अजय खेमरिया
भारत सरकार ने नर्सिंग शिक्षा, इसके पाठ्यक्रम और सेवा को समुन्नत करने के लिए बड़ा नीतिगत निर्णय किया है। सरकार ने ‘नेशनल नर्सिंग ऐंड मिडवाइफरी आयोग विधेयक 2020’ का मसौदा लोकपटल पर रखा है, जिसमें इस क्षेत्र के लिए बुनियादी बदलाव के प्रावधान किए गए हैं। इस विधेयक के कानून बनते ही नीट की तर्ज पर देश भर में नर्सिंग की एकीकृत परीक्षा और काउंसलिंग होगी। साझा प्रवेश एवं योग्यता परीक्षा के माध्यम से स्नातक एवं परास्नातक पाठ्यक्रमों के लिए प्रवेश परीक्षा का स्वरूप बिल्कुल नीट की तरह बनाया गया है। इससे देश भर में अलग-अलग संस्थानों द्वारा आयोजित की जाने वाली प्रवेश परीक्षाओं से मुक्ति मिलेगी। विधेयक में एग्जिट एक्जाम का प्रावधान भी है। अंतिम वर्ष को एग्जिट माना गया।
कानून बनते ही राज्य सरकारें किसी नए नर्सिंग कॉलेज का पंजीकरण नहीं कर पाएंगी। इसके लिए उन्हें एनएमसी से मंजूरी लेनी होगी। नेशनल मेडिकल आयोग (एनएमसी) पुराने नर्सिंग कॉलेजों का निरीक्षण करेगा और शर्तें पूरी न करने वाले कॉलेजों की मान्यता रद्द करेगा। नया विधेयक 1947 के नर्सिंग काउंसिल एक्ट का स्थान लेगा, जो अभी देश भर में अनेक नर्सिंग परीक्षाओं की अनुमति देता है। एनएमसी की तर्ज पर ही अब नेशनल नर्सिंग ऐंड मिडवाइफरी आयोग भी काम करेगा।
यह आयोग न केवल प्रवेश परीक्षा, बल्कि नर्सिंग क्षेत्र की नीतियां, मानक, पाठ्यक्रम, संस्थागत सरंचना, फीस, व्यावसायिक नैतिकता, क्लिनिकल प्रैक्टिस और शोध जैसे मामलों में नई नियमावली बनाएगा। इसके लिए एनएमसी की तरह ही अलग-अलग बोर्ड होंगे। आयोग में केंद्र और राज्यों के प्रतिनिधि शामिल किए जाएंगे। विधेयक में विदेशी डिग्रीधारकों को भी भारत में सेवा का अवसर देने की बात कही गई हैं।
इस मसौदे में सबसे बड़ी बात है कि नर्सिंग स्नातकों को दो साल की मानक प्रैक्टिस के बाद मरीज को दवा लिखने का अधिकार होगा। इस प्रावधान का एलोपैथी चिकित्सक विरोध कर सकते हैं, जो पहले से ही एकीकृत स्वास्थ्य नीति में आयुष चिकित्सकों को प्रैक्टिस के प्रावधान को लेकर विरोध में हैं। इस विधेयक का दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू होम बेस्ड पर्सनल केयर असिस्टेंट की व्यवस्था का है। इसके अंतर्गत अस्पताल और अन्य संस्थानों से बाहर घरों में जाकर नर्सिंग सेवा प्रदान करने की बात कही गई है।
असल में नई शिक्षा नीति में जिस ब्रिज कोर्स का जिक्र किया गया है वह नर्सिंग को भी सीमित मामलों में क्लिनिकल प्रैक्टिस की बात करता है। नया विधेयक भारत को नर्सिंग क्षेत्र का ‘वैश्विक मानव संसाधन केंद्र’ बनाने की महत्त्वाकांक्षी सोच को आकार देने की संकल्पना को भी अभिव्यक्त करता है।
दुनिया में भारत और फिलिपींस सर्वाधिक नर्सें प्रदान करने वाले देश हैं। खाड़ी देशों के अलावा इंग्लैंड, अमेरिका और अफ्रीकी देशों में सर्वाधिक मांग भारतीय नर्सों की होती है। इसके बावजूद हमारे देश में नर्सिंग क्षेत्र बहुत बदहाल है। कोई एकीकृत नीति न होने के कारण यहां नर्सिंग क्षेत्र में न केवल विविधता है, बल्कि सामाजिक रूप से भी यह पेशा प्रतिष्ठित नहीं है। एक मरीज के स्वस्थ होने में सत्तर फीसद योगदान नर्स का होता है। मगर भारतीय नर्सों के वेतन और सेवा शर्तों में अन्यायपूर्ण विसंगतियां हैं। जितने राज्य हैं उतनी सेवा शर्तें और भर्ती प्रक्रिया हैं।
भारत में हर वर्ष चार लाख दाखिले नर्सिंग के अलग-अलग पाठ्यक्रमों में होते हैं, जिनमें से आधे भी देश में सेवा नहीं करते। यूएई के अस्सी फीसद अस्पतालों में भारतीय नर्सें सेवा देती हैं। खाड़ी देशों में भारतीय नर्सें अगर काम छोड़ कर कहीं जाना चाहती हैं, तो उनका ठिकाना भारत नहीं, बल्कि यूरोप के मुल्क होते हैं, क्योंकि भारत में आर्थिक और सामाजिक स्तर पर विदेशों की तुलना में बेहतर माहौल नहीं है।
भारत में कुल चिकित्सीय सेवा क्षेत्र का सैंतालीस फीसद हिस्सा नर्सों का है, वहीं तेईस फीसद डॉक्टर, साढ़े पांच फीसद डेंटिस्ट, और साढ़े चौबीस में अन्य पैरामेडिकल स्टाफ शामिल हैं। खास बात यह भी है कि वैश्विक दृष्टि से नर्सों की यह भागीदारी साठ फीसद है, यानी भारत से तेरह फीसद अधिक। सिविल अस्पतालों में अस्सी फीसद स्टाफ नर्स वगैर पदोन्नति के अल्प वेतन पर जीवन गुजारने को विवश हैं। नर्सिंग का अध्ययन डिप्लोमा के आगे बीएससी, एमएससी, पीएचडी तक जाता है। स्नातक चिकित्सा पाठ्यक्रम (एमबीबीएस) का साठ फीसद तक नर्सिंग में पढ़ाया जाता है, लेकिन स्वास्थ्य क्षेत्र के इस मेरुदंड पर सरकार का कभी ध्यान नहीं गया।
भारत में ही फिलहाल बीस लाख नर्सों की जरूरत है। डब्लूएचओ की ताजा रिपोर्ट कहती है कि 2030 तक विश्व में साठ लाख नर्सों की आवश्यकता होगी। ब्रिटिश नेशनल हेल्थ सर्विस में हर साल एक हजार भारतीय नर्सें स्थायी सेवा में रखी जाती हैं। दुनिया के लगभग हर मुल्क में भारत की नर्सें आज सेवाएं दे रही हैं। यानी भारत स्वास्थ्य क्षेत्र की इस रीढ़ को कायम रखने वाला अहम मुल्क है, लेकिन तथ्य यह है कि हमारे यहां इस सेवा का कोई एकीकृत ढांचा नहीं है।
दिल्ली उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली में नर्सिंग का वेतन बीस हजार रुपए करने के निर्देश सरकार को दिए। क्या यह वेतन सेवा के अनुपात में उचित कहा जा सकता है? उत्तराखंड में फार्मासिस्ट के समान वेतन करने के लिए नर्सें संघर्षरत हैं। मप्र में तीन अलग-अलग वेतनमानों पर इनकी भर्तियां होती हैं। जाहिर है, भारत में नर्सिंग सेवा को सरकार ने खुद ही प्राथमिकता से बाहर रखा हुआ है।
दुनिया की कुल 2.79 करोड़ नर्सों में से नब्बे फीसद महिलाएं हैं। भारत में यह आंकड़ा अट्ठासी फीसद है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रपट के मुताबिक कोविड संकट में करीब चौवालीस फीसद मरीज नर्सों के सेवाभावी समर्पण से ही स्वस्थ्य हो रहे हैं। ऐसे में एकीकृत नर्सिंग सेवा संवर्ग या मानक सेवा शर्तों का निर्धारण किया जाना वक्त की मांग है।
भारतीय निवेश आयोग के अनुसार इस क्षेत्र में बड़े निवेश की आवश्यकता है, क्योंकि यह बारह फीसद की दर से बढ़ता हुआ क्षेत्र है। सरकार निजी क्षेत्र पर निर्भरता के स्थान पर खुद नर्सिंग स्कूलों का संचालन वैश्विक मांग के अनुरूप सुनिश्चित कर सकती है। न केवल भारत, बल्कि दुनिया में तेजी से इस सेवा क्षेत्र की मांग बढ़ेगी, क्योंकि अमेरिका में जहां दस हजार लोगों पर 83.4 नर्सें हैं वहीं अफ्रीकी और दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में यह औसत 8.7 है।
कोविड संकट में यह भी तथ्य स्पष्ट हो चुका है कि विश्व की आधी आबादी तक कोई बुनियादी स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध नहीं है। विकसित देशों में नर्सों की बढ़ती उम्र भी बड़ी मांग निर्मित करेगी, क्योंकि भारत की तुलना में यहां जनांकिकीय स्वरूप उम्रदराज हो चुका है। जाहिर है, भारत नए वैश्विक स्वास्थ्य जगत में एक बड़ा उद्धारक साबित हो सकता है। इसके लिए सरकारी स्तर पर एक स्थायी और समावेशी नर्सिंग नीति की आवश्यकता थी। केंद्र सरकार ने हाल ही में एक सौ तीस जीएनएम और इतने ही एएनएम स्कूल खोलने को मंजूरी दी है।
निजी क्षेत्र में खोले गए स्कूल केवल लाभ कमाने की मानसिकता से संचालित होते हैं, इसलिए नए विधेयक में एकीकृत नियंत्रण और नियमन के प्रावधान किए गए हैं। अगर इस कानून की मंशा के अनुरूप इस क्षेत्र में बदलाव और सुधार संभव होते हैं, तो आने वाले वक्त में भारत नर्सिंग क्षेत्र का सबसे बड़ा कुशल मानव आपूर्तिकर्ता देश होगा।
इस बदलाव का एक अहम पक्ष सामाजिक आर्थिक सशक्तिकरण का भी है, क्योंकि इस क्षेत्र में करिअर बनाने वाले अधिकतर लोग आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों से आते हैं। जाहिर है, नया प्रस्तावित कानून न केवल हमारे जन आरोग्य, बल्कि वैश्विक दृष्टि से भी भारत को कुशल मानव संसाधन केंद्र के रूप में स्थापित कर सकेगा।