केपी सिंह
दीमापुर की जेल में बंद एक विचाराधीन कैदी को हजारों की बेकाबू भीड़ ने सलाखों से बाहर निकाल कर पीट-पीट कर मार डाला। मृतक बलात्कार के एक मुकदमे में आरोपी एक प्रवासी व्यक्ति था, जबकि पीड़िता एक स्थानीय महिला थी। भीड़ में किसी का तर्क था कि नगा अस्मिता के साथ खिलवाड़ करने की सजा दी गई है, किसी को मृतक के बांग्लादेशी होने का भ्रम था। भीड़ में कोई क्षेत्रवाद का हामीदार था तो कोई टोले की महिला के साथ हुए तथाकथित अन्याय की आग में स्वयं ही झुलस रहा था। भीड़ में अमूमन ऐसा हो जाया करता है। भीड़ का चरित्र मूक होता है और उसे तर्क की कसौटी पर कसना बेवकूफी ही कहा जा सकता है। भीड़ का अपना ही मनोविज्ञान होता है। भीड़ तर्क नहीं भावना की नाव पर सवार होती है। भीड़तंत्र अनियंत्रित होता है जबकि लोकतंत्र पर कानून का पहरा होता है। लोकतंत्र में भीड़ को बेकाबू होने देना व्यवस्था के ढहने के प्रारंभिक संकेत होते हैं। दीमापुर का संदेश बहुत दूर तक जाएगा। इसे समय रहते समझने की जरूरत है।
दीमापुर में हजारों की भीड़ इकट्ठा हो जाती है और गुप्तचर विभाग भीड़ के मंतव्य को पढ़ पाने में असमर्थ रहता है। सशस्त्र पुलिस बल के हजारों जवान भीड़ के साथ-साथ चलते हैं। जेल की सुरक्षा के लिए पचास शस्त्रधारी जवान जेल परिसर में मौजूद होते हैं। इसके बावजूद भीड़ मुख्य द्वार तोड़ कर जेल परिसर के अंदर घुस जाती है और आरोपी को ढंूढ़ कर मौत के घाट उतार देती है। हजारों की संख्या में तैनात सशस्त्र पुलिस बल और उन्मादी भीड़ से अलग हजारों की संख्या में जेल में बंद कैदियों में से एक भी व्यक्ति बचाने के लिए सामने नहीं आता है। यह वह हकीकत है जिसका विश्लेषण जरूरी है। इस प्रवृत्ति पर अगर समय रहते अंकुश नहीं लग पाया तो देश में कोई भी सुरक्षित नहीं रहेगा और भीड़ अपना न्याय खुद करने लगेगी।
विचाराधीन कैदी अदालत के आदेश से जेल में बंद होते हैं। कैदी व्यवस्था की निगरानी में अदालत की धरोहर होते हैं। विचाराधीन कैदी की सुरक्षा की जिम्मेदारी उस अदालत की होती है जो उसे न्यायिक हिरासत में भेजती है। अदालत की इस जिम्मेदारी को जेल प्रशासन अदालत की निगरानी में संभालता है। दीमापुर में भीड़ का इस प्रकार का व्यवहार अदालत की महिमा को सरेआम चुनौती देने के समान है।
घटना के बाद जिले के जिम्मेदार पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को निलंबित कर दिया गया है। इससे कुछ नहीं हासिल होगा। कुछ दिनों के बाद उनका निलंबन वापस हो जाएगा और फिर सब कुछ उसी तरह चलने लगेगा जैसे चल रहा था। प्रशासनिक गलियारों का यही दस्तूर है। पर यह गंभीर मंथन का विषय है कि पुलिस और प्रशासन अपनी जिम्मेदारियां कानून-सम्मत तरीके से क्यों नहीं निभा पाए? क्या प्रशासन और पुलिस भीड़ से डर गए थे, या प्रशासन ने कानून के राज के बजाय सामाजिक वर्चस्व के झंडे के साथ खड़े होना बेहतर समझा?
पुलिस में शस्त्र चलाने का साहस नहीं था, या उन्हें उनके कानूनी दायित्व का ज्ञान नहीं था? कहीं ऐसा तो नहीं कि पुलिस गोली चलाने के बाद होने वाली जांच के लफड़े से बचना चाहती थी या फिर व्यवस्था में बैठे लोग पुलिस को रोक रहे थे? इन सवालों का जवाब देर-सवेर किसी न किसी को ढ़ूंढ़ना पड़ेगा। आने वाली पीढ़ियां इन प्रश्नों के जवाब मांगेंंगी। भारत का कानून यह व्यवस्था करता है कि पुलिस और नागरिक अपनी खुद की ही नहीं बल्कि किसी भी व्यक्ति की जान और माल की सुरक्षा करने के लिए आवश्यक बल प्रयोग कर सकते हैं।
भारत में नागरिकों को ‘स्वयं-रक्षा का अधिकार’ यानी ‘राइट टु सेल्फ डिफेंस’ मिला हुआ है, जबकि कई अन्य देशों में नागरिकों को ‘व्यक्तिगत रक्षा का अधिकार’ यानी ‘राइट टु प्राइवेट डिफेंस’ प्रदान किया गया है। दोनों में यही अंतर है कि ‘स्वयं-रक्षा का अधिकार’ अपनी खुद की रक्षा के साथ-साथ दूसरों की रक्षा करने के लिए भी प्रत्येक नागरिक को अधिकृत करता है। यह अवधारणा इस तर्क पर आधारित है कि मनुष्य को कायर नहीं होना चाहिए। अगर उसके सामने किसी को मारा जा रहा है तो उसे बचाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को साहस का परिचय देते हुए आगे आना चाहिए। ‘व्यक्तिगत रक्षा का अधिकार’ मनुष्य को केवल खुद की रक्षा करने का अधिकार देता है, दूसरों की नहीं। भारतीय कानूनों में एक व्यक्ति की जान की महत्ता इसी से स्थापित हो जाती है कि नागरिकों को सभी मनुष्यों की रक्षा करने का अधिकार दिया गया है।
इसी अवधारणा के अंतर्गत भारतीय दंड संहिता की धारा 100 में उल्लिखित ‘स्वयं-रक्षा का अधिकार’ कुछ परिस्थितियों में हमलावर को जान से मार देने तक की छूट नागरिकों और पुलिस को देता है। पुलिस जब किसी खूंखार आतंकवादी से मुठभेड़ करती है तो इसी कानूनी प्रावधान का सहारा लेती है।
दीमापुर की भीड़ ने विचाराधीन कैदी को मार कर यह स्पष्ट संदेश दिया है कि ‘कानून के राज’ में उनकी आस्था नहीं है। पर वहां तैनात शस्त्रधारी पुलिस की अकर्मण्यता समझ से परे है। कड़े संघर्ष और बलिदानों के बाद भारत में ‘कानून के राज’ की स्थापना हो पाई। इसके लिए हजारों लोगों ने बलिदान दिए हैं। कुछ वर्ष पहले राजस्थान पुलिस ने जातिगत आरक्षण को लेकर हुए हिंसक प्रदर्शनों में शामिल भीड़ को काबू करने के लिए अलग-अलग स्थानों पर सैकड़ों लोगों को कानून के अनुसार बल प्रयोग करते हुए मौत के मार दिया था।
मंडल आरक्षण से जुड़े आंदोलन के दौरान देश भर में हिंसक हुई भीड़ को नियंत्रित करने के लिए की गई पुलिस कार्रवाई में भी सैकड़ों जानें गई थीं। कानून और व्यवस्था हर हाल में बनी रहनी चाहिए। नगालैंड प्रशासन की यह दलील कि अगर दीमापुर में पुलिस द्वारा बल प्रयोग किया जाता तो जान-माल की काफी क्षति हो सकती थी, एक कानून लागू करने वाली संस्था की दलील नहीं मानी जा सकती।
पुलिस अगर एक व्यक्ति की जान बचाने के लिए कानून के मुताबिक बल प्रयोग नहीं करेगी तो फिर कब करेगी? कानून का यही तकाजा है और व्यवस्था का दायित्व भी यही है। जिस प्रकार एक सैनिक के लिए देश की सीमा माता के वस्त्र की तरह पवित्र होती है, पुलिस के लिए कानून के राज की रक्षा करना भी उतना ही पाक होता है। इसीलिए पुलिस को प्रशिक्षण दिया जाता है और उसे शस्त्रधारी बनाया जाता है। ‘कानून के राज’ के साथ खिलवाड़ करने की इजाजत किसी भी कीमत पर किसी को भी नहीं दी जानी चाहिए। इस तर्क की कोई सीमा नहीं है कि अधिक जान-माल के नुकसान को बचाने के लिए दीमापुर में पुलिस द्वारा बल प्रयोग नहीं किया गया। कानून की रक्षा करने के दायित्व को एक व्यापारी की तरह लाभ-हानि की तराजू में तोलना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।
दीमापुर की घटना देश भर में सुरक्षा बलों की अकर्मण्यता में व्याप्त उस मानसिकता के लक्षण की परिचायक भी है जिससे राज्यों की पुलिस कालांतर में ग्रसित हो चुकी है। कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस द्वारा किए गए बल प्रयोग के कारण होने वाले जान-माल के नुकसान की सूरत में अमूमन न्यायिक जांच बैठाई जाती है। पुुलिस के विरुद्व हत्या के मुकदमे दर्ज किए जाते हैं। जांच करने वाले न्यायिक आयोग का स्वरूप विशुद्ध न्यायिक होता है जिसमें समान्यतया न्यायिक अधिकारी ही होते हैं।
यह सत्य है कि न्यायिक अधिकारियों को भीड़ के मनोविज्ञान, युद्ध जैसी स्थिति में उपस्थित पुलिस जनों की मानसिकता, जान पर आई आफत से बचने के लिए मनुष्य की मन:स्थिति, भीड़ को नियंत्रित करने की पुलिस की कवायद और बल प्रयोग करने के मापदंडों का संपूर्ण और व्यावहारिक ज्ञान नहीं होता है।
ऐसे में इस प्रकार के आयोग अंतत: पुलिस को कठघरे में खड़ा करने में संकोच नहीं करते हैं। शायद इसीलिए पुलिस निर्णायक बल प्रयोग करने से बचती है। पुलिस की इसी मानसिकता के कारण गैर-कानूनी भीड़ कानून के साथ खिलवाड़ करके भी साफ बच निकलती है। अच्छा होगा अगर इस प्रकार के प्रत्येक आयोग में पुलिस और प्रशासन के उन अधिकारियों को भी शामिल किया जाए जो इस प्रकार की परिस्थितियों में बल-प्रयोग करने के अनुभवी रहे हों ।
अनियंत्रित भीड़ द्वारा गैर-कानूनी हरकतों को अंजाम देने के पीछे एक हकीकत यह भी है कि इस प्रकार की भीड़ के विरुद्ध दर्ज किए गए मुकदमों में प्राय: पुलिस समुचित कानूनी कार्रवाई करने में विफल रहती है। वर्ष 1984 के सिख विरोधी दंगे हों या बाबरी मस्जिद की घटना के बाद हुई व्यापक हिंसक घटनाएं, विरले दोषियों को ही सजा मिल पाई है।
कई बार सत्तापक्ष की राजनीतिक विवशताएं आड़े आ जाती हैं तो कहीं सामाजिक संतुलन बनाए रखने की दुहाई। देश भर में अनेक क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां ऐसी स्थितियां बन चुकी हैं कि पुलिस वहां से अपराधियों को गिरफ्तार करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाती। दुर्भाग्य यह है कि पुलिस की इस प्रकार की विवशताएं लगातार बढ़ती ही जा रही हैं और कानून पंगु नजर आता है। पुलिस को इन परिस्थितियों से निपटने के लिए सशक्त और बंधनमुक्त करने की जरूरत आ पहुंची है। पर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि पुलिस को एक निरंकुश अभिकरण बना दिया जाए। जरूरत इस बात की है कि दीमापुर जैसी परिस्थितियों में किसी जन-सम्मत अभिकरण की निगरानी में पुलिस को नि:संकोच बल प्रयोग करने की छूट होनी चाहिए। इसके उपाय करने पड़ेंगे।
बल प्रयोग करने की अवस्था में मीडिया द्वारा सनसनीखेज टिप्पणी करके पुलिस को हर हाल में खलनायक चित्रित करना एक गंभीर चुनौती बनता जा रहा है। पुलिस की अवांछनीय गतिविधियों की जहां निंदा होनी चाहिए वहीं कानून की रक्षा करने के लिए की गई कार्रवाई पर मीडिया सहित समाज के सभी वर्गों का सहयोग पुलिस को मिलना चाहिए।
कानून का राज अगर स्थापित रहेगा तो हम सभी सुरक्षित रहेंगे। सामाजिक, प्रशासनिक और सार्वजनिक व्यवस्था में सम्मिलित प्रत्येक प्रबुद्ध नागरिक का यह दायित्व बन जाता है कि कानून के राज की शुचिता बनाए रखने में सहयोग दिया जाए। अगर ऐसा नहीं हो पाया तो जनता अपना न्याय करने के लिए खुद सड़कों पर उतरेगी और जब जनता सड़कों पर उतर आती है, इतिहास गवाह है कि व्यवस्था अप्रासंगिक होकर रह जाती है। ऐसी स्थिति नहीं आने देनी चाहिए।
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