बनवारी
लगभग एक शताब्दी से अमेरिका संसार के सभी देशों के लिए समृद्धि का मानक बना हुआ है। अमेरिका एक औद्योगिक देश है और यह मान लिया गया है कि समृद्धि पाने के लिए उसी की तरह एक औद्योगिक देश बनना आवश्यक है। सभी देश, चाहे वे पूंजीवादियों नीतियों पर चल रहे हों या साम्यवादी नीतियों पर, अमेरिका जैसा होना चाहते हैं। अमेरिका द्वारा निर्देशित अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं ने सबके लिए एक ‘आर्थिक उदारीकरण’ की नीति प्रस्तावित कर रखी है। इस नीति पर आप जितने कदम बढ़ाएंगे उतनी मात्रा में अंतरराष्ट्रीय निवेशकों की पूंजी आपको उपलब्ध हो जाएगी। इस रणनीति ने दुनिया के बहुत-से देशों को दिवालिया बना दिया है। उनमें अफ्रीकी और लातिनी अमेरिका के देश ही नहीं, यूनान जैसी विकसित अर्थव्यवस्थाएं भी सम्मिलित हैं। फिर भी समृद्धि का यह अमेरिकी मानक टूट नहीं रहा।
लेकिन अमेरिका में इन दिनों अमेरिकी समृद्धि की बात नहीं हो रही। यू-ट्यूब पर आप देख सकते हैं कि वहां इन दिनों उन विश्लेषकों की धूम है जो यह कह रहे हैं कि विश्व का सबसे समृद्ध देश होने के बावजूद अमेरिका में सबसे विकट गरीबी के दर्शन किए जा सकते हैं। तीस करोड़ की आबादी वाले अमेरिका में पांच करोड़ अमेरिकियों को दो समय का भोजन उपलब्ध नहीं है। उनकी आमदनी दो डॉलर प्रतिदिन से भी कम है और उन्हें नाममात्र की मिलने वाली सरकारी सहायता न मिले तो उनका जीवन दूभर हो जाए। आधी अमेरिकी आबादी निर्धनता में जी रही है, अपनी न्यून आय से वे हारी-बीमारी या किसी आपात-स्थिति के लिए कुछ बचा सकने में समर्थ नहीं हैं।
अमेरिका में 1970 के बाद से ऐसी नौकरियों की संख्या लगातार घटती रही है जिनकी आय उन्हें मध्यवर्ग में पहुंचा सकती है। मध्यवर्ग सिकुड़ता जा रहा है और ऐसी रही-सही नौकरियों पर भी भारतीय या चीनी पकड़ बढ़ाते जा रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इस पर चिंता जता चुके हैं। कई अमेरिकी राजनेता बाहरी लोगों को काम सौंपा जाना बंद करवाना चाहते हैं। पर समस्या यह है कि ऐसे लोग ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाए हुए हैं। बाहर से आने वाले लोगों के कारण अमेरिका का जन-भूगोल बदलता जा रहा है। 1980 में अस्सी प्रतिशत अमेरिकी यूरोपीय मूल के गोरे थे। अब उनकी संख्या घट कर तिरसठ प्रतिशत रह गई और 2060 तक उसके घट कर चौवालीस प्रतिशत रह जाने की आशंका है। इसका राजनीतिक प्रभाव आप बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने में देख सकते हैं। कहते हैं कि वे अश्वेत अमेरिकियों के समर्थन से ही जीते हैं।
अमेरिका में एक तरफ गरीबी बढ़ रही है तो दूसरी तरफ अमीरी भी बढ़ रही है। दुनिया के सबसे अधिक अरबपति अमेरिका में ही हैं और उनकी संख्या और समृद्धि दोनों बढ़ते जा रहे हैं। आर्थिक विश्लेषकों के अनुसार, अमेरिका की एक प्रतिशत आबादी के पास अमेरिका की कुल संपत्ति का बीस प्रतिशत है और ऊपर की लगभग दस प्रतिशत आबादी के पास लगभग चालीस प्रतिशत। कुछ विश्लेषकों ने कहा है कि अब्राहम लिंकन के समय के अमेरिका में गुलामी की प्रथा समाप्त किए जाने से पहले भी उतनी विषमता नहीं थी जितनी आज है। अमेरिका में 1970 के बाद से श्रमिकों की मजदूरी नहीं बढ़ी। 2008 के बाद से उनकी मजदूरी में चालीस प्रतिशत कटौती हो चुकी है। यह बात कम लोग जानते हैं कि पूंजीवादी अमेरिका में मजदूरों के लिए यूरोप जैसे हितकारी प्रावधान नहीं हैं। वहां उन्हें बीमारी आदि के लिए भी कोई सवेतन छुट्टियां नहीं मिलतीं। उन्हें हारी-बीमारी के लिए कोई चिकित्सकीय सुविधाएं भी नहीं हैं, जबकि चिकित्सा बहुत महंगी है।
इस दुरवस्था ने अमेरिकी बौद्धिक जगत के एक छोटे-से वर्ग में आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति पैदा की है। पिछले दिनों दर्जनों ऐसी बहुचर्चित पुस्तकें छपी हैं जिनमें अमेरिकी इतिहास के भीषण अपराध वर्णित हैं। उनमें बताया गया है कि किस तरह पहले मुख्यत: स्पेन और फिर ब्रिटेन से सोना खोजने वालों की बाढ़ अमेरिका आई थी। कोलंबस के अमेरिका पहुंचने तक वहां स्थानीय निवासियों की दस करोड़ से अधिक आबादी थी और पशुओं तथा वनस्पतियों की प्रचुरता और बहुलता। यूरोपियों की लोभजन्य क्रूरता ने थोड़े ही समय में इन सबको नष्ट कर दिया। इससे पहले मनुष्य के इतिहास में इतनी बड़ी क्रूर हिंसा का उदाहरण शायद ही रहा हो।
जब स्थानीय आबादी हिंसा और रोगों की भेंट चढ़ गई तो अफ्रीका से गुलामों का आयात आरंभ हुआ। इस घृणित व्यापार ने अफ्रीकी महाद्वीप को स्वस्थ्य और योग्य आबादी सेवंचित कर दिया था। 1619 में पहली बार बीस अफ्रीकी गुलाम अमेरिका पहुंचे थे। उसके बाद ढाई सौ वर्ष तक लाखों की संख्या में अफ्रीका से लाए गए गुलाम सब तरह के अत्याचार सहते हुए गोरे अमेरिकियों को संपन्न बनाने में जुटे रहे।
अकेले अठारहवीं शताब्दी में साठ से सत्तर लाख अफ्रीकी गुलाम बना कर अमेरिका लाए गए थे। फिर जब तंबाकू के खेत बरबाद हो गए और उतरी प्रांतों में खड़े हो रहे कपड़ा उद्योग को मजदूरों की आवश्यकता हुई तो गुलामी की प्रथा समाप्त करने का नारा लगा। 1870 में उन्हें नागरिक बना कर वोट का अधिकार दे दिया गया, लेकिन आज भी अफ्रीकी मूल के अमेरिकी सबसे निम्न स्तर पर ही जी रहे हैं।
अमेरिका दुनिया भर में नागरिक अधिकारों का अलम्बरदार बना घूमता है। लेकिन अफ्रीकी मूल के लोगों को नागरिकता मिलने के सौ वर्ष बाद तक उन्हें गोरों के साथ बस में यात्रा करने, रेस्तरां में खाना खाने या स्कूल में पढ़ने की मनाही थी। 1960 में रंगभेद के विरुद्ध जो आंदोलन छिड़ा उसने ही कुछ हद तक उन्हें ये अधिकार दिलवाए। आज भी अगर अमेरिकी श्रमिक सब सुविधाओं से वंचित हैं तो इसका कारण पूंजीवाद से अधिक भेद-भाव ही है, क्योंकि अधिकांश श्रमिक आबादी अफ्रीकी मूल के या हिस्पानी लोगों की है। अमेरिकी जेलों में भी उन्हीं की बहुसंख्या है। अमेरिकी कानूनों में अमेरिकी नागरिकों को सब तरह के भेदभाव से बचाने का आश्वासन है और ऐसे मामले सामने आने पर सख्ती भी बरती जाती है। लेकिन गोरे अमेरिकी स्वाभाववश उनके मार्ग में बाधाएं खड़ी किए रहते हैं और वे एक स्तर से ऊपर उठने में सफल नहीं हो पाते। इसका विषाद ही उन्हें अपराध और आक्रामकता की ओर धकेलता है।
एक शताब्दी तक शक्तिऔर समृद्धि में विश्व के शिखर पर रहने के बावजूद अमेरिकियों में अपने भविष्य के प्रति आश्वस्ति या स्वभाव की स्थिरता नहीं आ पाई। पहले उन्हें रूस और साम्यवाद संसार के लिए सबसे बड़ा खतरा दिखाई देता था। जापान की तेज आर्थिक प्रगति ने भी बहुत-से अमेरिकियों को इस आशंका से भर दिया था कि कहीं जापान की समृद्धि अमेरिका को पीछे न छोड़ दे। इस आशंका में उन्होंने चीन को आगे बढ़ाना आरंभ किया और अब उन्हें डर सताने लगा है कि देर-सबेर चीन विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने वाला है और वह उनके वर्चस्व को समाप्त कर सकता है। इस आशंका ने उन्हें भारत की ओर आशा से देखने के लिए प्रेरित किया है। वास्तव में विश्व का आर्थिक ढांचा कुछ ऐसा है कि जब तक कोई और देश अपनी समृद्धि से अंतरराष्ट्रीय पूंजी का प्रवाह अपनी ओर नहीं मोड़ लेता, अमेरिका शिखर पर बना रहेगा।
आज अमेरिका की समृद्धि वास्तविक कम, वायवी अधिक है। 1900 से 1970 तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था का स्वर्णिम दौर था। 1970 के बाद अपने यहां के प्रदूषण को कम करने और कई दूसरे कारणों से अमेरिका ने अपना विनिर्माण उद्योग अन्य देशों तथा चीन की ओर खिसका दिया। उसके बाद अमेरिका निर्माता की जगह आयातक देश हो गया। इससे व्यापारिक घाटा हुआ।
लेकिन अपनी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और व्यापारिक तंत्र के बल पर अमेरिका अपना वर्चस्व बनाए रहा और जर्मनी, जापान और बाद में चीन की बचत-पूंजी अमेरिकी बाजार में पहुंच कर अमेरिकी अर्थव्यवस्था को टिकाए रही। अमेरिकी विश्लेषकों का मानना है कि इस वित्तीय जोड़-तोड़ से छोटी अवधि में तो अपना वर्चस्व बनाए रखा जा सकता है, लंबी अवधि में नहीं। अब तक वर्चस्व बनाए रखने के लिए अमेरिका पहले उद्योग से व्यापार पर आश्रित हुआ, फिर व्यापार से वित्त पर आश्रित हो गया। आधी शताब्दी पहले तक वह संसार का सबसे बड़ा निर्माता देश था, आज वह सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है। इस परिवर्तन से अमेरिकियों की तकनीकी कुशलता में क्षति हुई है, जो उत्पादन तंत्र के नित नवीनीकरण के लिए आवश्यक होती है। क्योंकि उसी के सहारे आप लंबे समय तक बाजार में टिक सकते हैं।
यह ढोल की पोल केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था की विशेषता नहीं है। अमेरिकी सामरिक शक्ति में भी ऐसी ही ढोल की पोल है। अब तक अमेरिकियों ने अपने शौर्य के बल पर कोई युद्ध नहीं जीता, अपने संहारक हथियारों के बदल पर विरोधियों को झुकने के लिए विवश किया है। हिरोशिमा और नागासाकी पर आणविक हथियारों का दुरुपयोग एक ऐसा कलंक है जो उसके माथे पर हमेशा बना रहेगा। वे न विएतनामियों का मनोबल डिगा पाए, न अफगानिस्तान से विजय होकर निकले। इराक में सद्दाम हुसैन के शासन को उन्होंने अपने उन्नत हथियारों के बल पर ध्वस्त कर दिया, पर अब उनसे आइएसआइएस से उलझते नहीं बन रहा। अमेरिकी सेना सीधी लंबी लड़ाई नहीं लड़ सकती। लंबी अवधि में हथियार नहीं, शौर्य ही काम आता है। अमेरिका औरों से नहीं, अपने नागरिकों से भी इतना आशंकित रहता है कि उसने अपने आप को एक पुलिस स्टेट में बदल दिया है।
अमेरिका अब भी समृद्ध और शक्तिशाली है, पर यह समृद्धि और शक्ति उसे जिन साधनों, इतिहास और स्वभाव से मिली है वह अमेरिकियों को वरेण्य नहीं बनाती। इतिहास में किए गए अपने पापों का बोझ उन्हें एक न एक दिन ले डूबेगा। आज जो अमेरिकी इसके प्रायश्चित-स्वरूप अमेरिकी तंत्र के सुधार की बात कर रहे हैं वह बहरे के सामने चिल्लाने की तरह है। यह याद रखना चाहिए कि यह सब अमेरिकी पूंजीवाद का ही दोष नहीं है, साम्यवादियों का इतिहास भी कोई कम रक्तरंजित नहीं है। यह दरअसल यूरोपीय स्वभाव का दोष है। अमेरिका उस स्वभाव की सबसे बेलाग अभिव्यक्ति है।
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