परमजीत सिंह वोहरा
महिलाओं के आर्थिक विकास के मुद्दे को बड़ी संख्या में बल तब मिलेगा, जब ऐसी शिक्षित लड़कियां स्वयं आगे बढ़ कर अपनी तकनीकी तथा व्यावसायिक प्रबंधन की शिक्षा का उपयोग खुद के व्यावसायिक प्रतिष्ठान में करने की कोशिश करेंगी। इसके माध्यम से समाज में एक बदलाव आएगा तथा महिलाओं का समाज के आर्थिक विकास में भी योगदान बढ़ेगा।
अब समाज में महिलाओं के आर्थिक विकास को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। महिला सशक्तिकरण की बात तो हम लंबे समय से कर रहे हैं, पर हमारे मुल्क की तीव्र आर्थिक प्रगति के लिए अब महिलाओं के आर्थिक विकास को प्राथमिकता देना अत्यंत आवश्यक है। एक सौ चालीस करोड़ की आबादी वाले हमारे मुल्क में करीब पचपन करोड़ लोग अपने परिवार के कमाने वाले सदस्यों पर निर्भर हैं। इसमें घरेलू महिलाएं बड़ी तादाद में हैं। इसके अलावा हमारे समाज में शिक्षित महिलाओं का भी घरेलू महिलाओं की संख्या में बहुत बड़ा भाग है। आश्रितों की इतनी बड़ी संख्या अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती है।
इन दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था दो प्रकार की स्थितियों से गुजर रही है। एक तरफ जहां आर्थिक विकास में निरंतरता बनाए रखना मुख्य उद्देश्य है, तो वहीं दूसरी तरफ लगातार बढ़ रही आर्थिक असमानता भारत के समग्र आर्थिक विकास में बहुत बड़ी बाधा है। लगातार बढ़ती आर्थिक विषमता ने अमीरों और गरीबों के बीच की खाई को बहुत चौड़ा कर दिया है। कोरोना महामारी के दौरान जहां एक तरफ भारत में गरीबों की संख्या में सात करोड़ की बढ़ोतरी हुई है, वहीं दूसरी तरफ अरबपतियों की संख्या में सैंतीस प्रतिशत की वृद्धि। यह हमें लगातार सोचने को विवश कर रही है। इस विकट परिस्थिति से भी निपटा जा सकता है अगर आर्थिक सुधारों में महिलाओं के आर्थिक विकास को मुख्य उद्देश्य के रूप में रखा जाए।
भारत में महिला आर्थिक विकास तभी संभव है, जब हर महिला रोजगार को अपना उद्देश्य बनाए। भारत में वर्तमान महिला आर्थिक विकास से संबंधित कार्यों और नीतियों पर एक दृष्टि डालें, तो पाएंगे कि आजादी के पचहत्तर वर्षों बाद भी महिला सशक्तीकरण का विचार हमारे कानों में गूंजता तो रहता है, पर अभी तक भारत में इस पर ठोस कार्य नहीं हुए हैं। सही मायनों में महिला सशक्तिकरण तभी संभव है जब महिला आर्थिक विकास की ओर मजबूती से काम हो। स्थिति इतनी विकट है कि देश की कुल आबादी में अड़तालीस प्रतिशत महिलाएं हैं, पर रोजगार में सिर्फ एक तिहाई ही संलग्न हैं।
भारत की कुल ‘एमएसएमई’ का मात्र उन्नीस प्रतिशत महिलाओं द्वारा संचालित हो रहा है। महिलाओं का वेतन भी पुरुषों के वेतन का पैंसठ प्रतिशत है। ‘बीएसई’ और ‘एनएसई’ में सूचीबद्ध कंपनियों में मात्र नौ प्रतिशत महिलाएं उच्च पद पर आसीन हैं। जिस तरह दिन-प्रतिदिन कंप्यूटर द्वारा ‘आटोमेशन’ हो रहा है, उससे वर्ष 2030 तक करीब दो करोड़ ग्रामीण रोजगारों में संलग्न महिलाओं के सामने बरोजगारी की समस्या भी खड़ी होने वाली है। एक शोध रिपोर्ट के मुताबिक अगर भारत में महिलाओं को पुरुषों के बराबर रोजगार में तवज्जो मिलने लग जाए, तो अर्थव्यवस्था में बिना कोई आमूलचूल परिवर्तन हुए भी जीडीपी सात अरब अमेरिकी डालर तक बढ़ सकती है।
महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन की सोच को देखते हुए अब महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा उद्यमिता की तरफ बढ़ना चाहिए। पिछले कुछ समय से समाज में एक बदलाव आया है, जिसमें माता-पिता अपनी पुत्री के लिए भी तकनीकी तथा व्यावसायिक प्रबंधन की शिक्षा को ज्यादा से ज्यादा प्राथमिकता देने की कोशिश कर रहे हैं। महिलाओं के आर्थिक विकास के मुद्दे को बड़ी संख्या में बल तब मिलेगा, जब ऐसी शिक्षित लड़कियां स्वयं आगे बढ़ कर अपनी तकनीकी तथा व्यावसायिक प्रबंधन की शिक्षा का उपयोग खुद के व्यावसायिक प्रतिष्ठान में करने की कोशिश करेंगी।
इसके माध्यम से समाज में एक बदलाव आएगा तथा महिलाओं का समाज के आर्थिक विकास में भी योगदान बढ़ेगा। इस संदर्भ में हमारे समाज की एक वास्तविकता को भी समझना होगा। आज भी हमारा समाज उद्यमिता या एंटरप्रेन्योरशिप के अंतर्गत महिलाओं को कमजोर समझता है। यह लगभग सभी की मानसिकता है कि व्यवसाय या व्यापार करना सिर्फ पुरुषों के दायरे में आता है, क्योंकि वही इसमें ज्यादा सक्षम होते हैं। इसी सोच के कारण महिला उद्यमी को अपने व्यापार-व्यवसाय को दूसरों के सामने प्रस्तुत करने में अनेक समस्याएं आती है, जिसमें सबसे बड़ी बाधा आवश्यक वित्त की सुविधाओं के निर्धारण तथा प्राप्ति से संबंधित होती है।
इसके अलावा हमारे समाज में महिलाएं स्वयं भी व्यवसाय को प्राथमिकता नहीं देना चाहतीं, क्योंकि वे इसमें पुरुषों का एकाधिकार ज्यादा देखती हैं। यह भी हमारी एक सामाजिक मानसिकता का प्रतीक है कि परिवार में छोटे बच्चों के पालन-पोषण की प्राथमिक जिम्मेदारी पुरुष की तुलना में महिला की ज्यादा होती है, जिसके कारण भी आधुनिक रूप से शिक्षित महिलाएं व्यापार करने का निर्णय लेने में हिचकती हैं तथा वे व्यवसाय की तुलना में नौकरी करने को ज्यादा उचित समझती हैं, क्योंकि उस दशा में वे अपने आप को ज्यादा सुविधाजनक पाती हैं। अगर वास्तव में महिला आर्थिक विकास की बात करनी है, तो हमें उपरोक्त सामाजिक सोच तथा मानसिकता को बदलना होगा।
इस संदर्भ में एक विडंबना यह भी है कि उन महिलाओं को आर्थिक विकास से कैसे जोड़ा जाए, जो निम्न मध्यवर्गीय परिवार से संबंधित हैं। वे मात्र साक्षर हैं, आधुनिक रूप से शिक्षित नहीं हैं तथा उनके परिवार में आश्रितों की संख्या भी अधिक है। वर्तमान परिस्थिति में हमारे मुल्क में ऐसी महिलाओं की संख्या काफी है। यहां एक आदर्श स्थिति बन सकती है, अगर ये महिलाएं स्वयं आगे बढ़ कर किसी भी तरह के आर्थिक रोजगार को अपनी आय का मुख्य स्रोत बनाने का निश्चय करें। इसके माध्यम से जहां एक तरफ आश्रितों की संख्या कम होगी, वहीं दूसरी तरफ आर्थिक विषमता भी कम होगी।
ऐसी महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन से पहले उन्हें आर्थिक विकास का एक स्रोत मिलना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए सरकारों, सामाजिक संगठनों और औद्योगिक घरानों आदि को मिल कर एक पहल करनी होगी। सामाजिक संस्थानों के माध्यम से ऐसी महिलाओं को प्रमाणित तथा एकत्रित करना होगा, जो अपने जीवन में आर्थिक उद्देश्य को पूरा करना चाहती हैं। सरकारों के माध्यम से औद्योगिक घरानों को दिशा-निर्देश दिए जाएं कि वे आगे बढ़ कर सामाजिक संगठनों के साथ मिल कर एक सामंजस्य स्थापित करें, ताकि ऐसी महिलाओं को उनके आर्थिक उद्देश्य के लिए किसी विशेष तरह के रोजगार के लिए शिक्षित और प्रशिक्षित किया जा सके।
इस संदर्भ में सिलाई, कढ़ाई, पेंटिंग, ब्यूटी पार्लर, कुकिंग से संबंधित कई तरह के प्रशिक्षण दिए जा सकते हैं। यह सब कई जगह किया भी जा रहा है, पर अब सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि इन प्रशिक्षण शिविरों के बाद भी ऐसी प्रशिक्षु महिलाओं को उद्यमिता के बारे में भी सिखाया जाए, जिसके अंतर्गत मुख्य रूप से गुणवत्ता प्रबंधन तथा सोशल मीडिया के विभिन्न स्रोतों के माध्यम से अपने उत्पाद की मार्केटिंग के नए तौर-तरीके जानना अत्यंत आवश्यक है।
अक्सर देखा जाता है कि प्रशिक्षण शिविर के बाद भी कम पढ़ी-लिखी महिलाएं रोजगार में सलंग्न नहीं होतीं, क्योंकि उनमें उद्यमिता अपनाने का आत्मविश्वास नहीं होता है। जरूरत है इन महिलाओं को प्रेरित और जागरूक करने की, ताकि बैंकिंग सुविधाओं और आर्थिक सहयोग से उन्हें उद्यमिता की तरफ मोड़ा जा सके। यह समाज में एक क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है।
वास्तव में स्त्री और पुरुष दोनों के कंधों पर अपने परिवार को चलाने की जिम्मेदारी के साथ समाज और देश के आर्थिक विकास में योगदान देना एक कर्तव्य है। खुशी होती है इस बात से कि हम स्त्री सशक्तिकरण को बहुत तवज्जो देते हैं तथा वास्तव में इस पक्ष पर पिछले काफी समय से बहुत मजबूती से काम भी हो रहा है, पर अब समय आ गया है, जब स्त्री को आर्थिक विकास की मुख्यधारा में पुरुष के समान ही महत्त्व दिया जाए।