाब दिया स्थानीय किसान बलदेव सिंह ने। ‘आप पर लाखों का कर्ज हो और आपकी साल भर की कमाई चोरी हो जाए तो आप क्या करेंगे? सोच कर देखिए, अगर यह लगातार तीन साल से हो रहा हो तो?’
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