असरार खान
आम आदमी पार्टी के मुकाबले हमारे देश की दोनों शीर्ष राष्ट्रीय पार्टियां- भाजपा और कांग्रेस- दिल्ली के विधानसभा चुनावों में जिस अपूर्व ढंग से पराजित हुई हैं उसकी किसी ने कल्पना भी न की होगी। आप को मिली सफलता खुद उसकी उम्मीदों से अधिक है। दिल्ली की सत्तर सदस्यीय विधानसभा में आप को सड़सठ सीटें मिलीं, जबकि भारतीय जनता पार्टी को सिर्फ तीन। कांग्रेस का तो सफाया ही हो गया। इस ऐतिहासिक जीत के फलस्वरूप आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों का मनोबल सातवें आसमान पर है और अब वे पूरा देश जीत लेना चाहते हैं। लिहाजा, 2019 के आम चुनावों से पहले जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं उन राज्यों के कार्यकर्ता यह जानने के लिए बेहद उत्सुक हैं कि उनके करिश्माई नेता अरविंद केजरीवाल इस बारे में अब क्या फैसला लेने जा रहे हैं?
हालांकि इस सिलसिले में पार्टी के भीतर से कई तरह के विचार सामने आ रहे हैं, लेकिन उन्हें पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के निजी विचार के तौर पर देखा जा रहा है। कुछ नेताओं का खयाल है कि पहले दिल्ली को पुख्ता कर लिया जाए फिर अपने माफिक राज्यों में चुनावी गतिविधियां तेज की जाएं तो ज्यादा बड़ी और सार्थक सफलता अर्जित करने की उम्मीद की जा सकती है वरना दिल्ली में हासिल हुई अपूर्व कामयाबी का रंग फीका पड़ने के जोखिम से इनकार नहीं किया जा सकता।
कुछ लोगों का विचार यह भी है कि बड़े-बड़े राजनीतिक बदलाव, व्यवस्था परिवर्तन और विप्लव ज्यादा ठहराव और इंतजार की अनुमति नहीं देते। इतिहास गवाह है कि रूस की बोल्शेविक क्रांति के महानायक लेनिन ने तो 1917 में सात नवंबर के दिन को जारशाही के तख्तापलट का दिन निर्धारित करते हुए उसमें एक दिन के विलंब को भी किसी कीमत पर न स्वीकार करने की हिदायत दे रखी थी और उनकी योजना सफल हुई। इसी तरह चीन की क्रांति के नायक माओ त्से तुंग भी जब एक बार ‘लांग मार्च’ के अभियान पर निकल पड़े तो उन्होंने चीन पर लाल झंडा फहरा कर ही दम लिया।
हालांकि यह बात सही है कि आम आदमी पार्टी कोई सशस्त्र क्रांति करने नहीं निकली है। लेकिन यह कहना भी गलत नहीं होगा कि अरविंद केजरीवाल अगर आम आदमी पार्टी के घोषित एजेंडे को हासिल करने में कामयाब होते हैं तो आने वाले दिनों में उन्हें शांतिपूर्ण और मतदान द्वारा लोकतांत्रिक क्रांति करने वाले इंकलाबी के रूप में स्वीकार कर लिया जाएगा। इस बार दिल्ली के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी की सभाओं में जनता का सैलाब जिस तरह से उमड़ रहा था उसे देख कर भी ऐसा लग रहा था जैसे कि लोगों ने अपने नायक अरविंद केजरीवाल के भरोसे पर किसी भी हद तक जाने का निश्चय कर लिया हो।
इस वक्त राजनीतिक गलियारों में भी बड़ी जोर से यह बहस छिड़ गई है कि देखना है आम आदमी पार्टी दिल्ली के बाहर किस तरह कदम रखने जा रही है, जो उसे दूसरे राज्यों में भी दिल्ली जैसी कामयाबी दिला कर केंद्र में भी उसके सत्तासीन होने का मार्ग प्रशस्त कर सके। ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक और आम आदमी पार्टी के चिंतक इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि पार्टी एक राष्ट्रीय आंदोलन है और अब इसे नदी की धारा की तरह बेतहाशा आगे बढ़ने देना चाहिए। आप का मुख्य आधार फिलहाल भले दिल्ली और फिर पंजाब में है, मगर यह कोई क्षेत्रीय पार्टी नहीं है; मौजूदा राजनीति का विकल्प बनने के सपने के साथ इसका गठन हुआ है। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी विस्तार इसकी स्वाभाविक परिणति होगी।
कहने का मतलब यह है कि इसमें ठहराव की कोई गुंजाइश नजर नहीं आ रही है। लिहाजा, इसके विस्तार को रोकने का प्रयास करने वाला खुद इसमें बह जाएगा। इसलिए बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में पार्टी को चुनाव लड़ने के बारे में जल्द से जल्द फैसला करना होगा, क्योंकि इन राज्यों में आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों की संख्या किसी भी प्रभावशाली पार्टी से अधिक हो चुकी है, बल्कि सबसे अधिक उत्साही लोग भी इसी पार्टी में हैं। फिर राष्ट्रीय स्तर पर ‘मिशन विस्तार’ के तहत पार्टी ने संगठन को मजबूत करने की दिशा में कुछ ठोस और व्यावहारिक कदम उठाए हैं। लिहाजा, लोकतंत्र के महापर्व यानी चुनाव में उतर कर सड़ी-गली सरकार को आखिरी धक्का देने के लिए लोगों ने कमर कसना शुरू कर दिया है।
इस लिहाज से चुनावों में न उतरने की चूक अगर हुई तो पार्टी को भारी नुकसान हो सकता है, क्योंकि लोगों के सब्र का बांध अब टूट चुका है। सवाल यह भी है कि चुनाव से अलग रहने पर वहां पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों की भूमिका क्या होगी? क्या वे चुनाव के वक्त खामोश रहेंगे? लिहाजा, लंबे समय तक इंतजार करने का फलसफा असामयिक हो गया है। दिल्ली में ‘आप’ को मिली सफलता से प्रेरणा लेकर राज्य स्तर पर आम आदमी पार्टी जैसी दूसरी पार्टियां भी पैदा हो सकती हैं और बहुत से नकली केजरीवाल भी कुकुरमुत्तों की तरह उग सकते हैं, जो आम आदमी पार्टी की राह में रोड़ा बन सकते हैं।
दिल्ली के विधानसभा चुनाव में मिली ऐतिहासिक जीत ने आम आदमी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के मन में यह पक्का विश्वास पैदा कर दिया है कि इस आंदोलन के जरिए भ्रष्टाचार के साथ-साथ वंशवाद जैसी राजनीतिक बीमारी से भारत को निजात दिलाई जा सकती है और दलाल पूंजीपतियों के मकड़जाल से देश की अर्थव्यवस्था को मुक्त करा कर हम अपने राजकोष को दो-तीन गुना बढ़ा सकते हैं। और तब हम कमाने वालों का राज कायम करने के बारे में भी सोच सकते हैं। रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बड़े मसलों का हल किया जा सकेगा। इतना ही नहीं, बल्कि पूर्ण स्वराज के महान लक्ष्य को भी हासिल करने का रास्ता साफ हो सकता है, जो आम आदमी पार्टी का सबसे बड़ा नारा है। खुद केजरीवाल ने ‘स्वराज’ नाम से एक किताब लिख डाली है जिसकी लाखों प्रतियां कार्यकर्ताओं के पास पहुंच चुकी हैं और आम जनता भी उसे खरीद कर पढ़ रही है।
फिलहाल, आम आदमी पार्टी की सबसे बड़ी खूबी और सबसे बड़ी परेशानी यह है कि इसके पास कार्यकर्ताओं की इतनी बड़ी फौज खड़ी हो गई है कि अगर उन्हें काम पर नहीं लगाया गया तो पार्टी को एकजुट रख पाना आसान नहीं होगा। और यह भी कम रोचक और आश्चर्यजनक बात नहीं है कि इस पार्टी में आस्तिक से लेकर नास्तिक और वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी और गांधीवादी हर विचारधारा के लोग भरे पड़े हैं। लेकिन विचारधारा के नाम पर आपस में किसी प्रकार की कटुता दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती।
इस पार्टी में लोग एक-दूसरे का इतना सम्मान और आपस में प्यार करते हैं कि उसे देख कर दिल खुश हो जाता है। इस पार्टी में पेशे की दृष्टि से हर क्षेत्र के लोग भारी संख्या में मौजूद हैं जिन्हें देख कर यह यकीन होने लगता है कि इतना बड़ा समूह तो सचमुच ही कठिन से कठिन लक्ष्य को हासिल कर सकता है।
एक करोड़ से अधिक सदस्यों वाली इस पार्टी को भले ही पिछले लोकसभा चुनावों में एक करोड़ वोट ही मिले हों, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि पूरे देश में ‘आप’ के समर्थक मतदाताओं की संख्या सात-आठ करोड़ से कम नहीं थी। पर अंतिम समय में वे झाड़ू का बटन इसलिए नहीं दबा सके कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस का विकल्प नहीं बन पाई और नरेंद्र मोदी के जाल में भोली-भाली जनता बड़ी आसानी से फंस गई। बहरहाल, जो भी हुआ वह बीत गया और अब जबकि जनता ने राजनीतिक पार्टियों से आंख मिला कर राजनीति करने का निश्चय कर लिया है तो धंधेबाज राजनीतिक दलों का जनाजा उठना तय माना जा रहा है। घृणा और जाति के भेदभाव और जाति के नाम पर मतों का ध्रुवीकरण करके कुछ घर-घरानों और व्यक्तियों की राजनीति का पटाक्षेप होने वाला है।
जिस तरह से रूस की लाल सेना के अध्यक्ष त्रात्स्की ने कहा था कि अगर पूरे यूरोप में क्रांति नहीं हुई तो यूरोप का पूंजीवाद रूस के साम्यवाद को खा जाएगा। ठीक उसी तरह से केजरीवाल की दिल्ली सरकार के बारे में भी कहा जा सकता है कि अगर दिल्ली जैसी सरकार पूरे भारत में नहीं आई तो दलाल पूंजीपतियों की पार्टियां केजरीवाल की दिल्ली सरकार को खा जाने की कोशिश करेंगी। इसलिए बेहतर यही होगा कि आम आदमी पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर बहुत तेजी से विस्तार किया जाए, क्योंकि इस पार्टी में राष्ट्रीय स्तर के नेताओं या एक से बढ़ कर एक योग्य चिंतकों की कोई कमी नहीं है!
आम आदमी पार्टी के आंदोलन को कामयाब बनाने के लिए आपको 1977 में संपूर्ण क्रांति के नारे की बदौलत जनता पार्टी का सत्ता में आने और उसके विफल होने के कारणों को गंभीरता से एक अनुभव के तौर पर सामने रख कर चलना होगा। इसी तरह 1989 में वीपी सिंह का भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन के बाद सत्ता में आना, पर साल भर के अंदर ही उतने बड़े आंदोलन का केंद्र सांप्रदायिक और सामाजिक न्याय की राजनीति कैसे बन गई ये सारे अनुभव काम आ सकते हैं।
कभी-कभी ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े हुए किसी भी आंदोलन को कुचलने का षड्यंत्र रचने का काम केवल खुद हमारी राजसत्ता और देशी कंपनियां ही नहीं करतीं, बल्कि इस काम में विदेशी कंपनियां भी शामिल होती रही हैं जिससे वे भ्रष्ट तंत्र का अच्छी तरह से लाभ उठाती रहें। इसलिए सभी तरह की मुनाफाखोर ताकतों पर भी पूरी सतर्कता के साथ नजर रखनी पड़ेगी कि कहीं इस आंदोलन को कोई ताकत इसके असली एजेंडे से विचलित न कर दे।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta